भारतीय आलोचना का विद्रूप दोहरे अलगाव की देन है: मदन सोनी


साहित्यिक विधाओं की भारतीयता का क्या तात्पर्य है? क्या भारतीय साहित्य सिद्धांत की आज कोई प्रासंगिकता है? इन सवालों के इर्द-गिर्द दो दिन की एक विचार गोष्ठी का आयोजन दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की एनेक्सी में 28-29 मार्च, 2023 को किया गया। ‘हिंदी साहित्य पर पश्चिमी प्रभाव और देशज प्रतिमान’ विषय पर यह आयोजन डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली की साहित्य अध्ययन पीठ के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र (सीआए-आइआइएलकेएस) ने किया।

आलोचक वैभव सिंह ने बीज पत्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि “वर्तमान पीढ़ी आलोचना व साहित्य की पूर्व-परम्पराओं को विस्मृत कर रही है। उससे बौद्धिक जुड़ाव भी बाधित हो रहा है।” इस संदर्भ में उन्होंने गोष्ठी के समक्ष विचार के लिए कई सवाल रखे:

क्या इस समस्या से उबरने में पश्चिम बनाम पूरब, यूरोप बनाम भारत, अंग्रेज़ी बनाम हिंदी, राजनीति बनाम संस्कृति, वर्ग बनाम अस्मिता के विचारधारात्मक द्वैत से संचालित बौद्धिकताएँ मददगार हो सकती हैं? क्या हिंदी आलोचना के इतिहास को नई दृष्टि से समझने की कोशिश नये रास्ते खोल सकती है? क्या दलित, ओबीसी, स्त्री और मार्क्सवादी विमर्श का इन सिद्धांतो से कोई समायोजन संभव है, या इन विमर्शों के प्रभाव में ये सिद्धांत हमारे किसी काम के नहीं रह गए हैं? पुराने पाठों को पढ़ने का कोई विउपनिवेशीकृत तरीका भी है या इसके लिए हमें पश्चिमी साहित्यशास्त्र के पास जाना ही पड़ेगा? क्या पश्चिम का प्रतिवाद हिंदी साहित्य-चिंतन का एक संभव एजेंडा बन सकता है?

गोष्ठी का एक सत्र ‘मार्क्सवादी, स्त्री, दलित, ओबीसी और आदिवासी विमर्श’ पर केंद्रित था। इस सत्र में डॉ. प्रमोद रंजन का वक्तव्य ‘बहुजन साहित्य के प्रश्न’ पर केंद्रित था।

उन्होंने कहा कि ऐसा माना जाता रहा है कि महाराष्ट्र में 1972 में दलित पैंथर की स्थापना से दलित साहित्य की शुरुआत हुई, जबकि वास्तविकता यह है कि दलित साहित्य उससे पहले से चला आ रहा था। दलित पैंथर ने दलित साहित्य को जन्म नहीं दिया बल्कि सिर्फ व्यापक बनाया, या दूसरे शब्दों में कहें कि उसका भूमंडलीकरण किया। इस तथ्य को नहीं जानने के कारण न सिर्फ साहित्य के इतिहास संबंधी हमारी समझ गड्मड् हो जाती है, बल्कि हम उन तंतुओं को भी समझने में असफल रहते हैं जिन्होंने इसे निर्मित किया है। दलित पैंथर का जन्म अमेरिकी-अफ्रीकी लोगों के ब्लैक पैंथर की तर्ज पर हुआ था और दलित साहित्य में इसके दायरे में सिर्फ अनुसूचित जातियां नहीं बल्कि सामाजिक रूप से वंचित अन्य समुदाय भी थे। बाद में इस धारा का जोर अस्पृश्यता से मुक्त होने तक सीमित हो गया। यह एक बहुत महत्वपूर्ण और कठिन कार्यभार था, लेकिन इसके दायरे को अब फिर से विस्तृत करने की जरूरत है।

प्रमोद रंजन ने अपने वक्तव्य में कहा कि पिछले कुछ समय से भारत के विभिन्न हिस्सों में साहित्य पर केंद्रित ऐसे अनेक कार्यक्रम होने लगे हैं, जिनमें किसी-न-किसी रूप में ‘बहुजन साहित्य’ शब्द-बंध का प्रयोग किया जा रहा है। ये आयोजन बहुजन अवधारणा के तहत होने वाले दलित,आदिवासी, मध्यवर्ती जातियों; जिन्हें भारतीय संविधान में ओबीसी कहा गया है; तथा हमारे विमर्श के दायरे से अलक्षित रहे अन्य सामाजिक समूहों की संस्कृति और साहित्यिक अभिव्यक्तियों में व्यक्त मूल्यों के साझेपन को अपने-अपने तरीके से चिह्नित कर रहे हैं। साथ ही इनमें सामाजिक स्तर पर द्विजवाद से संघर्ष के मुद्दों के साझेपन की तलाश की जा रही है। इन आयोजनों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण यह भी है कि इन कोशिशों के पीछे कोई सुव्यवस्थित संगठन नहीं है, बल्कि यह स्वयमेव हो रहा है। उन्होंने इस बात पर विशेष तौर पर गौर करने की आवश्यकता को रेखांकित किया किया कि साहित्य, संस्कृति को देखने का यह नया नजरिया क्यों विकसित हो रहा है?

डॉ. प्रमोद रंजन ने कहा कि बहुजन अवधारणा जाति व्यवस्था से उपजे अन्य कष्टकारी स्वरूपों को भी शामिल करते हुए भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित हो रही है। इस अवधारणा का सूत्र वाक्य ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ है। यह अवधारणा जाति के स्थान पर विचार को प्रमुखता देती है। इसमें वंचित तबके आदिवासी, घुमंतू जातियां, अन्य धर्मों के पसमांदा, LGBTQ समुदाय मुख्य रूप से शामिल है।

आलोचक संजीव कुमार ने कहा कि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना कभी एकाश्‍म नहीं रही और न ही भारतीय बनाम अभारतीय, पूरब बनाम पश्चिम, परम्परा बनाम आधुनिकता, जैसी कोई केंद्रीय विचार श्रेणियां रहीं। उन्होंने कहा कि “न तो अल्पमत में धकेले गये मार्क्सवादियों ने कथित परम्पराभंजन में भंजन जैसी कोई चीज थी, न ही बहुमत द्वारा स्वीकृत परम्परा के संतुलित द्वंद्वात्मक मूल्यांकन में कोई विशेष संतुलन और द्वंद था। अलबत्‍ता इन दोनों पक्षों हिंदी के साहित्यिक परम्परा में अवगाहन सराहनीय और संस्मरणीय है। इस लिहाज से हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना जितनी मार्क्सवादी रही है उतनी ही हिंदी भी रही है। जहां-जहां उसने ज्यादा हिंदी होने की कोशिश की है, हिंदी साहित्य के प्रति अतिरिक्त गौरवबोध जगाने के प्रति कोशिश रहा है वहां वह समस्याग्रस्त रहा है।”

आलोचक मदन सोनी ने कहा, ‘’हमारे यहां आलोचना की समस्या यह नहीं है कि वह पश्चिम से प्रभावित है, उसकी समस्या किसी विजातीय जमीन पर रोपे गये उस पौधे की तरह है जो निरंतर कुपोषण का शिकार बने रहते हुए एक ओर अपनी मूल जातीय पहचान खो चुका होता है, और दूसरी ओर उस जमीन से अपनी पहचान अर्जित नहीं कर पाता जिस पर उसे रोपा गया होता है। हमारी आलोचना का विद्रूप का स्रोत इस दोहरे अलगाव में है।”

गोष्ठी में दो दिनों तक इन मुद्दों पर जमकर चर्चा हुए। कई नई स्थापनाएं सामने आईं, कई समस्याग्रस्त पदों पर नई रोशनी पड़ी, अनेक मुद्दे अनसुलझे भी रहे। गोष्ठी का उद्घाटन वक्तव्य अशोक वाजपेयी ने दिया। अभय कुमार दुबे ने गोष्ठी की संक्षिप्त प्रस्तावना रखी। गोष्ठी का समापन वक्तव्य आलोचक एवं मीडिया विश्लेषक सुधीश पचौरी ने दिया।

शशांक कुमार ‘भूमंडलीकृत ग्रामीण यथार्थ और हिंदी उपन्यास’ विषय पर शोध कर रहे हैं


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