डिक्टा-फिक्टा: हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक ज़रूरी अध्याय है टैगोर का सिनेमा के साथ जुड़ाव


रबींद्रनाथ टैगोर बीसवीं सदी के महान रचनात्मक व्यक्तित्वों में से एक हैं. भारतीय आधुनिकता पर उनकी अमिट छाप है. साहित्य, रंगकर्म, शिक्षा, शिल्प और दर्शन में सार्थक हस्तक्षेप कर विभिन्न कला विधाओं और ज्ञान के विषयों को सकारात्मक दिशा प्रदान करने वाले टैगोर ने उस युग में दस्तक दे रही नवीनतम कला सिनेमा से भी गहरा नाता जोड़ा.

दुनिया भर में अलग-अलग भाषाओं, खासकर बांग्ला, में उनकी रचनाओं पर आधारित करीब 100 फिल्में बनी हैं. उनके द्वारा आरंभ की गयी संगीत की विशिष्ट शाखा- रबींद्र संगीत- तो बांग्ला सिनेमा का अभिन्न हिस्सा ही बन चुका है. उनकी अनेक कविताएं भी गीतों में ढाली गयी हैं. कई बांग्ला फिल्मों के नाम भी उनकी कविताओं से लिए गये हैं. यह सब इसलिए भी खासा दिलचस्प है क्योंकि खुद टैगोर ने 1929 में सिनेमा के साहित्य पर बढ़ती निर्भरता और उसके पीछे चलने की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर की थी और कहा था कि ‘सिनेमा को इस बंधन से आजाद होना चाहिए’.

TAGOREandCINEMA

बहरहाल, टैगोर का सिनेमा के साथ जुड़ाव हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक ऐसा अध्याय है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. हमारे देश में सिनेमा की औपचारिक यात्रा दादासाहेब फाल्के की ‘सत्य हरिश्चंद्र’ से प्रारंभ होती है. इससे पहले टैगोर को ‘गीतांजलि’ के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल चुका था और स्वतंत्रता के लिए आंदोलनरत देश के लिए वे एक मार्गदर्शक की हैसियत पा चुके थे. विराट पुरातन भारतीयता की परंपरा के प्रति गहरा अनुराग और आग्रह रखते हुए भी वे पश्चिमी इतिहास और उसकी आधुनिकता के प्रति भी रुचि रखते हैं. नये का स्वागत और प्रयोगधर्मिता उनकी सोच और उनके कर्म के जरूरी कारक थे. सिनेमा के महत्व को बहुत पहले समझ लेने का तथ्य इस बात से पुष्ट होता है कि उन्होंने 1914 में धीरेंद्र गांगुली के लिए एक अनुशंसा पत्र लिखा था ताकि वे फ्रांस में सिनेमैटोग्राफी की पढ़ाई कर सकें. गांगुली बाद में उन शीर्ष लोगों में गिने गये जिन्होंने भारतीय सिनेमा के विकास में अहम योगदान दिया. कुछ साल बाद उन्होंने पीसी बरुआ के लिए भी ऐसा ही पत्र लिखा था जिसे लेकर वे प्रशिक्षण के लिए पेरिस के फॉक्स स्टूडियो गये थे.

बहुत साल बाद देश-दुनिया के सिनेमा-संसार से निकटता रखने के बाद 1932 में उन्होंने स्वयं फिल्म निर्देशन में हाथ आजमाने का फैसला किया और ‘नातिर पूजा‘ नामक फिल्म बनायी जिसे दर्शकों और समीक्षकों ने नकार दिया. इसका सीधा कारण इसका फिल्मांकन था. टैगोर के एक नाटक के मंचन को दो कैमरों से रिकॉर्ड किया था जिन्हें मंच के दो कोनों पर स्थिर रखा गया था. फिल्म की कमी को उन्होंने स्वीकारा भी और फिर कभी निर्देशन नहीं किया. यह फिल्म उनकी कविता ‘पुजारिन’ पर आधारित थी और इसे न्यू थियेटर्स ने बनाया था. इस फिल्म की रील 1940 में कंपनी में लगी आग में नष्ट हो गयी थी. बाद में उसके कुछ अंश मिले थे.    

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद से वे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लगातार यात्रा करते रहे थे और इस दौरान सिनेमा से भी उनका जुड़ाव सघन होता जा रहा था. आठ अगस्त, 1926 को लंदन के अखबार ‘द ऑब्ज़र्वर’ की एक रिपोर्ट में रबींद्रनाथ टैगोर के एक साक्षात्कार का उल्लेख है. टैगोर उस समय लंदन में थे. उन्हें ब्रिटिश एंपायर फिल्म इंस्टीट्यूट के उद्घाटन के अवसर पर आमंत्रित किया गया था. यह साक्षात्कार भी उन्होंने इस संस्था के निदेशक जे आब्रे रीस को दिया था. उन्होंने संस्थान की स्थापना का स्वागत किया और कहा कि फिल्म उद्योग में कला के उच्च स्तर को हासिल करने के हर आंदोलन का समर्थन किया जाना चाहिए. उन्होंने इस संस्थान की शीर्ष समिति में सदस्यता को भी स्वीकार किया था. उन्होंने उस समय की फिल्मों में सनसनी, अत्यधिक भावुकता, सेक्स संबंध, अपराध आदि के चित्रण पर अफसोस जाहिर करते हुए मानवी चरित्र और आध्यमिकता पर लक्षित फिल्में बनाने का सुझाव दिया था और उम्मीद जाहिर की थी कि कलात्मक चेतना से संपन्न भारतीय ऐसी फिल्मों का स्वागत करेंगे.

वर्ष 1930 की उनकी यात्रा लंबी यात्राओं के सिलसिले में अहम स्थान रखती है. उस वर्ष उन्होंने 69 वर्ष की आयु में सात देशों और 23 शहरों की यात्रा की थी. जर्मनी के म्यूनिख शहर के पास एक कस्बे में उन्होंने एक फिल्म देखी थी जिससे वे इतने अभिभूत हुए कि रात भर में फिल्म के लिए उन्होंने अंग्रेजी में एक कहानी ‘द चाइल्ड’ लिख दी. उसी समय उन्हें जर्मनी की सबसे बड़ी फिल्म कंपनी यूनिवर्सम फिल्म एजी से लेखन का एक प्रस्ताव भी मिला था. इस फिल्म का निर्देशन फ्रांज ऑस्टेन के सहयोग से हिमांशु राय को करना था जो भारतीय सिनेमा के इतिहास के महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं. उनकी फिल्म कंपनी बॉम्बे टॉकिज ने हमारे सिनेमा को ऊंचाई देने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. जर्मन निर्देशक ऑस्टेन भी भारतीय सिनेमा से जुड़े थे और उनकी बनायी ‘अछूत कन्या’ (1936) एक मील का पत्थर मानी जाती है. इस फिल्म के कोलकाता के पाराडाइज सिनेमा हॉल में पहले प्रदर्शन में टैगोर ने शिरकत की थी. तत्कालीन विश्व राजनीति में तेज बदलाव तथा सिनेमा में आवाज के आने के कारण यह फिल्म नहीं बन सकी. बाद में टैगोर ने ‘द चाइल्ड’ की स्क्रिप्ट को छह भागों में बांग्ला कविता ‘शिशु तीर्थ’ के रूप में लिखा. लेखक इंद्रनील चक्रवर्ती इसे सिनेमा के उपन्यासीकरण के शुरुआती उदाहरणों में गिनते हैं.

A still from Achhut Kanya

सिनेमा में आवाज के आने से पहले टैगोर की कई कहानियों पर फिल्में बन चुकी थीं, जो उन कहानियों की चित्रात्मकता को इंगित करती हैं. इनमें मनभंजन (1923), बिचारक (1928), बिसर्जन (1929), गिरीबाला (1929), डलिया (1930) और नौकाडुबी (1932) शामिल हैं. टैगोर की कहानियों पर फिल्में बनाने वालों में नितिन बोस, शिशिर भादुड़ी, सातु सेन, मधु बोस, धीरेंद्र गांगुली जैसे नामी फिल्मकार शामिल थे. दुर्भाग्य से ये फिल्में नष्ट हो चुकी हैं. पहले उल्लिखित ‘नातिर पूजा’ के भी कुछ रील ही मिल सके हैं. माना जाता है कि मधु बोस द्वारा निर्देशित ‘गिरीबाला’ की पटकथा को तैयार करने में सहयोग दिया था. वे मदान थियेटर्स द्वारा निर्मित ‘डलिया’ के पहले प्रदर्शन के दौरान भी उपस्थित थे. वर्ष 1932 में कोलकाता के रुपबानी सिनेमा हॉल के उद्घाटन समारोह के लिए उन्होंने एक कविता भी लिखी थी.

यहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि सिनेमा को लेकर टैगोर का उत्साह कभी-कभी आलोचनात्मक भी हो जाता था. यह भी कि साहित्य की स्वतंत्रता के पक्षधर टैगोर अपनी ही कथा पर बनी फिल्म पर रोक के विरोध में स्पष्टता से खड़े नहीं हो सके. वर्ष 1928 में ईस्टर्न फिल्म सिंडीकेट ने ‘बिचारक’ बनायी थी जिसे रंगमंच के विख्यात निर्देशक शिशिर भादुड़ी ने निर्देशित किया था. बंगाल की तत्कालीन संस्कृति के दो बड़े नाम जुड़े होने के बावजूद पुरुषवादी मानसिकता के विरोध के कारण फिल्म को घटिया बताते हुए इसके प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गयी. टैगोर पर इस पाबंदी के विरुद्ध बोलने का दबाव था, पर वे निर्णय नहीं ले पा रहे थे.

इससे पहले वे शरतचंद्र के उपन्यास पर लगी रोक का विरोध करते हुए लेखक को समर्थन और उत्साहवर्द्धन का पत्र लिख चुके थे. कुछ समय बाद उन्होंने बड़ी सावधानी बरतते हुए सिनेमा बनाने में चूक के कारण फिल्म की गुणवत्ता प्रभावित होने के सरलीकरण के साथ निर्देशक के भाई को पत्र लिखा. इसके बावजूद उन्होंने अगले साल अपनी रचना ‘तापती’ के निर्देशन का जिम्मा शिशिर भादुड़ी को ही सौंपा. माना जाता है कि टैगोर खुद फिल्म से संतुष्ट नहीं थे, पर निर्देशक की क्षमता के बारे में उन्हें कोई शुबहा नहीं था.

वर्ष 1934 और 1938 के बीच टैगोर के तार हॉलीवुड से भी जुड़े. वर्ष 1921 में छपी उनकी जीवनी के लेखक और बंगाल मेथॉडिस्ट चर्च के पादरी एडवर्ड जॉन थॉम्पसन, जो कि उनके करीबी मित्र भी थे, के जरिये उनका संपर्क हॉलीवुड के अलेक्जेंडर कोर्दा से हुआ जो कि हंगेरियन मूल के थे. हालांकि टैगोर को आशंका थी कि हॉलीवुड उनकी रचना की संवेदनशीलता के साथ न्याय नहीं कर सकेगा, लेकिन वे परियोजना से जुड़ गये पर रचनात्मक टकराव की वजह से इस दिशा में कोई प्रगति न हो सकी. नबंबर, 1930 में उन्हें कनाडा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म सम्मेलन में भाषण के लिए भी आमंत्रित किया गया था. सोवियत संघ की यात्रा के दौरान उन्होंने सर्जेई आजेंस्टाइन की फिल्में भी देखी थीं और उन्हें सराहा था, पर वहां भी उन्होंने फिल्म के स्वायत्त कला के रूप में विकसित होने का अपना आग्रह व्यक्त किया था.   

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, बांग्ला सिनेमा में उनकी रचनात्मकता का व्यापक प्रभाव पड़ा है जो आज भी जारी है. सत्यजित रे ने कहा था कि उनके बनने में टैगोर का बड़ा असर है. यह स्वागतयोग्य बात है कि बीते दिनों में उनके सिनेमा के साथ सरोकार पर अध्ययन हो रहे हैं जिनसे उनके विचार और व्यक्तित्व की अनेक परतें हमारे लिए सुलभ हो रही हैं. उम्मीद है कि इन शोधों में त्वरा आयेगी और हम नयी समझ से लाभान्वित होंगे.


 


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