विपरीत परिस्थितियां ही क्रांति को जन्म देती हैं! विधानसभा चुनावों के नतीजों से निकलते सबक


जब देश का मतदाता गरीब हो और उसे गरीबी से निजात मिलने की संभावना भी नहीं हो तथा सत्तारूढ़ दल की योजनाओं से वह जैसे-तैसे अपना अस्तित्व बचाए रखा हो ऐसे में अगर वह ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर सत्तारूढ़ दल को ही वोट देता है तो यह दर्शाता है कि भारतीय जनता पार्टी मतदाताओं के दिल में किस तरह अपना घर जमा चुकी है।

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी चार राज्यों में दुबारा सत्ता में आ चुकी है। पंजाब में आम आदमी पार्टी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में दिल्ली के अलावे दूसरे राज्य में भी शानदार बहुमत से सत्ता में आ गई है। विश्लेषक इस चुनाव का विश्लेषण अपने अपने तरीके से कर रहे हैं।

पिछले आठ साल से देश के किसी भी चुनाव में (दक्षिणी राज्यों के कुछ हिस्सों को छोड़कर) अगर भारतीय जनता पार्टी मुकाबले में है तो हिंदुत्व के द्वारा वोट बटोरने की नीति हर हाल में रहती है। लेकिन एक नई चीज जो देखने में आई है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के द्वारा केवल हिंदुत्व पर ही फोकस नहीं रखने के बावजूद मतदाताओं के मन में यह घर कर गया है और उसके लिए किसी आक्रामक सांप्रदायिक प्रचार अभियान या मुजफ्फरनगर के समान दंगे करवाने की आवश्यकता नहीं रही।

समाजवादी पार्टी के 35 मुस्लिम विधायक जीतने के बावजूद उसका ‘साइलेंट’ असर दिखा। रोचक बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने विपक्षियों को ही ‘सांप्रदायिक’ बता दिया। नेता और जनता के बीच शानदार ‘कनेक्टिविटी’ रखने वाले नरेंद्र मोदी का मतदाताओं पर असर दिखा भी जब मुझे कुछ मतदाताओं के द्वारा कहा गया कि जब मुसलमान समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक हो सकते हैं, तो हम लोग बीजेपी के पक्ष में एक क्यों न हो?

जहां तक एंटी इनकंबेंसी फैक्टर की बात है, जाहिर सी बात है कि पांच साल बाद सत्तारूढ़ दल को इसका सामना करना ही पड़ता है लेकिन मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट (योगी आदित्‍यनाथ) की सख्त प्रशासक वाली छवि और नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के कारण इसका असर कम दिखा। अजय सिंह बिष्ट की भाषा को आप भले असंसदीय मानते हों, लेकिन इस भाषा को पसंद कर उन्हें अपना आदर्श बनाने वालों की संख्या उत्तर प्रदेश में जबरदस्त है। अपनी रणनीति, कौशल और मशीनरी के कारण आश्चर्यजनक रुप से इस पार्टी ने 2017 के पहले सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के कार्यकाल के एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को प्रमुखता से हवा दी और उसमें सफल भी रहे। उन्होंने उस जमाने की तथाकथित खराब कानून-व्यवस्था और समाजवादी पार्टी के एक जाति और धर्म की पार्टी होने का ठप्पा लगाकर उसे जबरदस्त भुनाया। उन्होंने यादव जाति को ‘उत्पीड़क’ समाज के तौर पर तथा मुसलमानों को आतंकवादी गतिविधियों से जोड़ कर उसकी दबंग छवि बना दी।

ऐसा बहुत कम देखा जाता है कि पांच साल बाद किसी भी पार्टी का मत प्रतिशत सत्ता में रहने के बावजूद बढ़ जाए और बीजेपी का मत प्रतिशत 39% से बढ़कर लगभग 42 फीसदी हो गया है।

पत्रकार अभय दुबे बताते हैं कि चंद साल पहले एलआइयू की एक रिपोर्ट के अनुसार आगामी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणों का 25%, जाट और गुर्जर का 50%, मुसलमान और यादवों का 100 फ़ीसदी वोट नहीं मिलने वाला था और 26 जातियों का वोट अच्छी खासी संख्या में मिलना था। उन्होंने उसी पर फोकस करना शुरू किया।

दो दशक पहले जयललिता, बाद में उड़ीसा के नवीन पटनायक और बंगाल सहित अन्य राज्यों के वेलफेयर स्कीम को देखकर लाभार्थी वोटर्स (राशन के साथ-साथ खाते में सीधे पैसे देने की व्यवस्था करना आदि) का नया वर्ग बनाया गया जिस कारण गैर-यादव ओबीसी मतदाता (सीमित संख्या में ही सही) समाजवादी पार्टी की ओर से बीजेपी की ओर उन्मुख हुए। अतिपिछड़ी जातियों का एक बहुत बड़े वर्ग के साथ साथ गैर जाटव दलित का भी बहुत बड़ा हिस्सा, जिसमें से कुछ प्रतिशत मायावती के साथ पिछले विधानसभा में खड़ा था वह भी तथाकथित गुड गवर्नेंस के नाम पर बीजेपी के पक्ष में चला गया।

लगभग हर चुनाव में पिछले ढाई दशक से अपना मत प्रतिशत 20 फ़ीसदी से अधिक लाने वाली बहुजन समाज पार्टी इस चुनाव में 12% मत ही ला पाई और उनसे छिटक कर गया 10% का 80 फ़ीसदी भाग बीजेपी के पक्ष में चला गया। पिछले विधानसभा चुनाव में 6% मत लाने वाली कांग्रेस पार्टी जो इस बार लगभग 3% वोट ही ला पाई उसका भी एक बड़ा हिस्सा वेलफेयर स्कीम के कारण बीजेपी के पक्ष में गया।

किसान आंदोलन के बाद जाट-मुस्लिम संभावित एकता भी उस ढंग से नहीं दिखी जैसा अनुमानित था। जाट मतदाता ने रालोद को उसी विधानसभा क्षेत्र में अपना समर्थन दिया जहां पर प्रत्याशी जाट थे। गैर जाट प्रत्याशी को उन्होंने उस तरह समर्थन नहीं दिया और समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को तो जाटों का काफी कम समर्थन मिला। अगर सपा गठबंधन का प्रत्याशी मुसलमान था वहां पर जाट पूरी तरह बीजेपी के पक्ष में झुके नजर आए।

बीजेपी ने लाभार्थी वोटर के रूप में महिलाओं का एक नया वोट बैंक उसी प्रकार बनाया जिस प्रकार बिहार में नीतीश कुमार या बंगाल में ममता बनर्जी के द्वारा ऐसा किया गया। इन महिलाओं के द्वारा राशन मिलने के एवज में वोट के रूप में इन्होंने नरेंद्र मोदी के तथाकथित ‘नमक का कर्ज’ उतारा।

इस पार्टी की चुनावी सक्रियता ऐसे समझी जा सकती है कि गृहमंत्री अमित शाह ने खुद पश्चिम उत्तर प्रदेश में घर-घर जाकर पर्चा बांटने का काम किया। उन्होंने किसान आंदोलन के समय जाटों की नाराजगी को जाट सम्मेलन करा कर कम किया जिसे विश्लेषक समझ नहीं पाए और पश्चिम उत्तर प्रदेश में सपा गठबंधन की लहर बताई।

तीसरे चरण का चुनाव जहां होना था उसे आलू बेल्ट कहते हैं और वहां पर कुछ सीटों पर यादव मतदाता की बहुलता है और उस क्षेत्र में भी समाजवादी पार्टी, जिसे जबरदस्त जीत मिलने का अनुमान था, ऐसा न हो सका। कहते हैं उस क्षेत्र में खासकर इटावा, मैनपुरी आदि जिलों में सपा के द्वारा विकास संबंधी काम किया गया लेकिन उसी क्षेत्र में सपा नेताओं के द्वारा दबंगई भी की जाती रही है जिसे भारतीय जनता पार्टी के द्वारा भुनाया गया जिसका भारतीय जनता पार्टी को फायदा भी हुआ। अब उस क्षेत्र में गली-चौराहे में समाजवादी पार्टी के खिलाफ भी बोलने वाले आपको मिल जाएंगे जैसा पहले नहीं हुआ करता था।

चौथे चरण का मतदान जिस क्षेत्र में हुआ उसी क्षेत्र में लखीमपुर खीरी भी है और ऐसा लग रहा था कि उस क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को लाभ मिलेगा लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस क्षेत्र के सभी सीटों पर बीजेपी का कब्जा हो गया। इससे यह भी जाहिर होता है कि भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में एक साइलेंट वोटर का अपार जन समर्थन था। जिसे विश्लेषक भांप नहीं पाए। कई जिले में तो बीजेपी के द्वारा क्लीन स्वीप किया गया जैसे हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, महोबा, ललितपुर, सोनभद्र, मिर्जापुर, बनारस आदि।

दरअसल पिछले पांच साल में भारतीय जनता पार्टी के द्वारा लोगों के बुनियादी समस्याओं के हल की अनदेखी की गई। पुलिस, कोर्ट कचहरी तथा विभिन्न सरकारी कार्यालय में भ्रष्टाचार सहित आम आदमी को विभिन्न तरीके की समस्याओं का सामना करना पड़ा, कोविड-19 के दौर में नाजुक स्थिति को और भयावह  बना दिया गया जब ऑक्सीजन के अभाव में मरीज मरने लगे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट (योगी) के द्वारा खुलेआम कहा गया कि ऑक्सीजन की कहीं कोई कमी नहीं है। इससे उनके खिलाफ एक ‘जनमत’ तैयार हो गया जो काफी आक्रामक रूप से बोलने लगा। यह वर्ग ऐसा था जो पिछले चुनाव में इनके साथ ही खड़ा था। चुनाव के 8 महीने पहले तक विपक्ष नदारद था। सड़क पर जनवादी सामाजिक कार्यकर्ता ही संघर्ष का नेतृत्व करते थे। ऐसी स्थिति में जब लगभग साढे चार साल बाद अखिलेश यादव मैदान में आए तो सारे योगी-मोदी विरोधी जो समाजवादी पार्टी में हो या न हो उनमें एक संभावना दिखने लगी क्योंकि यह वर्ग बहुत वोकल था इसलिए ऐसा लगने लगा कि मुकाबला टक्कर का होने वाला है और बीजेपी हार सकती है। बीजेपी समर्थक जिन्हें सरकार की नाकामी के साथ-साथ महंगाई, बेरोजगारी आदि दिख रही थी, वह इसका प्रतिवाद उस ढंग से नहीं कर रहा था लेकिन पार्टी ने वेलफेयर स्कीम सहित अन्य कारणों से नए मतदाता को जोड़कर समाजवादी पार्टी को पीछे कर दिया।

समाजवादी पार्टी जिसने अपना मत प्रतिशत बढ़ाकर 32 फीसदी कर लिया और सपा गठबंधन को लगभग 36 फीसदी मत मिला उनके सीटों में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ, विभिन्न कारणों से वैसी टक्कर सत्तारूढ़ दल को नहीं दे पाए।

इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि नेतृत्वकर्ता अखिलेश यादव जी चुनाव के चंद महीने पहले ही सक्रिय हुए। जब आपके पांच साल के कथित खराब शासन व्यवस्था और एक जाति, धर्म को समर्थन देने की बात को मुखर रूप से उठाई जा रही हो, उस दाग को आपने एक ऐसी पार्टी के सामने जो 24 घंटे राजनीति करती हो, चंद महीने में ही धोने का असफल प्रयास किया। जिस दिन विधानसभा चुनाव के रिजल्ट आए उसके अगले दिन नरेंद्र मोदी का गुजरात दौरा पहले से संभावित था। जब बिहार विधानसभा चुनाव खत्म हुए ठीक उसके अगले दिन अमित शाह बंगाल के दौरे पर थे। ऐसे सक्रिय लोगों के सामने आपको बहुत पहले से प्रयास करना चाहिए था और वह भी तब जब सत्ताधारी दल के खिलाफ ढेर सारे मुद्दे थे।

अखिलेश यादव ने भी लोक लुभावन वादे किए जैसे 300 यूनिट बिजली फ्री देना, पेंशन को फिर से लागू करना, राशन को भी लगातार पांच साल तक बनाए रखना लेकिन जब आपकी विश्वसनीयता कठघरे में हो उस वक्त आप जनता का विश्वास आसानी से केवल वायदे करके नहीं जीत सकते। समाजवादी पार्टी के द्वारा ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन किया गया जिसकी विश्वसनीयता खुद कठघरे में थी। चौधरी जयंत सिंह ने जरूर अपने पिता के मुकाबले में मैच्योरिटी दिखाई है, लेकिन उनके पिता मरहूम अजीत सिंह ने इस पार्टी की विश्वसनीयता को काफी कम कर दिया था। बुंदेलखंड की महान दल के मुखिया केशव देव मौर्य के द्वारा अपनी पत्नी और बेटी को समाजवादी पार्टी के टिकट से लड़ाना दर्शाता है कि उनकी खुद की पार्टी कहां खड़ी है। मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं कि बुंदेलखंड में उनकी पार्टी को चंदा लेने वाली पार्टी कहा जाता है। ओमप्रकाश राजभर के जुझारूपन से बेहतर संभावना का अनुमान था लेकिन उनकी महत्वाकांक्षी इमेज को पसंद नहीं किया गया इसलिए कहा जा सकता है कि अखिलेश यादव ‘बकरी की दूध से बाल्टी भरना’ चाह रहे थे जो कतई मुमकिन नहीं था।

दूसरी बात, समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह के जमाने में अन्य क्षत्रपों को लेकर आगे चलती थी जैसे आज़म खान, बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, अमर सिंह आदि। इनमें से कुछ की इमेज जरूर बाद में खराब हो गई लेकिन शुरुआत में इनसे मुलायम सिंह को जबरदस्त फायदा पहुंचा। आज अखिलेश जी के पास वैसी टीम नहीं है। राजेंद्र चौधरी, नरेश उत्तम और आशुतोष तिवारी पुराने क्षत्रप का स्थान नहीं ले सकते। एक अन्य बात जो अखिलेश यादव के खिलाफ गयी, वह था शिवपाल यादव को केवल एक विधानसभा क्षेत्र में सीमित कर देना। मध्यमवर्गीय समाज में अपनी खराब इमेज के बावजूद संगठनकर्ता के रूप में वह एक सफल खिलाड़ी रहे हैं, लेकिन सत्ता के दो केंद्र बन जाने के डर से शिवपाल को पूरे पिक्चर से बाहर रखना भी समाजवादी पार्टी के खिलाफ गया।

इन सब के बावजूद अगर समाजवादी पार्टी ने अपने सीटों की संख्या 43 से 111 और गठबंधन को सवा सौ तक पहुंचाया है तो उसे उत्साह के साथ जारी रखना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी के पक्ष में मतदाताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो उनसे जबरदस्त रूप से नाराज है क्योंकि विपक्ष में विश्वसनीयता की कमी के कारण उन्होंने बीजेपी को वोट दिया। अखिलेश यादव को अगले लोकसभा चुनाव के पहले दो साल मे उस विश्वास को अर्जित करना है जो वह कर सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी की सफलता में चुनाव आयोग को भी श्रेय मिलना चाहिए जिन्होंने पोस्टल बैलट के माध्यम से कुछ विधानसभा क्षेत्र में सत्तारूढ़ दल को जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बहराइच जिले के बलहा विधानसभा क्षेत्र में गैरकानूनी रूप से चुनाव के एक दिन पहले दैनिक जागरण अखबार का समूह लोक सेवक मंडल के द्वारा पर्चे बाटें गए। मीडिया कवरेज में मोदी के मुकाबले अखिलेश यादव को काफी कम जगह दिया गया। अगर अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव के तरह (जिनकी राजनीति से भले आप सहमत न हो) जो किसी भी शहर में तीन दिन से अधिक नहीं रहते थे, जमीन पर मेहनत करें तो मीडिया बहुत देर तक उनकी अनदेखी नहीं कर सकता।

1984 में जब राजीव गांधी, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति रथ पर सवार होकर लोकसभा चुनाव में 403 सीट लाये थे उस वक्त दिल्ली में विपक्षी पार्टी की सभा हुई। सब निराश दिख रहे थे, इसी वक्त कर्नाटक के रामकृष्ण हेगड़े के अलावे जो नेता खुलेआम अपने राज्य में कांग्रेस पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने की बात की वह थे मुलायम सिंह यादव। उन्होंने उसे सच साबित कर दिया जब 1989 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। दुख के साथ कहना पड़ता है कि अखिलेश यादव सहित किसी भी युवा नेताओं में वह जुझारूपन नहीं दिख रहा है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में चौधरी जयंत सिंह किसान आंदोलन की भीड़ को अपनी भीड़ समझ बैठे। उन्हें समझना चाहिए था कि पिछले 8-9 सालों से उनकी पार्टी गर्त में जा चुकी है और इतनी आसानी से वह समर्थन नहीं पा सकेगी। अखिलेश यादव ने बहुत बड़ी गलती यह भी की कि उन्होंने दलित वोट पर कभी फोकस नहीं किया। हाथरस, उन्नाव में दलित युवती के साथ दुराचार तथा गोहरी (इलाहाबाद) में दलितों की सामूहिक हत्या के बाद उन्हें वहां जाना चाहिए था लेकिन उन्होंने वहां या तो अपने प्रतिनिधि को भेजा या उन्होंने ट्वीट कर इतिश्री कर ली। मायावती अपने वोट बैंक को नहीं संभाल पा रही हैं, यह जानने के बावजूद उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया। शायद उनके मन में यह बात घर कर गई की उनके कोर वोट बैंक वाली जाति और दलितों की गांव में खेत से लेकर मेड़ तक की लड़ाई के कारण वह उनके पक्ष में नहीं आएंगे।

फिर भी उनकी पार्टी के लिए खुशी की बात यह है कि गैर यादव ओबीसी को अपने पक्ष में लाने में उन्होंने सीमित सफलता हासिल की है, खासकर उस जातियों के युवा वर्ग के द्वारा उन्हें समर्थन देना उनके भविष्य की राजनीति को मददगार बना सकता है। बशर्ते वह युवाओं के मुद्दे को उठाएं। उत्तर प्रदेश में इसके लिए उर्वर जमीन है, इनका उन्होंने अब तक उपयोग नहीं किया।

जहां तक बहुजन समाज पार्टी की बात है राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री में किसी के बारे में यह कहना उचित नहीं है कि अब वह पुनर्वापसी नहीं कर सकती लेकिन मायावती के नेतृत्व में अब दोबारा यह पार्टी सफलता के रथ पर सवार होगी यह मुश्किल दिखता है। अक्सर कहा जाता है कि अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के काले कारनामों को कानून की आड़ से बचाने के लिए वह भारतीय जनता पार्टी के द्वारा शांत कर दी गई हैं। इस चुनाव में भी उन्होंने बीजेपी के कहने पर अपने वोट को सत्तारूढ़ दल में ट्रांसफर कराया है लेकिन जिस पार्टी की पकड़ अब अपने मतदाताओं में नहीं रही वहां पर ऐसा होना मुश्किल है।

उपभोक्तावादी समाज में दलित युवाओं में भी आप केवल जातिगत अस्मिता को उभार कर अपने पीछे नहीं चला सकते। 2007 में अपने बल पर मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती उसके तीन साल पहले से जिस प्रकार ब्राह्मण-दलित मैत्री सभा करवा कर अपने जुझारूपन का प्रदर्शन किया, अब वह उसकी छाया मात्र रह गई हैं। इस चुनाव में उनका मुख्य उद्देश्य समाजवादी पार्टी को सत्ता में आने से रोकना था। उन्होंने इसके लिए 91 मुस्लिम तथा 15 यादव उम्मीदवार खड़े किए। 16 सीट पर उन्होंने उसी जाति के उम्मीदवार उतारे जिस जाति के उम्मीदवार समाजवादी पार्टी के थे। इन 122 सीटों में से 68 सीट पर बीजेपी की जीत हुई। जहां-जहां बहुजन समाज पार्टी मजबूती से लड़ी, वहां समाजवादी पार्टी को फायदा हुआ अन्यथा जीत बीजेपी की हुई। मायावती प्रतिशोध की राजनीति के लिए जानी जाती हैं और जिस प्रकार 1995 में मुलायम सिंह के ‘विधायकों’ के द्वारा उनके साथ विवादित गेस्ट हाउस कांड हुआ था उसको वह अभी तक भूल नहीं सकी है।

जहां तक कांग्रेस की बात है उस पार्टी के लिए काफी दुख की बात है कि उनके प्रदेश अध्यक्ष जो लगातार सक्रिय रहते हैं वह भी चुनाव हार गए और उनका मत प्रतिशत संभवतः इतना कम कभी नहीं हुआ था। संगठन के अभाव में यह पार्टी उत्तर प्रदेश में कब वापसी करेगी यह कहना मुश्किल है। ऐसे कई मौके आए जब उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जब प्रियंका गांधी वहां तत्काल पहुंच गईं। अगर वह लगातार उसके बाद प्रदेश में सक्रिय रहतीं तब आज कांग्रेस की स्थिति इतनी बुरी नहीं होती। 2018 में सोनभद्र जिले में(उभ्भा गांव) दलित-आदिवासियों की सामूहिक हत्या के बाद वह पार्टी को लगातार सक्रिय कर आगे बढ़ा सकती थी, लेकिन पार्टटाइम राजनीति कर आप दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के खिलाफ नहीं ठहर सकते। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे कई मतदाताओं को जानता हूं जो बीजेपी से नाराज होने के बावजूद समाजवादी पार्टी को वोट देना पसंद नहीं करते। कांग्रेस अगर मजबूत होती है तो यह सारा वोट कांग्रेस के पक्ष में जाता।

कुल मिलाकर यूपी का चुनाव अगर भारतीय जनता पार्टी को अगले लोकसभा चुनाव में दोबारा अधिकतम सीट जिताने का साहस देता है तो अखिलेश यादव को भी यह संदेश देता है कि आप लगातार सक्रिय रहकर भारतीय जनता पार्टी को उसी प्रकार चुनौती दे सकते हैं, जिस प्रकार अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी और 2015 में नीतीश-लालू गठबंधन ने दिया था।

उत्‍तराखंड चुनाव

जिस राज्य में सत्तारूढ़ दल के द्वारा 3-3 मुख्यमंत्री को बदला जा रहा हो, इससे यह संदेश जाता है कि पार्टी मुश्किल स्थिति में है। इसके बावजूद अगर वह दो तिहाई बहुमत लाती है तो इससे जाहिर होता है कि विपक्षी कांग्रेस की विश्वसनीयता प्रदेश में रसातल में पहुंच गई है। वैसे तो हर पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रप के द्वारा लड़ाई आम बात है लेकिन कांग्रेस में हाल के वर्षों में आलाकमान के कमजोर होने के कारण है यह लगातार सतह पर आ रही है।

पांच साल पहले हरीश रावत और विजय बहुगुणा की लड़ाई में कांग्रेसी बेदम सी थी और बाद में  इंदिरा हृदयेश के साथ हरीश रावत का 36 का आंकड़ा पार्टी को नुकसान पहुंचा गया। इंदिरा हृदयेश की मौत के बाद ऐसा लगा था कि अब यह लड़ाई थम जाएगी और उत्तराखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होगा लेकिन हरीश रावत अगर कांग्रेस को मजबूती दिला सकते हैं तो वहीं कांग्रेस के सबसे बड़े बोझ भी बन चुके हैं। चुनाव के पहले कांग्रेसी आलाकमान को आंख दिखाना और आलाकमान का झुक जाना भी प्रदेश में उनके इमेज को धक्का पहुंचाया। दूसरी तरफ एडमिरल विपिन रावत की मौत के बाद उनके परिवार वालों का बीजेपी को समर्थन भी दल को मजबूती प्रदान किया। पहाड़ी महिलाओं का लाभार्थी वोटर के रूप में सत्तारूढ़ दल को मदद पहुंचाना उनके मुख्यमंत्री धामी के हार के बावजूद इस बात से पार्टी को राहत पहुंचाता है कि राज्य के चुनावी इतिहास में पहली बार किसी पार्टी को लगातार दूसरी बार सत्ता मिली है।

पंजाब चुनाव

अगर बात पंजाब विधानसभा चुनाव के परिणाम की करें तो चुनाव के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि आम आदमी पार्टी सत्ता में आ रही है लेकिन सारे दलों का सफाया अपने आप में आश्चर्यजनक है। इस चुनाव के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह की राजनीतिक पारी भी समाप्त हो गई। रोचक बात है कि आम आदमी पार्टी दिल्ली में भी जब-जब सत्ता में आई है वह विरोधियों का सूपड़ा साफ कर देती है और पंजाब में भी उसने यही किया। अरविंद केजरीवाल व्यक्तिगत बातचीत में कहते भी हैं कि हम जब एक बार सत्ता में आएंगे फिर हम वापस नहीं जाएंगे। उन्हें अपने वेलफेयर स्कीम (फ्री पानी, बिजली) पर जबरदस्त भरोसा है। वैसे भी इस देश की ‘चेतनाविहीन जनता’ को इससे कोई सरोकार नहीं है कि इस तरह के मुफ्त की योजनाओं से आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था का हाल किस तरह भयावह होने वाला है। महत्वाकांक्षा के रथ पर सवार सिद्धांतविहीन राजनेता आखिर जनता को क्यों बताएंगे? वैसे भी आर्थिक उदारीकरण के बाद अब सरकारों के पास कुछ करने को नहीं बचा है। नीतिगत स्तर पर फैसले कारपोरेट द्वारा तय किए जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में वास्तविक अनपढ़ सहित पढ़े लिखे ‘अनपढ़’ भी इस तरह की योजना देने वाले पार्टियों के ‘कृतज्ञ वोटर’ बनने को तैयार हैं।

सवाल विश्वसनीयता का भी हैं। जिन वादों के दम पर अरविंद केजरीवाल की पार्टी सत्ता में आई है, लगभग उसी तरह के वादे करने के बावजूद कांग्रेस पंजाब में तथा समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में जनता का विश्वास अर्जित नहीं कर पाई।

पंजाब विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी, अकाली दल और कैप्टन अमरिंदर सिंह से वैसे भी कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन आज से चंद महीने पहले तक कांग्रेस को भी एक खिलाड़ी माना जा रहा था लेकिन वहां की कहानी कुछ और है। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह मरहूम राजीव गांधी के मित्र हुआ करते थे। पटियाला के राजा कैप्टन अमरिंदर सिंह का अक्खड़पन स्वभाविक था। उन्हें इस बात से हमेशा दिक्कत रहती थी कि हमारे आलाकमान अब राहुल और प्रियंका गांधी है। राहुल गांधी हमेशा इस बात से आहत रहते थे कि पंजाब के मुख्यमंत्री होने के बावजूद नरेंद्र मोदी पर तीखा प्रहार वह कभी नहीं करते जैसा राहुल गांधी अक्सर करते हैं। अंत में बड़बोले नवजोत सिंह सिद्धू के कंधे पर बंदूक रखकर पहले कैप्टन को ठिकाने लगाया गया और उसके बाद चरणजीत सिंह चन्नी को दलित मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करते समय इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया कि इससे जाट, सिख और हिंदू वोटर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

चन्नी पर कुछ भ्रष्टाचार के आरोप थे और कैप्टन के सहयोग से भारतीय जनता पार्टी ने उसको ईडी के माध्यम से उजागर भी कर दिया। इसका भी बुरा प्रभाव पड़ा और दूसरी तरफ नवजोत सिंह सिद्धू मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में कभी चरणजीत सिंह चन्नी पर निशाना साधते थे तो कभी पार्टी आलाकमान पर। अंत में सिद्धू को शांत जरूर किया गया लेकिन प्रदेश में पार्टी की इमेज पूरी तरह प्रभावित हुई। चन्नी दोनों जगह से चुनाव हार गए। सिद्धू भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। किसान आंदोलन का सारा लाभ कांग्रेस ने जाया कर दिया। विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले तक उत्तराखंड कांग्रेस के सबसे बड़े खिलाड़ी हरीश रावत पंजाब के विवाद सुलझाने में व्यस्त थे जबकि आलाकमान को हरीश रावत को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने या ना देने के संबंध में राय ले लेना चाहिए था।

पंजाब, उत्तराखंड सहित गोवा जहां पर बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर भी था उसे भी भुनाने में कांग्रेस नाकाम रही और गोवा में पिछली बार जोर-तोड़ से सरकार बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी इस बार अकेले दम पर लगभग बहुमत को प्राप्त कर चुकी है।

अगर पंजाब में कांग्रेस को अपने आप में सुधार करना है तो सबसे पहले उन्हें नवजोत सिंह सिद्धू से अपने आप को मुक्त कर लेना चाहिए क्योंकि सिद्धू जैसे लोग अगर भविष्य में पार्टी को प्रदेश में सफलता दिलाएंगे भी तो उनकी कभी भी आलाकमान से नहीं बनेगी। भारत में सिद्धू जैसे राजनेता अपनी क्षेत्रीय पार्टी बनाकर ही सफल रह सकते हैं जहां पर पार्टी सुप्रीमो के द्वारा बोला गया शब्द अंतिम होता है।

तीसरी ताकत

आम आदमी पार्टी की सफलता और कांग्रेस की बुरी दुर्गति देखकर विश्लेषक अनुमान लगा रहे हैं कि वह कांग्रेस का स्थान ले सकती है लेकिन अभी ऐसा संभव इसलिए नहीं दिखता क्योंकि बिहार, यूपी जैसे राज्यों को छोड़ दिया जाए तो ऐसे राज्य जहां कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है वहां भी उसका अपना संगठन है। 200 से ऊपर सीटों पर उसकी भारतीय जनता पार्टी से सीधी लड़ाई है। कांग्रेस आलाकमान की ‘भ्रमित’ स्थिति से राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर होने के बावजूद प्रदेश में पार्टी के क्षत्रपों के मुकाबले में आम आदमी पार्टी को अभी वैसे क्षत्रप तैयार करने होंगे।

उत्तराखंड, गोवा जैसे राज्यों में चुनाव हारने के बावजूद उसका मत प्रतिशत आम आदमी पार्टी से बहुत ज्यादा है। कांग्रेस मध्यमार्ग की पार्टी है। तुष्टीकरण का आरोप लगने के बावजूद उसे हम धर्मनिरपेक्ष पार्टी मानते हैं लेकिन आम आदमी पार्टी को अभी इस संबंध में जवाब देना होगा कि उसकी विचारधारा क्या है। पिछले साल नगर निगम चुनाव में इस पार्टी के नंबर दो मनीष सिसोदिया ने कहा था कि ‘जय श्री राम का नारा हिंदुस्तान में नहीं तो क्या पाकिस्तान में लगेगा’। अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी जेएनयू और शाहीन बाग जाना तो दूर, उनके पक्ष में कुछ नहीं कहा बल्कि हर मंगलवार को दिल्ली के मंदिरों में सुंदरकांड पाठ करवाने का निर्णय लिया। अगर पार्टी के मन में तुष्टीकरण और मुस्लिम संप्रदायिकता के प्रति कुछ मसला है तो उसे भी स्पष्ट करना चाहिए। हिंदू फासीवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण या सांप्रदायिकता का एक साथ विरोध कर ( हालांकि दोनों को एक प्लेटफार्म पर नहीं रखा जा सकता) भी आगे बढ़ा जा सकता है लेकिन उनका झुकाव दक्षिणपंथ की ओर अधिक दिखता है।

यह चुनाव खासकर उत्तर प्रदेश का चुनाव उन पत्रकारों तथा विश्लेषकों के लिए भी सबक है जिनका आकलन (कुछ विश्लेषकों को छोड़कर) लगभग पूरी तरह गलत रहा। शीतल पी. सिंह, अभय दुबे, कुर्बान अली, आलोक जोशी, कार्तिकेय, शरद गुप्ता, आशुतोष, न्यूज़ News24 के राजीव रंजन जैसे  पत्रकार कभी भी समाजवादी पार्टी को शानदार तरीके से सत्ता में आने की बात नहीं कर रहे थे लेकिन बीजेपी की इतनी बड़ी जीत का अंदाजा किसी को नहीं था।

सत्य हिंदी डॉट कॉम के कार्यक्रम में आने वाले कुछ पत्रकार अंबरीश कुमार के नेतृत्व में जनादेश नामक कार्यक्रम में बीजेपी की ऐतिहासिक हार की भविष्यवाणी कर रहे थे। होगा क्या और हम चाहते क्या हैं? दो अलग-अलग बातें हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि बीजेपी विरोधी या कहें सांप्रदायिकता विरोधी कुछ जनपक्षीय पत्रकार जो चाहते हैं वही बोल रहे थे। अजीत अंजुम ने भी सपा की जीत की भविष्यवाणी डंके की चोट पर तो नहीं की लेकिन बीजेपी आसानी से सत्ता हासिल कर लेगी इस बात को वह भी इसके बावजूद नहीं भांप सके कि उनके वीडियो में तीसरे चरण के बाद से लगातार लाभार्थी वोटर का बहुत बड़ा हिस्सा मोदी के पक्ष में जाने की बात कर रहा था। उन्हीं के वीडियो में कुछ मतदाता सपा के खराब कानून व्यवस्था की बात कर यह याद दिला रहे थे कि अब हमारी भैंसें या साइकिल चोरी नहीं होती।

दरअसल विभिन्न तरीके के हत्याकांड या बलात्कार के द्वारा खराब कानून व्यवस्था और वैसी कानून व्यवस्था जिससे आम आदमी प्रभावित होता है, यह दो अलग बात है। आपराधिक गतिविधियों के आंकड़े बीजेपी के कार्यकाल में अधिक होने के बावजूद छुटभैये अपराधी-दबंगों के द्वारा अपराध बीजेपी के शासनकाल में अपेक्षाकृत कम हुए, जो जनता के लिए राहत की बात थी। इसे अजीत अंजुम सहित अन्य विश्लेषक नहीं समझ पाए। हर इंसान अपनी विचारधारा के प्रति समर्पित रहता है लेकिन एक पत्रकार या विश्लेषक के तौर पर हमें वही कुछ लिखना या बोलना चाहिए जो मुझे दिख रहा हो।

व्यक्तिगत रूप से मुझे जहां कहीं भी बोलने या लिखने का मौका मिला, मैं अक्सर यही बात कहता था कि अगर गैर यादव ओबीसी, गैर जाटव दलित का बहुत छोटा हिस्सा ही समाजवादी पक्ष में गया, महंगाई, बेरोजगारी हिंदुत्व पर भारी नहीं हुआ और लाभार्थी वोटर का एकमुश्त वोट भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गया तब ऐसी स्थिति में भारतीय जनता पार्टी 225 से 230 सीट अवश्य लाएगी। इस तरह के जीत का अंदाजा मुझे भी नहीं था लेकिन मैं यह जरूर मानता हूं कि इतनी बड़ी जीत में संवैधानिक संस्थाओं को अपनी चेरी बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी को चुनाव आयोग का भी जबरदस्त समर्थन मिला। मुझे इस बात की पक्की सूचना है कि कुछ जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा अपने मातहत कर्मचारियों का वोटर आइडी रख लिया गया। कर्मचारियों को शक था कि इसका उपयोग किसी पार्टी के पक्ष में बैलेट के रूप में किया जाएगा। मैं ईवीएम हैक करने वाले आरोप को बिल्कुल नहीं मानता लेकिन मैं यह मानता हूं कि पोस्टल बैलट और तमाम कारणों से स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी सत्तारूढ़ दल के पक्ष में उन्हें कुछ सीटें जिता सकते हैं। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में भी कुछ सीटों पर यह चीज देखने को मिली और सामान्य बहुमत से सत्ता में आई पार्टी के लिए यह चीज काफी फायदेमंद होता है। कांग्रेस के जमाने में भी इस तरह की चीजें यदा-कदा देखने को मिलती थी लेकिन साम, दाम, दंड, भेद के मामले में भारतीय जनता पार्टी ने ‘पीएचडी’ कर रखी है।

मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर इस तरह की चीजें नहीं होती तो बीजेपी की सीटों की संख्या कुछ कम होती। इलाहाबाद उत्तर में जिस दिन (27 फरवरी) मतदान था, उस दिन शाम 4:00 बजे बीजेपी के पक्ष में कुछ मोहल्ले में भीड़ नारे लगाकर घूम घूम के चुनाव आचार संहिता का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन कर, टीएन सेशन की आत्मा को रुलाते हुए लोगों को वोट दिलवाने के लिए प्रेरित कर रही थी। इसके बावजूद एक विश्लेषक के तौर पर मैं पूरी तरह सही विश्लेषण नहीं कर सका जिसके लिए मैं पाठक से माफी मांगता हूं।

आज लोकतंत्र ही नहीं बल्कि विपक्ष भी संक्रमण काल से गुजर रहा है और यह संक्रमण कुछ ज्यादा ही लंबा होता जा रहा है। इस चुनाव से यह तय हो गया कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में निजीकरण द्रुत गति से बढ़ेगा, जिससे रोजगार के अवसर और कम होते जाएंगे। दूसरी तरफ चुनाव जीतने के लिए, जनता को संतुष्ट करने के लिए अर्थव्यवस्था की स्थिति बद से बदतर होने की कीमत पर मुफ्त की राजनीति में बढ़ोतरी होती क्योंकि देश की 90 फ़ीसदी से अधिक मतदाता को इस बात का इल्म ही नहीं है कि देश की बुनियादी समस्याओं को सुलझाने के अधिकार पार्टियों के पास है ही नहीं। हमारी सारी नीति डब्ल्यूटीओ, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ तय कर रहा है। जनता को समाज विज्ञानी के तौर पर चेतनायुक्त बनकर उन्हें देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक नीतियों को समझाने की आवश्यकता है ताकि वह वाकई जागरूक मतदाता बन सके। लाख टके का सवाल यह है कि राजनीतिक पार्टियां ऐसा करेंगी नहीं और समाज परिवर्तन के स्वप्नद्रष्टा थोड़े बहुत सामाजिक कार्यकर्ता संसाधन के अभाव में क्या कुछ कर पाएंगे?

लेकिन सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना, जैसा कि अवतार सिंह पाश कहते हैं। विपरीत परिस्थितियां ही क्रांति को जन्म देती हैं।


लेखक इलाहाबाद पीयूसीएल से सम्बद्ध हैं


About मनीष सिन्हा

View all posts by मनीष सिन्हा →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *