भारत में आपराधिक अवमानना की प्रासंगिकता: संदर्भ प्रशांत भूषण


आज हम एक अजीब दौर से गुज़र रहे हैं। महामारी ने सारी गतिविधियों को ठप कर डाला है। कुछ कार्यस्‍थल और संस्‍थान जहां धीरे-धीरे पटरी पर लौट रहे हैं, वैसे में इस बात को प्राथमिकता दी जा रही है कि सबसे ज़रूरी काम सबसे पहले हों। महामारी के चलते संकुचित दिनचर्या के हिसाब से प्राथमिकता के आधार पर मुकदमों की सुनवाई करना सुप्रीम कोर्ट के लिए कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होना चाहिए। दर्जनों संवैधानिक मुकदमे हैं जिनकी सुनवाई की तत्‍काल ज़रूरत है, जैसे नागरिकता (संशोधन) कानून की संवैधानिकता, चुनावी बॉन्‍ड का मुद्दा या फिर जम्‍मू और कश्‍मीर से दायर हेबियस कॉर्पस की याचिकाएं। यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है क‍ि इस अजीबोगरीब दौर में तात्‍कालिक महत्‍व के मुद्दों पर सुनवाई करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने दो ट्वीटों पर अपनी भौंहें चढ़ा दीं। कोर्ट के मुताबिक इन दो ट्वीट के कारण “न्‍यायिक प्रशासन की प्रतिष्‍ठा को चोट पहुंची है और इस संस्‍थान की मान मर्यादा और इख़्तियार को ये कम करने में सक्षम हैं… खासकर भारत के प्रमुख न्‍यायाधीश के पद की…।“ इन दो ट्वीटों पर स्‍वत: संज्ञान लेते हुए प्रतिक्रिया में सर्वोच्‍च अदालत ने इनके लेखक, अधिवक्‍ता और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू कर दी है।      

ये जो “अदालत की मान मर्यादा और इख़्तियार का सम्‍मान” करने की ज़रूरत है, उसकी जड़ें राजशाही में हैं जब इंग्‍लैंड के सम्राट खुद फैसले सुनाया करते थे। पिछली सदियों के दौरान न्‍याय निर्णय का अधिकार जब से जजों के हाथ में आ गया, तब जजों के प्रति असम्‍मान का प्रदर्शन लोकतंत्र की अवधारणा के साथ बेमेल हो गया। अवमानना के कानून को समाप्‍त करने की सिफारिश करते हुए 2012 की एक रिपोर्ट में यूके के विधि आयोग ने कहा था कि यह कानून शुरुआत में अदालतों के इर्द-गिर्द एक प्रभामंडल कायम रखने की मंशा से कायम रखा गया था। उसमें कहा गया कि इसे अपराध ठहराने का उद्देश्‍य केवल यहीं तक “सीमित नहीं था कि जजों के बारे में जनता में गलत धारणा न बनने पाये, बल्कि यह भी था कि जहां कहीं कोई कमी हो, जनता को सही विचारों तक पहुंचने से रोका जा सके।“

अवमानना का कथित उद्देश्‍य एक ऐसी स्थिति में जनता के हितों की रक्षा करना है जब अदालत के इख़्तियार में कोई कमी आती है और न्‍याय प्रशासन में जनता का भरोसा कमजोर होता है या खत्‍म हो जाता है। भारत में हालांकि आपराधिक अवमानना की परिभाषा बहुत व्‍यापक है और इसे आसानी से आरोपित किया जा सकता है। ऐसी कार्यवाहियों को शुरू करने में अदालतों द्वारा स्‍वत: संज्ञान लिया जाना मामलों को केवल जटिल बनाने का काम करता है। जब 2006 में अदालत की अवमानना के कानून को संशोधित किया गया, उस वक्‍त सत्‍य और सदिच्‍छा को बचाव के तौर पर वैधता नहीं दी गयी थी। दिल्‍ली के उच्‍च न्‍यायालय ने बचाव के तौर पर सच और सदिच्‍छा की दलील के बावजूद मिड डे के कर्मचारियों को कोर्ट की अवमानना का दोषी पाया था जिसमें उन्‍होंने एक अवकाश प्राप्‍त चीफ जस्टिस का प्रतिकूल निरूपण किया था।

जस्टिस वीआर कृष्‍णा अय्यर ने अवमानना के कानून को अनिश्चित सीमाओं वाला एक भ्रामक और धुंधला कानून करार देते हुए कहा था: अवमानना कानून, जनहित से इतर, नागरिक स्‍वतंत्रता पर वार कर सकता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस हद तक इस वार को बरदाश्‍त करने को तैयार हैं। प्रथम दृष्‍टया देखें तो आपराधिक अवमानना का कानून हमारी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था के साथ पूरी तरह बेमेल है, जो अभिव्‍यक्ति और वाणी की स्‍वतंत्रता को मूलभूत अधिकार मानता है।

‘जनता के भरोसे का क्षरण’ वाले पैमाने का अत्‍यधिक लापरवाह इस्‍तेमाल और साथ में स्‍वत: संज्ञान लेने के अधिकार में उदारता का प्रदर्शन खतरनाक सिद्ध हो सकता है, चूंकि इसे कोर्ट के इस इशारे के रूप में लिया जा सकता है कि वह अपने बारे में किसी भी किस्‍म की आलोचनात्‍मक टिप्‍पणी को बरदाश्‍त करने को तैयार नहीं, भले ही उसके कृत्‍य प्रत्‍यक्षत: कितने ही समस्‍याग्रस्‍त क्‍यों न हों। इस तरह लोगों को चुप कराने के लिए कानून का इस्‍तेमाल करने के मामले में न्‍यायपालिका खुद को कार्यपालिका के समानांतर खड़ा हुआ पाती है।

इसके अलावा, आपराधिक अवमानना पर एक कानून की आवश्‍यकता की समीक्षा करने से आगे बढ़कर अवमानना के पैमाने का भी मूल्‍यांकन किये जाने की ज़रूरत है। यदि ऐसा कोई पैमाना वास्‍तव में होना ही चाहिए, तो वो यह हो कि क्‍या सवालिया टिप्‍पणी कोर्ट को उसका काम करने से रोके दे रही है। इसके अतिरिक्‍त, संस्‍थान की कैसी भी आलोचना को रोकने का साधन इसे नहीं बनने देना चाहिए।

विदेश के लोकतंत्रों में तो अवमानना व्‍यवहार में अब अप्रासंगिक हो चुकी है। वहां ऐसे फैसले हैं जो इस कानून को आदिम ठहराते हैं जो कि पिछले जमाने की चीज़ था और काफी पहले जिसकी उपयोगिता और अनिवार्यता समाप्‍त हो चुकी है। कनाडा में अवमानना उसे माना जाता है जो प्रशासन के लिए वास्‍तविक, पर्याप्‍त और तात्‍कालिक खतरे उत्‍पन्‍न करता हो जबकि अमेरिका कानूनी मामलों में या जजों पर की गयी टिप्‍पणी की प्रतिक्रिया में अवमानना कानून का प्रयोग नहीं करता है।

इंग्‍लैंड में भी, जहां से हमें यह अवमानना कानून विरासत में मिला है, इसको लेकर कानूनी स्थिति स्‍पष्‍ट है। हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा अस्‍सी के दशक में चर्चित स्‍पाइकैचर निर्णय जब दिया गया तब ब्रिटिश टेबलॉयड डेली मिरर ने जजों की सिर के बल एक तस्‍वीर छापी थी जिसका कैप्‍शन था, “यू ओल्‍ड फूल्‍स”! इस अखबार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही करने से इनकार करते हुए बेंच के एक जज लॉर्ड टेम्‍पलटन ने कहा था, “मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि मैं बूढ़ा हूं, ये तो सच है। जहां तक मेरे मूर्ख होने का सवाल है, ये सामने वाले के नज़रिये पर निर्भर करता है। इसलिए अवमानना के अधिकार को यहां लाने की कोई जरूरत नहीं है।“ यहां तक कि 2016 में भी ब्रेग्जि़ट सम्‍बंधी कोर्ट के एक फैसले के बाद जब डेली मेल ने तीनों जजों की तस्‍वीर “एनेमीज़ ऑफ दि पीपॅल” के कैप्‍शन से छापी, जिसे बहुत से लोगों ने वाकई अतिवादी माना, तब कोर्ट ने इस स्‍टोरी को काफी विवेकपूर्ण तरीके से नजरंदाज कर दिया और कोई अवमानना कार्यवाही नहीं की।

भारत की अदालतें हालांकि अकसर ऐसी परिपक्‍वता दिखलाने के लिए नहीं जानी जाती हैं। एक अपवाद बेशक है जब जस्टिस एसपी भरूचा ने एक बांध के निर्माण पर लगी रोक को हटाने सम्‍बंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अरुंधति रॉय की आलोचना पर प्रतिक्रिया दी थी: यह मानते हुए कि रॉय ने अदालत को अपमानित किया है, उसके आगे और कुछ नहीं किया गया क्‍योंकि “अदालत के कंधे इतने चौड़े तो हैं ही कि ऐसी टिप्‍पणियों को वह झटक कर साफ़ कर दे।“ यह गरिमा हालांकि तब गायब हो गयी जब अदालत के बाहर एक प्रदर्शन करने और एक हलफ़नामा दाखिल करने पर उनके खिलाफ़ अवमानना की कार्यवाही की गयी, जिसमें रॉय ने लिखा था, “अपने से असहमत लोगों को प्रताडि़त करने और धमकाने, असहमति को चुप कराने और आलोचना का मुंह बंद करने के मामले में अदालत की कार्रवाई चिंताजनक है। एक ऐसी एफआइआर जिस पर कोई थाना भी कार्रवाई करना उपयुक्‍त नहीं समझेगा, उसके आधार पर की गयी शिकायत को संज्ञान में लेकर सुप्रीम कोर्ट खुद अपनी विश्‍वसनीयता और गरिमा को नुकसान पहुंचा रहा है।“ “बुरी मंशा से अदालत के इख्तियार पर विवाद खड़ा करने” के आरोप में रॉय पर अवमानना की कार्यवाही की गयी और जुर्माने के साथ उन्‍हें एक दिन की कैद से दंडित किया गया।

यह अफ़सोस की बात है कि जज ऐसा मानते हैं कि आलोचना को चुप कराने से न्‍यायपालिका के प्रति इज्‍जत में इजाफा होगा। इसके उलट, स्‍वतंत्र अभिव्‍यक्ति को नकली तरीके से रोकने से हालात और गंभीर होते जाएंगे। जैसा कि अमेरिका में 1941 के ब्रिजेज़ बनाम कैलिफोर्निया के मुकदमे में दिये गये ऐति‍हासिक फैसले में टिप्‍पणी की गयी थी, “थोपी गयी चुप्‍पी बेंच के प्रति शायद असंतोष, संदेह और अवमानना को पैदा करे, इज्‍जत को नहीं जैसा कि वह चाहती है।“

प्रशांत भूषण के खिलाफ़ भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवमानना की कार्यवाही के फैसले के समानांतर पाकिस्‍तान की सुप्रीम कोर्ट ने यूट्यूब और अन्‍य सोशल मीडिया मंचों के ऊपर इस बिनाह पर बंदिश लगाने की बात की है कि वे ऐसी “आपत्तिजनक सामग्री” परोसते हैं जो सेना, न्‍यायपालिका, कार्यपालिका, इत्‍यादि संस्‍थानों के प्रति “नफ़रत को उकसाती” हैं। दोनों फैसलों के बीच समानता को देखते हुए वाजिब तौर पर य‍ह चिंता होती है कि भारत की सुप्रीम कोर्ट खुद को किस दिशा में जाते हुए पा रही है। बस उम्‍मीद ही की जा सकती है कि हमारी आशंकाएं निर्मूल साबित हों।  


न्यायमूर्ति ए. पी. शाह दिल्ली और मद्रास उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश हैं और विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं। यह लेख 27 जुलाई, 2020 के द हिन्दू से साभार प्रकाशित है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है


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