बिहार में आजकल आप जिस किसी भी पार्टी के दफ्तर चले जाएं, उनके वॉर-रूम से एक ही आवाज सुनाई देगी, ‘हां, ठीक सुनाई दे रहा है। बढ़िया आवाज आ रही है, ठीक चल रहा है। अरे, हिला काहे रहे हो?’ दरअसल, ये सब कुछ वर्चुअल रैली की तैयारियों और प्रदर्शन के बीच की आवाजें हैं, जो जमुई में जमा जनता से पटना के नियंता पूछते हैं, ‘सब लौक रहा है न?’
कितने मज़े की बात है कि भाजपा की जिन 39 वर्चुअल रैलियों को पूंजीपतियों और थैलीशाहों की रैली बताकर तमाम विपक्षी दल (राजद-कांग्रेस-भाकपा (माले)-हम-जाप आदि इत्यादि) लामबंद होकर हल्ला बोल रहे हैं, पता चलता है कि खुद बिहार के अघोषित राजवंश ‘यादव खानदान’ के चश्मो-चिराग तेजस्वी भी महज कुछ घंटों बाद ही ऐसी वर्चुअल रैली में शामिल होते हैं, जहां वास्तविक भीड़ भी ख़तरे के निशान के बेहद पार चली जाती है और सोशल डिस्टेंसिंग के तौ खैर परखचे उड़ जाते हैं।
भाजपा के खिलाफ यह सारे दल मोर्चेबंदी इस आधार पर कर रहे हैं कि वर्चुअल-रैली या प्रचार दरअसल पूंजीपतियों की चीज़ है और इन गरीब दलों (?) के पास इतने पैसे नहीं हैं। वैसे, सच्चाई तो यह है कि जितने पैसों में एक ज़मीनी रैली होती होगी- गांधी मैदान मार्का- उतने में कम से कम दर्जनों आभासी रैलियां कोई भी दल कर सकता है। फिर, कोरोना का बहाना तो है ही।
राज्य हालांकि कोरोना से उबर चुका है और बाढ़ग्रस्त होने की तैयारी में है। जल संसाधन विभाग ने बाकायदा टोल फ्री हेल्पलाइन नंबर जारी कर दिए हैं, तटबंधों के रिसने या टूटने की प्रतीक्षा की जा रही है, फोटोग्राफर कैमरे को झाड़-पोंछकर तैयार खड़े हैं तो एनडीआरएफ अपनी बोटों को ठीकठाक कर रहा है। कोरोना यहां अब बीती बात हो चुकी है। बीते एक सप्ताह से लगभग रोजाना बारिश हो रही है। दिन की उमस को रात की बारिश ठीक करती है और रात की वर्षा सुबह की उमस में गायब हो जाती है। इसी बारिश के बीच शेखपुरा में बकरियों का बाज़ार रोशन है, तो पटना के जगदेव पथ से लेकर सचिवालय तक ठेले, रिक्शे, टेंपो, कार, स्कूटर इत्यादि की रेलमपेल और ठेलमठेल। बाज़ार गुलज़ार हैं, भीड़ परवान पर है और मास्क कहीं कान से लटक रहा है तो कहीं सिरे से गायब ही है।
चुनाव में एक नया और अपेक्षाकृत अप्रत्याशित खिलाड़ी भी उतर चुका सॉरी चुकी है। जद-यू के नेता की बेटी पुष्पम् प्रिया चौधरी ने मार्च के महीने में ही सभी अखबारों में दो पेज का विज्ञापन देकर खुद को स्वयंभू तरीके से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार (या मुख्यमंत्री ही) घोषित कर दिया था। पूरे कोरोना-काल में, जब लॉकडाउन पीरियड चल रहा था, वह बड़े ही धैर्य से मामले का मुजाहिरा करती रही और बस देखती रही। पिछले कुछ दिनों से उसकी सक्रियता बढ़ी है और वह बिहार के उजाड़ हो चुके औद्योगिक क्षेत्रों, वीरान फैक्टरियों, खेतों, खलिहानों और संक्षेप में कहें तो बिहार के दुर्भाग्य की तस्वीरें दिखा रही हैं और 30 वर्षों के इस लॉकडाउन पर सवाल खड़े कर रही है।
पीआर के छात्र-छात्राएं अगर देखेंगे, तो वह जिस तरह से अपना कैंपेन कर रही है, वह काफी एनिग्मैटिक है। उसकी पूरी भूषा काली है, मास्क भी। ऊपर से ऐसे कपड़े उस पर फबते भी हैं और एक रहस्य का भी सृजन करते हैं। अगर वह यह घोषणा कर दे कि नीतीश कुमार के विरोध में उसने काले कपड़े पहन रखे हैं, तो ये एक और प्लस प्वाइंट हो सकता है, उसके लिए। दिक्कत बस दो-तीन बातों की है।
पहली, तो यह कि पुष्पम् के पास भी केवल प्रश्न हैं, वायदे हैं। वह कैसे बिहार को शीर्षस्थ राज्य बनाएगी, इसका कोई रोडमैप उसके पास नहीं है, है भी तो अब तक उसने साझा नहीं किया है। दूसरे, कॉरपोरेट और एनजीओ वाला उसका घालमेल बिहारी जनता को पसंद आएगा, इसमें संदेह है। आखिर, बेगूसराय में यह जनता कॉरपोरेट, एनजीओ, कम्युनिस्ट, प्रतिरोध के साथी आदि तमाम लोगों के संयुक्त उम्मीदवार कन्हैया कुमार को ठेंगा दिखा चुकी है। बिहार में मुज़फ्फरपुर शेल्टर-होम कांड (और शायद उसके पहले भी) ने एनजीओ को पूरे राज्य में थू-थू का ठिकाना बना दिया है। इसके अलावा, बिहार के हरेक घर से एक व्यक्ति दिल्ली न सही, बाहर तो जरूर रहता है। केजरीवाल ने नागरिक-आंदोलनों का जिस तरह से कबाड़ा किया है, उससे भी पुष्पम् की राह बिहार में ऐसी हो गयी है, जो शायद कभी शुरू ही न हो।
बिहार के साथ त्रासदी भी यही है। फिलहाल, इसके पास जितने विकल्प हैं, सभी 74 आंदोलन की देन हैं। नीतीश कुमार के लिए इससे सुकून की बात क्या होगी कि 15 वर्षों बाद भी वह निर्विकल्प हैं। लालू से लेकर सुशील मोदी तक सभी 74 आंदोलन की देन हैं। जेपी आज क्या प्रतिक्रिया देते, मुझे नहीं पता लेकिन बिहार की तीन पीढ़ियों को, पूरे भविष्य को लील जाने वाले अपने तीनों चेलों से मिलकर उनका क्या हाल होता, यह जानने की मुझे उत्सुकता जरूर होगी।
मैं इस बात से बिल्कुल मुतमइन हूं कि बिहार को फिलहाल राजनैतिक नहीं, सामाजिक सुधार या क्रांति या रिफॉर्म, जो भी आपके मन आए, कह लीजिए- की जरूरत है। जिस राज्य में लोग प्राथमिक पाठ यानी चलना, बैठना, शौच करना, थूकना आदि ही भूल चुके हैं, वहां आप पॉलिटिकल विल और ट्रांसफॉर्मेशन की बात करते हैं, तो बड़ी हंसी आती है।
नतीज़ा वही होता है। एक बूढ़ा निजाम को हिलाता है और उसके फल से तीन ज़हरीले फल पैदा कर जाता है। आज जब बिहार अपने सवाल तलाश रहा है, तो उसके पास एक भ्रष्टाचारी बाप के पूत, एक एनजीओवादी महिला और एक देशद्रोह के आरोपित के अलावा कोई युवा विकल्प तक नहीं है।
यह सचमुच अपने समय की सबसे डार्क कॉमेडी है।