जैंजि़बार के दिन और रातें: पहली किस्‍त


प्रो. विद्यार्थी चटर्जी
(प्रो. विद्यार्थी चटर्जी पुराने फिल्‍म आलोचक हैं, राष्‍ट्रीय फिल्‍म अवॉर्ड की जूरी में रहे हैं  और मज़दूर आंदोलनों से इनका करीबी रिश्‍ता रहा है। इनके लिखे का अनुवाद करना एक सुखद आश्‍चर्य जैसा होता है क्‍योंकि इनकी भाषा और मुहावरों के साथ उठापटक बेहतरीन होती है। इसके अलावा चटर्जी के लिखे की खासियत यह है कि वे ऐसी सूचनाएं लेकर आते हैं जिनसे आम तौर पर हिंदी का पाठक परिचित नहीं होता। इस बार इनका लंबा यात्रा संस्‍मरण पत्रिका समयांतर के संपादक पंकज बिष्‍ट के माध्‍यम से मुझे प्राप्‍त हुआ। चटर्जी जी चाहते थे कि इसका मैं अनुवाद कर डालूं। मैंने वैसा ही किया और यह एक किस्‍त में ही समयांतर के अक्‍टूबर अंक में आ रहा है। यह संस्‍मरण दो वजहों से अद्भुत है। पहली तो यह, कि हिंदी का पाठक अफ्रीका के गुमनाम द्वीप जैजि़बार के बारे में नहीं जानता। दूसरी वजह इस संस्‍मरण की शैली है जो यात्रा वृत्‍तांत को इतिहास, संस्‍कृति और साहित्‍य के साथ इतनी खूबसूरती से बरतती है कि पता ही नहीं चलता कब यह आत्‍मकथ्‍य चलते-चलते विमर्श की शक्‍ल ले लेता है। यात्रा वृत्‍तांत लिखने वालों के लिए इससे बेहतरीन प्रशिक्षण और नहीं हो सकता। इसे मैं 12 किस्‍तों में प्रस्‍तुत कर रहा हूं, खासकर इसलिए कि चटर्जी जी की यात्रा भी 12 दिनों की थी। पहली किस्‍त में यात्रा की पृष्‍ठभूमि और विषय प्रवर्तन है।)

 

जिस दौर में मेरा बचपन और मेरी जवानी गुजरी, वह दौर न सिर्फ जवाहरलाल नेहरू या उन जैसे भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के नायकों का था, बल्कि उसी वक्त में एशिया और अफ्रीका के दूसरे देशों के कुछ महान नेता भी हुए। ये नेता भी सदियों के बर्बर कुशासन के बाद अपने यहां से यूरोपीय औपनिवेशिक शासकों को बाहर खदेड़ने में संघर्षरत थे। अफ्रीका में देखें, तो मिस्र के अब्दुल गमाल नासिर, घाना के क्वामे क्रुमा, केन्या के जोमो केन्याटा और कांगो के पैट्रिस लुमुम्बा ऐसे ही नेताओं में शामिल थे। मेरे आदर्श नायकों की सूची में बाद में कुछ और लोग जुड़े, जैसे ज़ाम्बिया के केनेथ कोंडा, उगांडा के मिल्टन ओबोटे और तंज़ानिया के जुलियस नरेरे। अपनी उम्र के पैंसठवें साल में आज जब मैं अपने नायकों की इस सूची पर नजर दौड़ाता हूं, तो पाता हूं कि अफ्रीकी जनता में मेरी शुरुआती दिलचस्पी निश्चित तौर पर कम से कम दो वजहों से रही- पहली वजह गांधी के सत्य के साथ किए गए प्रयोगथे जो अफ्रीकी धरती पर शुरू हुए और जिसके तजुर्बे ही बाद में भारत में उनके आंदोलन की नींव बने। दूसरी वजह अफ्रीकी महाद्वीप के विभिन्न हिस्सों के साथ भारत के व्यापारिक और सांस्कृतिक रिश्ते थे जो लिखित इतिहास में दर्ज हैं।

इसीलिए, छह साल पहले जुलाई की एक सुबह अचानक जब मेरे पास जैंजि़बार अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (जेडआईएफएफ) के निदेशक जैकब बरुआ का फोन आया और उन्होंने मुझे महोत्सव में जूरी का हिस्सा बनने का न्योता दिया, तो मैं झट तैयार हो गया। यह महोत्सव जैसा गुज़रा, वह लंबे समय तक याद रखने वाली चीज़ साबित हुआ। इसका दूसरा नाम धाउ राष्ट्रों का फिल्म महोत्सव  भी है (धाउ एक पारंपरिक नौका होती है जिसका इस्तेमाल हिंद महासागर में बरसों बरस तक मछुआरों, नाविकों, व्यापारियों, लड़ाकों, मिशनरियों, जल-दस्युओं और गुलामों के सौदागरों ने किया है)। यह फिल्म महोत्सव अफ्रीका के विभिन्न हिस्सों में बन रही सिर्फ नई फिल्में ही नहीं दिखाता, बल्कि इस मौके का इस्तेमाल भारत या इंडोनेशिया जैसे देशों से आए संगीत समूहों के आयोजन और कला प्रदर्शनियों को लगाने के लिए भी किया जाता है, चूंकि इन देशों से अफ्रीकी महाद्वीप के पुराने रिश्ते रहे हैं। ऐसे महोत्सव में अफ्रीका एक सामान्य विषय के तौर पर और जैंजि़बार विशिष्ट विषय के तौर पर शामिल होता है।

महोत्सव की जूरी में तंज़ानिया के वरिष्ठ डॉक्युमेंटरी फिल्मकार सायरिल कोंगा भी थे जिन्होंने साठ के दशक में पुणे के एफटीआईआई से प्रशिक्षण लिया था। जूरी में फिनलैंड के ईला वर्निंग शामिल थे जो दुनिया के सबसे अद्भुत डॉक्युमेंटरी, एनिमेशन और प्रयोगवादी फिल्मों के महोत्सव टैम्पियर फिल्म फेस्टिवल के बोर्ड सदस्य होने के अलावा मीडिया और फिल्म स्कूलों में पढ़ाते भी हैं। इनके अलावा गुयाना में पैदा हुए और पिछले लंबे समय से ब्रिटेन में रह रहे फिल्मकार जूने गिवानी भी जूरी में थे जिन्होंने कैरीबियाई और प्रवासी अफ्रीकी सिनेमा को लोकप्रिय बनाने में अहम काम किया है। इंडोनेशिया के आरीफ़ विरानाताकुसुमा भी इस जूरी के सदस्य रहे जो खुद एक संस्कृतिकर्मी हैं और जकार्ता व एम्स्टर्डम में सांस्कृतिक सलाहकार भी हैं। पूरब और पश्चिम के अनोखे संगम रहे इस निर्णायक मंडल ने लंबी फिल्मों, छोटे फिक्शन, एनिमेशन और वृत्तचित्रों को पूरा लुत्फ़ उठाया। हमें वहां के माहौल में खुद को ढालने में एकाध दिन लग गए, लेकिन उसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

पर्दे पर पात्रों को आप तमाम भाषाएं बोलते देख सकते थे (स्वाहिली, अरबी, अंग्रेजी, फ्रेंच, पुर्तगाली, हिंदी, बांग्ला, उर्दू) और उतनी ही विविध शैलियों में भी, जिनमें उनके निर्देशकों ने उनकी सिनेमाई शख्सियत को ढाला था। मैं शुक्रगुज़ार हूं कलकत्ता में कभी सक्रिय रहे उस फिल्म क्लब आंदोलन का, जिसके माध्यम में महान अफ्रीकी फिल्मकारों जैसे सेनेगल के उस्माने सेम्बेने, मिस्र के यूसुफ चाहिने या फिर माली के सुलेमाने सिसे के काम से हम परिचित हो सके थे। इसके बावजूद नए और समकालीन अफ्रीकी फिल्मकारों के काम से हम सर्वथा अपरिचित थे। जैंजि़बार फिल्म महोत्सव ने हमें ऐसे युवा निर्देशकों की कुछ अद्भुत फिल्मों का दर्शक बनने का बहुमूल्य मौका दिया।

लंबी फीचर फिल्म की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार के लिए गोल्डेन धाउ मिला सेनेगल के शेख दियाए द्वारा निर्देशित फिल्म ला पेल देस एरिनेस (अखाड़ा) को। शेख पुरस्कार लेने के लिए वहां मौजूद थे। फिल्म में सेनेगल की सदियों पुरानी कुश्ती की परम्परा के माध्यम से वहां के नागरिकों के जीवन में झांक कर देखने की एक कोशिश की गई है जो यूं तो एक साथ रहते हैं, लेकिन इसे हादसा कहें या बदकिस्मती कि वे जन्म से ही परस्पर बंटे हुए हैं। फिल्म की शुरुआत काफी तेज गति के दृश्यों से होती है, लेकिन धीरे-धीरे सेनेगल में अखाड़ों की दुनिया को बरसों से थामे अध्यात्मिक किस्म की परम्पराओं में फिल्म हमें खींच कर ले जाती है जहां आज भी भाट और चारण दिखाई पड़ते हैं। यही वह मोड़ है जहां साहस, नायकत्व, आत्म की खोज और अंततः रहस्यवाद सब गुत्थमगुत्था हो जाते हैं। शेख की इस पहली फिल्म को पुरस्कार देते वक्त जूरी ने प्रशंसा में जो कहा, उसे देखिएः ‘‘असंभावित सी मित्रताओं से बुनी यह उदास और आकर्षक कहानी किस्सागोई की पारम्परिक अफ्रीकी शैली के साथ समकालीन डकार के चरित्रों की एक साथ जातीय पड़ताल करती है। निर्देशक ने जिस परिपक्वता के साथ अपने तमाम चरित्रों, पुरुष और स्त्री, युवा और वृद्ध सभी को बरता है और समकालीन स्वप्नों, उनकी पूरा होने और खत्म हो जाने के क्रम में कुश्ती की पारम्परिक संस्था को एक सार्थक मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल करते हुए जैसी सेंध लगाई है, उसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।’’

मुझे यह बताते हुए सुखद अहसास हो रहा है कि पुरस्कृत फिल्मों में एक भारत से भी थी। इंटरनेशनल क्रिटिक्स जूरी पुरस्कार (फिप्रेस्की पुरस्कार) बांग्ला फिल्म तालनाबामी (त्योहार) को मिला। यह फिल्म ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि में एक पुरोहित और उसके परिवार की बदहाल जिंदगी पर विभूति भूषण बंदोपाध्याय द्वारा लिखी मशहूर कहानी पर आधारित थी जिसे कलकत्ता के धनंजय मंडल ने निर्देशित किया था। फिप्रेस्की के निर्णायक मंडल में फ्रांस, तुर्की, रूस, बुर्कीना फासो और मिस्र के मशहूर फिल्म आलोचक शामिल थे। इससे पहले गोल्डेन धाउ का पुरस्कार एक मलयाली फिल्म मार्गम को मिला था जिसे राजीव विजय राघवन ने निर्देशित किया था। यह फिल्म बूढ़े हो चुके नक्सलियों के मनोविज्ञान और व्यवहार पर आधारित थी।

अतीत को भुला देना अपने वर्तमान और भविष्य दोनों के साथ धोखा करना है’- यह बात अक्सर कही जाती है, लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं। जूरी में शामिल हम सभी ने आयोजकों से कहा कि उनका यह महोत्सव इस सचाई की ओर हमारा ध्यान दोबारा खींच लाया है। दरअसल, जितनी भी फिल्में यहां दिखाई गईं, अधिकतर ने अपने-अपने विशिष्ट मुहावरे की ताकत से सांस्कृतिक विशिष्टताओं और खूबियों को मिटा देने की कुछ ताकतवर देशों द्वारा की जा रही कवायद का प्रतिरोध किया। ये ताकतवर देश दुनिया भर में एकरूपता और सहमति के शुष्क और जीवनरोधी वातावरण का प्रचार करने में लगे हैं। फिल्म समारोह के आयोजकों को हमने यही कहा कि वे अब तक जो करते आए हैं, उसी पर और आगे बढ़ें ताकि उन शुरुआती नायकों के सर्वथा अज्ञात या अल्पज्ञात इतिहास को लोकप्रिय बनाया जा सके, जिन्होंने सिर्फ इसलिए जोखिम उठाए क्योंकि वह जमीन उनकी अपनी थी या फिर बाद में उनके वंशजों ने जो कुछ भी हासिल किया, उसे सामने लाया जा सके। हम जब हठ, विवेक और रचनाशीलता के आग्रह के चलते अपने अतीत को भुलाने से इनकार कर देते हैं, तभी हम एक अर्थ और उम्मीद के साथ भविष्य की ओर देख पाने का अधिकार भी अर्जित कर पाते हैं।  (क्रमश:)
(अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्‍तव)
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