विद्यार्थियों के लिए एक शोकगीत


नावेल कोरोना वायरस के अनुपातहीन भय के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों में इतालवी दार्शनिक जार्जो आगम्बेन सबसे प्रतिष्ठित आवाज हैं। उनकी बातों का विश्व के प्रमुख अकादमिशियनों ने संज्ञान लिया है, जिसके परिणामस्वरूप कथित ऑनलाइन-डिजिटल शिक्षा के के विरोध की सुगबुगाहट वैश्विक स्तर पर आरंभ हुई है। आगम्बेन की कोविड संबंधी टिप्पणियों का हिंदी अनुवाद प्रमोद रंजन की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक “भय की महामारी” में संकलित हैं, जिन्हें जॉर्जो आगम्बेन की अनुमति से किया गया है। प्रस्तुत है, उनमें एक टिप्पणी।

अनुवादक

जैसा कि हमें पहले से अंदाज़ा था, अगले साल पढ़ाई ऑनलाइन होगी। अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से पढ़ने वाले सभी लोगों को पहले से लग रहा था कि इस महामारी को डिजिटल तकनीकी के प्रसार के लिए बहाने के तौर पर प्रयोग किया जायेगा. यह आशंका सही सिद्ध हो गयी है।

हमें इस बात में बहुत रुचि नहीं है कि इस कदम से शिक्षा प्रणाली से भौतिक कक्षाएं (जो अध्यापकों और विद्यार्थियों के पारस्परिक संबंध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं हैं) गायब हो जायेंगी। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि इससे सेमिनारों में समूह चर्चा, जो शिक्षा का सबसे जीवंत हिस्सा था, की गुंज़ाइश ही समाप्त हो जाएगी। जिस तकनीकी बर्बरता के युग में हम हैं, उसमें हमें महसूस करने के लिए कुछ भी नहीं है। हम एक स्क्रीन के कैदी बन गए हैं।    

जो कुछ हो रहा है, उसका एक महत्वपूर्ण निहितार्थ है जीवन जीने एक तरीके के रूप में विद्यार्थी-पन का अंत। यूरोप में यूनिवर्सिटीज का जन्म  विद्यार्थी-संघों (यूनिवर्सिटेट्स) से हुआ था। विद्यार्थी होना, जीवन जीने का एक तरीका था। पढना और लेक्चर सुनना इसका एक हिस्सा था। परन्तु अन्य विद्यार्थियों के साथ होने वाला वैचारिक टकराव और उनके साथ विचार-विमर्श इसके कम महत्वपूर्ण हिस्से नहीं थे। ये विद्यार्थी सुदूर स्थानों से और दूसरे देशों से भी आते थे। इस पूरी व्यवस्था का विकास एक लम्बे दौर में हुआ परन्तु इस पूरी अवधि में उसका सामाजिक आयाम बना रहा। जिसने भी किसी यूनिवर्सिटी में पढाया है, वह जानता है कि किस तरह क्लास रूम में दोस्त बनते हैं, किस तरह अपनी-अपनी सांस्कृतिक और राजनैतिक रुचियों के अनुसार, छोटे-छोटे अध्ययन और शोध समूह बन जाते हैं।

यह सब, जो लगभग 10 सदियों से हो रहा था, आज ख़त्म होने की कगार पर है। विद्यार्थी अब उस शहर में नहीं रहेंगे जहाँ उनका विश्वविद्यालय है। इसके बदले, वे अपने कमरों में बंद होकर लेक्चर सुनेंगे और उन लोगों से सैकड़ों किलोमीटर दूर होंगें जो कभी उनके सहपाठी हुआ करते थे। छोटे शहर, जो अपने विश्वविद्यालयों के लिए ही प्रसिद्ध थे, उनकी सड़कों से विद्यार्थियों के समूह, जो इन शहरों का सबसे जीवंत हिस्सा थे, गायब हो जाएंगे।

हर उस सामाजिक परिघटना, जो मर जाती है, के बारे में कहा जा सकता है कि वह इसी लायक थी। यह निश्चित है कि हमारे विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार और विशेषज्ञ अज्ञानियों के अड्डे बन गए थे और उनके अंत का शोक नहीं मनाया जाना चाहिए। परन्तु दो बातें पक्की हैं:

  1. जो प्रोफेसर टेलीमैटिक्स की तानाशाही के आगे दंडवत हो रहे हैं और केवल ऑनलाइन कक्षाएं चलाने के लिए राजी हो रहे हैं, वे उन यूनिवर्सिटी अध्यापकों के समान हैं जिन्होनें 1931 में फ़ासिस्ट सरकार के प्रति वफ़ादारी की शपथ ली थी। (देखें, पाद टिप्प्णी) जैसा कि तब हुआ था, अभी भी संभावना इसी की है कि 1,000 में से केवल 15 शिक्षक ही इस नई तानाशाही को क़बूल करने से इनकार करेंगे, परन्तु उनके नाम उन 15 शिक्षकों के बराबर हमेशा याद रखे जाएंगे, जिन्होंने तब शपथ नहीं ली थी।
  2.  वे विद्यार्थी जिन्हें पठन-पाठन से सच्चा प्यार हैं उन्हें इन परिवर्तित विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने से इंकार करना होगा और जैसा कि शुरुआत में हुआ था, उन्हें अपने संघ बनाने होंगे. इन्हीं के अन्दर, तकनीकी बर्बरता से दूर, पुरानी दुनिया जीवित रह सकेगी और शायद उनमें से ही एक नयी संस्कृति जन्म लेगी – अगर जन्मी तो।  

(जॉर्जो आगाम्बेन की यह टिप्पणी सबसे पहले 23 मई, 2020 को इतालवी वेबसाइट  the Istituto Italiano per gli Studi Filosofici पर प्रकाशित हुई थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद डी.एलन डीन ने किया है। इनका हिंदी अनुवाद उपरोक्त अंग्रेजी अनुवादों के आधार पर जॉर्जो आगम्बेन की अनुमति से किया गया है )

पाद टिप्पणी

मुसोलिनी के फ़ासीवादी शासन ने इतालवी विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को निष्ठा की शपथ लेने के लिए बाध्य किया था। शपथ में मुसोलिनी द्वारा तानाशाही को स्थापित करने के लिए किए गए अपराधों की पूर्ण स्वीकृति भी निहित थी। कुल बारह सौ शिक्षाविदों में से केवल बारह ने ही अपने करियर की कीमत पर शपथ लेने से इनकार करने की हिम्मत दिखाई। जबकि उनमें से अनेक प्रोफेसर फासीवाद के विरोधी थे, या फिर उसके  समर्थक नहीं थे। जर्मन इतिहासकार हेल्मुट गोएत्ज़ ने “मुक्त आत्मा और उसके विरोधी: 1931 में इतालवी विश्वविद्यालयों में शपथ लेने वाले” (1993) शीर्षक शोध-ग्रंथ  में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया है। उनकी इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद शपथ नहीं लेने वाले प्राफेसरों के नाम फासीवाद के विरोध के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गए। दिलवाई गई शपथ इस प्रकार थी – “I swear fidelity to the King, to his Royal successors and to the Fascist regime, and I swear to respect the [National Fascist Party’s] Statute and the other laws of the State, and to fulfil my teacher’s and all academics’ duties with the aim of preparing industrious and righteous citizens, patriotic and devoted to the Fascist regime. I swear not to be or ever become a member of organizations or parties whose activities are incompatible with my official duties”.


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