आदर्शों का लोप: राष्‍ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत के भविष्‍य की परिकल्‍पना: संदर्भ नेहरू और गांधी


भारत का राष्‍ट्रीय आंदोलन भारतीय जनता की महानतम उपलब्धि रहा है, इस पर एक बहस मुमकिन है। तमाम इंकलाबी आंदोलनों की तरह इसकी शुरुआत भी मामूली थी, जिसके संकेत ब्रिटिश सरकार की विशिष्‍ट नीतियों और कदमों के विरोध में दर्ज शिकायतों में मिलते हैं। इनमें कहीं भी सीधे तौर पर सरकार के विरोध की मंशा नहीं दिखती है। अगर कभी औपनिवेशिक शासन की समाप्ति होती है, तो उसके बाद कैसा भारत बनाया जाना है इसकी कोई परिकल्‍पना भी नहीं मिलती।

सदी का अंत होते-होते भारत के राष्‍ट्रवादियों ने ब्रिटिश राज की आलोचना करते हुए शानदार ग्रंथ लिखे। भारतीय राष्‍ट्रवाद के ”ग्रैंड ओल्‍ड मैन” कहे जाने वाले दादाभाई नौरोजी की पुस्‍तक पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया (1901) का प्रकाशन हुआ जो तीन दशक से ज्‍यादा अवधि में लिखे उनके लेखों का एक संग्रह था। आरसी दत्‍ता की इकनॉमिक हिस्‍टरी ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया के दो अंक 1901 और 1903 में आए। 1903 में ही जी. सुब्रमण्‍य अय्यर की पुस्‍तक इकनॉमिक आसपेक्‍ट्स ऑफ ब्रिटिश रूल छपकर आई। इन सभी पुस्‍तकों का ब्रिटिश राज के प्रति स्‍वर घोर आलोचनात्‍मक था जिनमें ब्रिटेन द्वारा किए जा रहे दोहन, उसके भारी कराधान और भारतीय बाज़ार पर उसके बलात् कब्‍ज़े पर बातें शामिल थीं। ये किताबें हालांकि एक मुक्‍त भारत की किसी व्‍यापक दृष्टि का सूत्रपात करने के बजाय कुछ विशिष्‍ट सुधारात्मक उपायों को सुझाने तक ही सीमित रहीं। आरसी दत्‍ता ने तो ऐसी किसी मंशा को ही अस्‍वीकार कर दिया जब उन्‍होंने इकनॉमिक हिस्‍टरी ऑफ ब्रिटिश रूल के पहले अंक की प्रस्‍तावना में लिखा कि ”भारत के लोग औचक बदलावों और क्रांतियों को पसंद नहीं करते। वे अपने विधायी नेतृत्‍व से सशस्‍9 मिनर्वा की भांति नए संविधानों की मांग नहीं करते हैं। वे इसके बजाय उस लीक पर काम करते रहने को तरजीह देते हैं जो उनके लिए तय कर दी गई हो।” इन पुस्‍तकों से ऐसा स्‍वर निकल रहा था गोया ज़रूरत एक बेहतर और सुधरे हुए ब्रिटिश राज की है जिसमें भारतीय हिस्‍सेदारी ज्‍यादा हो। यह सच है कि ”उग्र” राष्‍ट्रवादियों के महान नेता बाल गंगाधर तिलक स्‍वराज की बात करते थे, लेकिन उनका कहना था कि जब स्‍वराज आ जाएगा तब भारत के लोग तय करेंगे कि स्‍वराज के अंतर्गत भारत की शक्‍ल कैसी होगी। कम से कम सामाजिक सुधारों के संदर्भ में तो वे यही मानते थे जिस पर विदेशी शासकों के राज करने के अधिकार को वे नकारते थे।

इस पृष्‍ठभूमि में इंग्‍लैंड से दक्षिण अफ्रीका की समुद्री यात्रा के दौरान 1909 में महात्‍मा गांधी ने स्‍वराज प्राप्ति के बाद वाले भारत की परिकल्‍पना के संबंध में जो दस्‍तावेज़ लिखने का प्रयास किया, वह एक उल्‍लेखनीय उद्यम था। इस दस्‍तावेज़ का नाम था ‘हिंद स्‍वराज’, जिसका पाठ एक ‘संपादक’ (खुद गांधीजी) और एक काल्‍पनिक ‘पाठक’ के बीच संवाद की शक्‍ल में है। दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के अधिकारों हेतु संघर्ष की अगुवाई करते हुए गांधीजी के दिमाग में यह सवाल स्‍वाभाविक रूप से आया होगा कि वहां उन्‍होंने संघर्ष के माध्‍यम के जिन सिद्धांतों को अपनाया, वे भारत में लागू होंगे या नहीं। उनके लिए हालांकि इससे ज्‍यादा अहम सवाल वह था जिसका दक्षिण अफ्रीका से कोई लेना-देना नहीं था: अगर इन तरीकों से किया गया राष्‍ट्रीय संघर्ष कामयाब हो जाता है और स्‍वराज हासिल हो जाता है, तब भारत कैसा होगा। अगर हिंसक समूह अपने तरीकों से विजय हासिल कर लेते हैं, तो सत्‍ता प्राप्ति के बाद वे अपने लोगों के खिलाफ भी बलप्रयोग के समान तरीके अपनाएंगे। दूसरी ओर मध्‍यमार्गियों की ‘याचक’ प्रवृत्तियां कोई नतीजा देने नहीं जा रही थीं क्‍योंकि उनसे ब्रिटिश शासकों पर कोई असर पड़ने वाला नहीं था। इसका मतलब यह था कि कुल मिलाकर संघर्ष का इकलौता संभव तरीका था कानूनों की शांतिपूर्ण ढंग से अवमानना, जो एक किस्‍म का अनिवारक प्रतिरोध था जिसे गांधीजी ने हाल ही में ‘सत्‍याग्रह’ का नाम दिया था। नैतिक शुचिता का अनुपालन करने वाले नेताओं के आह्वान पर एक बार यदि जनता इसमें जुड़ जाती, तो इसका कामयाब होना तय था। इससे आश्‍वस्‍त होने के बाद गांधीजी ने खुलकर यह सवाल उठाया कि ऐसे साधनों से सफलता मिलने के बाद क्‍या होना चाहिए।

एक औद्योगीकृत देश के रूप में भारत के संवैधानिक उभार व विकास की अंग्रणी राष्‍ट्रवादियों द्वारा सराहना को गांधीजी पूर्णत: खारिज करते थे। उनका उद्घोष था कि ”बिना अंग्रेज़ों के अंग्रेज़ी शासन” की कोई जगह ही नहीं थी। उन्‍होंने इंग्‍लैंड की मौजूदा संस्‍थाओं की प्रकृति व ”सभ्‍यता” की एक अंधकारमय तस्‍वीर प्रस्‍तुत की और उसकी संसदीय प्रणाली, समाज, संस्‍कृति व खासकर उसके औद्योगिक कायदों को खारिज कर दिया। ज़ाहिर है कि ऐसा करने में उनके ऊपर लेव तोलस्‍तोय और जॉन रस्किन का प्रभाव काम कर रहा था जिन्‍हें दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान उन्‍होंने खूब पढ़ा था। मध्‍यमार्गियों के विचार से बिलकुल उलट जाकर (और अधिकांश ‘उग्रपंथियों’ के भी) उन्‍होंने रेलवे के विनाशक प्रभाव तथा भारत की संस्‍कृति व सेहत पर वकीलों व चिकित्‍सकों की कारगुज़ारियों के प्रभाव का विरोध किया। उनके लिए प्राक्-आधुनिक भारत दुनिया की सर्वश्रेष्‍ठ सभ्‍यताओं में से एक था और इस हद तक, कि ”जैसा कि कई लेखकों ने दिखाया है, भारत को किसी से कुछ भी सीखने की ज़रूरत नहीं है।”  

उनके ऐसे ही कुछ बयानों से आरएसएस के मौजूदा प्रचारक खुश नज़र आते हैं, लेकिन उन्‍होंने यह भी माना था कि एक राष्‍ट्र के बतौर भारत का किसी एक धर्म के साथ कोई लेना-देना नहीं है और इसीलिए सभी धार्मिक समुदायों को ‘एकता के साथ’ रहना चाहिए। उनकी मुख्‍य चिंताएं हालांकि कुछ और थीं। उनकी परिकल्‍पना के भारत में कोई मशीनरी नहीं होनी थी बल्कि सारे काम सहज औजारों से किए जाने थे। उनके भारत में खासकर अंग्रेज़ी के आधुनिक स्‍कूल नहीं होने थे बल्कि गांवों के परंपरागत स्‍कूल होने थे। वे जीवन जीने के सहज तरीकों वाले साधारण गांवों की परिकल्‍पना करते थे न कि भीड़भाड़ वाले महानगर या शहरों की जहां जीने के तरीके जटिल होते हैं। गांधीजी के लिए कोई भी सामाजिक सुधार अनिवार्य नहीं था। दो वाक्‍यों में तो वे जाति व्‍यवस्‍था को भी सही ठहराने के बेहद करीब आ जाते हैं: ”हमारे यहां जीवन को घिसने वाली प्रतिस्‍पर्धा का चलन नहीं था। हर कोई अपना पेशा या धंधा करता था और उसी हिसाब से पैसे लेता था।” न ही उन्‍होंने महिलाओं के उत्‍पीड़न के खिलाफ एक शब्‍द कहा है बल्कि परंपरागत समाज में उनकी स्थिति की सराहना की है।

उनकी परिकल्‍पना में जनतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है, विशेष तौर से जनतंत्र के चुनावी स्‍वरूप के लिए। उन्‍होंने ब्रिटेन में संसद की निंदा की थी, तो ज़ाहिर है कि यहां वैस्‍ी कोई संस्‍था बनाने के हक़ में वे नहीं ही होते। इसीलिए उनके लिखे में कहीं भी वयस्‍क मताधिकार या महिलाओं के मताधिकार पर एक शब्‍द नहीं है। ऐसा लगता है कि उनके दिमाग में एक विचार यह भी पल रहा था कि अगर अंग्रेज़ इस बात पर राज़ी हो जाते हैं कि वे भारतीयों का शोषण नहीं करेंगे, बुरा बरताव नहीं करेंगे और अच्‍छी सलाह को मानेंगे, तो भारत के ऊपर अंग्रेज़ी राज को जारी रहने दिया जा सकता है।

गांधीजी दरअसल हिंद स्‍वराज में भारत की अपनी परिकल्‍पना और ज़मीनी हकीकत के बीच के फ़र्क को नहीं समझ पाए। उसकी वजह यही थी कि पुस्‍तक में दिए गए आदर्श और वास्‍तविकता के बीच की खाई बहुत चौड़ी थी। इसी खाई को मापने की कोशिश में उन्‍होंने गरीबों के बीच जाना शुरू किया और अहिंसा के बैनर तले उनके लिए संघर्ष किया। ऐसा कर के वे दरअसल उस जनता को उकसा रहे थे जिसकी वास्‍तविक आकांक्षाओं की दिशा वह नहीं थी जिस ओर गांधीजी उसे नैतिक स्‍तर पर प्रवृत्‍त करना चाहते थे। संघर्ष में हिस्‍सा बनने के बाद लोगों की आकांक्षा इस रूप में विकसित हुई कि वे मुक्‍त भारत में अपनी भौतिक जरूरतों के पूरा होने की उम्‍मीद करने लगे जबकि गांधीजी की परिकल्‍पना एक शुद्ध-शुचित समाज बनाने की थी जो अपनी गरीबी का उत्‍सव मनाता हो।

गांधीजी के आदर्श और जनता की आकांक्षाओं के बीच का यही फ़र्क था जिसने जवाहरलाल नेहरू के वैकल्पिक नज़रिये को समाहित होने की जगह दी थी। गांधीजी के साथ नेहरू का हमेशा से एक विशिष्‍ट रिश्‍ता रहा, लेकिन वे उनकी विश्‍वदृष्टि के कठोर आलोचक थे। नेहरू ने 1934 में प्रकाशित ग्लिम्‍पसेस ऑफ वर्ल्‍ड हिस्‍टरी और 1936 में प्रकाशित एन ऑटोबायोग्राफी में 1920 के बाद की भारत की अपनी परिकल्‍पना को जिस तरह वर्णित किया और साथ ही उनके भाषणों, लेखों व संबोधनों में जो बात सामने आई, वह गांधीजी के विचारों का ठीक उलटा थी।

गांधीजी तोलस्‍तोय और रस्किन से प्रभावित थे जबकि नेहरू की प्रेरणा का स्रोत मार्क्‍स, लेनिन और समाजवाद रहे। इसीलिए गांधीजी की तरह वे अपनी दृष्टि में भारत की पारंपरिक सामाजिक व्‍यवस्‍था को जगह नहीं दे सकते थे। गांधीजी के जैसे वे भारत की परंपरागत शिक्षा में कोई उपयोगिता नहीं देखते थे बल्कि यह चाहते थे कि विज्ञान का जितना प्रसार हो सके उतना बेहतर है। वे अकसर ‘वैज्ञानिक स्पिरिट’ की आवश्‍यकता को रेखांकित करते थे। गांधीजी संसदीय जनतंत्र को खारिज कर चुके थे लेकिन नेहरू एक जनतांत्रिक समाज और वयस्‍क मताधिकार के सिद्धांत के ठोस हिमायती थे। आर्थिक विकास के मसले पर गांधीजी मौन थे लेकिन नेहरू का मानना था कि उसे बाज़ार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि योजना के माध्‍यम से इसे राज्‍य-निर्देशित होना चाहिए।

अपने एक बयान में गांधीजी ने 1947 में यह मान लिया था कि ”मशीन की ताकत आर्थिक प्रगति में बहुमूल्‍य योगदान दे सकती है” और केवल ”कुछेक पूंजीपति हैं जो आम आदमी के हितों से बेपरवाह रहते हुए मशीनी-ताकत से काम ले रहे हैं”। इस प्रेक्षण के बावजूद वे मजदूरों के हितों का संरक्षण करने के लिए उन्‍हीं पूंजीपतियों का मुंह देखने लगते थे। ये उद्योग राज्‍य को सौंपना समाजवाद हो जाता, जिसका कोई सवाल ही नहीं था। नेहरू अपनी आत्‍मकथा में कहते हैं कि उन्‍हें उम्‍मीद थी कि वे ”समाजवादी दिशा की तरफ चलने” के लिए गांधीजी को राजी कर लेंगे लेकिन उन्‍हें अब जाकर (1935) अहसास हुआ कि ”गांधीजी के आदर्शों और समाजवादी उद्देश्‍य के बीच बुनियादी अंतर हैं।” वास्‍तव में अपने बाद के बयानों में गांधीजी ने समाजवादी भावना को थोड़ा-बहुत रियायत बख्‍शी हो, इसके संकेत भी नहीं मिलते।

दूसरी ओर डिस्‍कवरी ऑफ इंडिया के एक पाठ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नेहरू ने कुछ अहम रियायतें खुद दी थीं। तकरीबन पूरी पुस्‍तक वस्‍तुपरक स्‍वर को कायम रखती है, लेकिन एक राष्‍ट्र के बतौर भारत का इसमें एक नया जश्‍न झलकता है। नेहरू कहते हैं, ”हम उन आदर्शों को भुला नहीं सकते जिन्‍होंने हमारी नस्‍लों को आगे बढ़ाया है।” इसमें हिंद स्‍वराज की अनुगूंज है। आगे वे कहते हैं कि ”धर्मों ने मानवता के विकास में महान सहयोग दिया है।” तो क्‍या वे गांधीजी के ‘धर्म’ की ओर लौट रहे थे? अब नेहरू को ”अवतरण के सिद्धांत में भी कुछ तार्किक” नज़र आने लगा था और वे ”एक हद तक अद्वैतवाद की भी सराहना” करने लगे थे। इन तमाम रियायतों के बावजूद भविष्‍य के समाजवादी भारत के प्रति नेहरू की प्रतिबद्धता से और किसी विक्षेप का संकेत नहीं मिलता।

30 जनवरी 29148 को गांधीजी की नाथूराम गोडसे द्वारा की गई हत्‍या पर नेहरू ने कहा था, ”हमारी आंखों की रोशनी चली गई।” गांधीजी की परिकल्‍पना को आगे बढ़ाने वाला कोई उत्‍तराधिकारी नहीं बचा। इस संदर्भ में गांधीजी के बारे में नेहरू की एक पूर्ववर्ती टिप्‍पणी ध्‍यान में आती है कि गांधीजी खुद एक ”मनोवैज्ञानिक जब्र का तरीका अपनाते थे… जो उनके कई अनुयायियों को मानसिक रूप से भोथरा कर देता था।” सतह पर निष्‍ठुर दिखने वाली यह टिप्‍पणी दूरदर्शी साबित हुई।

हमें इस बात का अहसास करने की जरूरत है कि गांधीजी और नेहरू के आदर्श अपनी अंतर्वस्‍तु में निहायत अलहदा थे, बावजूद इसके दोनों में एक बात समान थी: इस देश के गरीबों और वंचितों की सेवा करने का एक ईमानदार आग्रह, जिसमें अमीर और ताकतवर के हितों के लिए बहुत जगह नहीं थी। यह इन दोनों शख्सियतों के लिए नहीं बल्कि हमारे राष्‍ट्र के लिए त्रासदपूर्ण बात है कि आज हम कॉरपोरेट ताकतों और संकीर्णतम राष्‍ट्रवाद के सामने अपने समर्पण के बीच किसी भी आदर्श से पूरी तरह च्‍युत नज़र आते हैं।


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