(पिछले लेख ”चुनावी नतीजे और संघ का एजेंडा” में हमने बताया कि कैसे जम्मू और कश्मीर विधानसभा चुनाव के हालिया नतीजों ने ‘हिंदू राष्ट्र’ की संघी परियोजना की राह का एक कांटा साफ कर दिया है। इसका दूसरा पहलू बाकी के भारत से ताल्लुक रखता है जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं और वहां धर्मांतरण के एजेंडे को लागू किया जा रहा है। धर्मांतरण की कहानी लंबी है जैसा कि हाल में हुए कुछ उद्घाटनों ने साफ़ किया है। प्रस्तुत लेख जनसत्ता में प्रकाशित पिछले लेख का दूसरा हिस्सा है। ये दोनों लेख एक साथ ”समकालीन तीसरी दुनिया” के जनवरी 2015 अंक में प्रकाशित हैं- मॉडरेटर)
अभिषेक श्रीवास्तव
मासिक पत्रिका ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के अगस्त 2014 के अंक में छपे लेख ‘‘यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है’’ को यहां दोबारा याद कर लेना मौजूं होगा जिसमें संघ के ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ की परियोजना के तीन चरण गिनाए गए थे। संघ के आंतरिक दस्तावेजों के हवाले से बताया गया था कि 2014 और 2025 के बीच संघ ने अपने काम को विस्तार देने के लिए तीन चरणों की एक रणनीति तय की है। ‘‘इसके तीन चरण संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस के दिए मंत्र ‘‘आॅर्गनाइजेशन, मोबिलाइजेशन और ऐक्शन’’ की तर्ज पर तैयार किए गए हैं। संघ का मानना है कि पहले चरण का अंत हो रहा है और दूसरे चरण की शुरुआत होने वाली है। पहला चरण राजनीतिक सत्ता हासिल करना था जिसकी जमीन तैयार करने में मोहन भागवत जुटे हुए थे। अगर 2019 में भी बीजेपी की सरकार आती है या बीजेपी वर्चस्व में रहती है, तो संघ के विचारधारात्मक घोड़ों को एजेंडा पूरा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाएगा। यह तीसरे चरण की शुरुआत होगी जिसके बारे में फिलहाल सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। यह चरण पूरी तरह अप्रत्याशित कार्रवाइयों का होगा जिनका उद्देश्य संघ के व्यापक सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति करना होगा’’ (समकालीन तीसरी दुनिया, अगस्त 2014)।
केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव का जनादेश आने के बीच अगर पिछले सात महीनों के दौरान देश में हुई गतिविधियों का जायज़ा लिया जाए, तो हम देखते हैं कि हिंदूवादी संगठनों द्वारा ‘‘मोबिलाइजेशन’’ का काम काफी तेजी से और बेसब्री से किया जा रहा है। इसमें ‘‘ऐक्शन’’ के भी कुछ तत्व गाहे-बगाहे शामिल कर लिए जा रहे हैं, जैसा कि हमने आगरा में 200 मुसलमानों का धर्मांतरण किए जाने की घटना में देखा। ज़ाहिर है, ऐसी कार्रवाइयों की अभी खुली छूट नहीं मिल सकती है क्योंकि कुछ राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है। मसलन, उत्तर प्रदेश में आगरा की घटना ने जहां सियासी गलियारों में बवाल मचा दिया, वहीं संघ को एक कदम पीछे हटकर अलीगढ़ में 25 दिसंबर को प्रस्तावित ‘‘घर वापसी’’ का कार्यक्रम टालना पड़ा। यह बात अलग है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 25 दिसंबर को सुशासन दिवस मनाने की घोषणा कर दी और इसे अटल बिहारी वाजपेयी को समर्पित कर दिया जिनका जन्मदिन इसी दिन होता है। ठीक इसी तरह हम देखते हैं कि विश्व हिंदू परिषद की स्वर्ण जयंती के अवसर पर कोलकाता में मोहन भागवत ने हिंदू राष्ट्र का खुलेआम आवाहन किया जो वे पिछले एक साल से लगातार छिटपुट भाषणों में करते आ रहे थे। बाद में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस बयान को ‘‘डाइल्यूट’’ करने की कोशिश की, हालांकि वे भी कुछ दिनों पहले गीता को राष्ट्रीय पुस्तक बनाए जाने की मांग कर ही चुकी थीं। सबसे ज्यादा चैंकाने वाला बयान संसद में शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू का रहा जिन्होंने अपने संघ की पृष्ठभूमि से होने पर सदन में गर्व जताया। इससे पहले गृह मंत्री राजनाथ सिह भी अपने और नरेंद्र मोदी के संदर्भ में ऐसी बात कह चुके थे। संघ और भाजपा नेताओं की नूराकुश्ती की ही कड़ी में दिसंबर के तीसरे सप्ताह में अचानक भाजपा के सांसद साक्षी महाराज ने संसद में महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त करार दिया, बाद में इस पर बवाल खड़ा होने पर उन्हें हालांकि अपने शब्द वापस लेने पड़े। नेताओं द्वारा जो कदम आगे बढ़ाकर संसद में राजनीतिक दबाव के चलते पीछे खींचे जा रहे थे, ठीक उन्हीं विषयों पर संघ और हिंदूवादी संगठन छलांग मार रहे थे। गोडसे का प्रकरण खत्म भी नहीं हुआ था कि दिसंबर के तीसरे सप्ताह में खबर आई कि नाथूराम गोडसे की मूर्तियां बनकर हिंदू महासभा के दफ्तर में आ चुकी हैं और उसे देश भर के चुनिंदा स्थानों पर लगाए जाने की तैयारी की जा रही है। हिंदू महासभा ने इस बाबत एक पत्र भी मीडिया को जारी किया और गोडसे की मूर्ति लगवाने की मांग उठायी।
इन तमाम घटनाओं से हमें एक बात समझ में आती है। वो यह कि एजेंडा एक है, चाल अलग-अलग। संघ तेजी से ‘‘मोबिलाइज’’ कर रहा है। राजनीतिक दबाव में जब उसकी कार्रवाइयां रुक जा रही हैं और उसे डाइल्यूट कर के ‘‘मोबिलाइजेशन’’ का काम मोदी की सत्ता कर रही है। दरअसल देश में काम एक ही हो रहा है। हिंदू राष्ट्र के निर्माण की दिशा में सारा काम। इससे कुछ भ्रम भी फैल रहे हैं और फैलाए जा रहे हैं। मसलन, दिसंबर के आखिरी सप्ताह में इस खबर को उड़ाया गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संघ के नेताओं को इस्तीफे की धमकी दी है। यह खबर कहां से आई उसका कोई स्रोत स्पष्ट नहीं है, लेकिन इससे जनता के बीच एक भ्रम बनाया गया कि संघ की कार्रवाइयों से प्रधानमंत्री अपने ‘‘विकास’’ के एजेंडे को लागू करने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इसी के समानांतर दो और खबरें आईं जिन्हें बिल्कुल हवा नहीं दी गई। एक खबर थी टीवी चैनलों के संपादकों के साथ प्रधानमंत्री मोदी की दिसंबर के दूसरे सप्ताह में उनके आवास पर हुई निजी बैठक। दूसरी खबर थी धर्म जागरण समिति के कर्ताधर्ता राजेश्वर सिंह का समझौता ब्लास्ट और मक्का मस्जिद ब्लास्ट में गवाह होना।
बहुत संभव है कि प्रधानमंत्री की पत्रकारों के साथ हुई बैठक में कुछ चीजें तय हुई हों कि क्या दिखाना है और क्या नहीं। यही वजह है कि राजेश्वर सिंह ने इंडिया टुडे के पत्रकारों के साथ हुई बातचीत में जब खुलासा किया कि वह स्वामी असीमानंद और सुनील जोशी को जानता था तथा नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी और सीबीआई ने उसे समझौता एक्सप्रेस व मक्का मस्जिद धमाकों में गवाह बनाया है, तो इस खबर को उठाने वाला कोई मीडिया मौजूद नहीं था। यहां तक कि खुद टुडे समूह के चैनल आजतक पर भी इस खबर को नहीं चलाया गया। सिर्फ याहू डाॅट काॅम ने इस खबर को अपने पोर्टल पर साझा किया है।
‘भगवा आतंक’ के तार
Rajeshwar Singh. Photograoh by Chandra Deep Kumar, Courtesy India Today |
राजेश्वर सिंह ने मई 2007 के मक्का मस्जिद विस्फोट कांड के संबंध में पहले अपना बयान केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) को दिया और उसके बाद फरवरी 2007 में दिल्ली-लाहौर समझौता एक्सप्रेस विस्फोट कांड पर अपना बयान राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) को दर्ज करवाया है। समझौता और मक्का मस्जिद के अलावा जोशी व असीमानंद के नेतृत्व वाला माॅड्यूल मालेगांव (महाराष्ट्र), अजमेर दरबाह और मोडासा (गुजरात) में हुए धमाकों का भी जिम्मेदार है। बाद में जोशी की उसी के आदमियों ने मध्यप्रदेश के देवास में दिसंबर 2007 में कथित रूप से हत्या कर दी जबकि असीमानंद को सीबीआइ ने नवंबर 2010 में गिरफ्तार कर लिया था। अपने बयान में सिंह ने यह भी बताया है कि वह कर्नल श्रीकांत पुरोहित से मिला था जो फिलहाल 2008 के मालेगांव धमाकों के सिलसिले में सलाखों के पीछे है।
चेहरे पर खिन्न भाव के साथ उसने 16 दिसंबर को अलीगढ़ में इंडिया टुडे से कहा, ‘‘मैं मुक्त कर दिया गया हूं; जो पूछना हो पूछिए।’’ धर्मांतरण कार्यक्रमों के अपने अतीत का हवाला देते हुए बारहवीं तक पढ़ाई किए सिंह ने बताया, ‘‘1996 में हमारा काम ‘परावर्तन’ के नाम से शुरू हुआ था। इसे 1997 में घर वापसी का नाम दिया गया। मैं इस क्षेत्र में काम करने वाला पहला संघ प्रचारक हूं।’’
सिंह का दावा है कि उसने अलीगढ़ को इसलिए चुना क्योंकि यहां मुसलमानों (20 फीसदी से ज्यादा) और ईसाइयों की संख्या बहुत ज्यादा है। उसका कहना है कि ‘‘चूंकि जिले में करीब 60 फीसदी मुसलमान वे राजपूत हैं जिन्होंने धर्म बदल लिया था, इसलिए उसने जब उन्हें दोबारा परिवर्तित करने का फैसला किया तो वे प्रतिक्रिया में उतर आए (नकारात्मक)।’’ यह पूछे जाने पर कि उन्हें किसने रोका, सिंह ने बचाव में कहा, ‘‘यह नहीं बताया जा सकता। क्षेत्र प्रचारक ने सीधे मुझसे कहा था। उन्होंने मुझसे कहा कि काफी दबाव है, इसलिए छोड़ दो। मैं सहमत हो गया।’’
उसका अंदाजा है कि ‘‘किसी कमजोर दिल वाले नेता’’ ने अलीगढ़ का आयोजन ‘‘मुसलमानों… आइएसआइ द्वारा हत्या किए जाने के डर से’’ रद्द करवा दिया। उसका कहना था कि यह एक बड़ा झटका है, और फिर उसने उसी ज़हरीली भाषा दोबारा इस्तेमाल की जिसके लिए वह कुख्यात रहा है, ‘‘लेकिन जब हम लौटेंगे तो हम बदला लेंगे। हमारा उद्देश्य इस्लाम और ईसाइयत को खत्म कर देना है, और 31 दिसंबर 2021 भारत में दोनों धर्मों का आखिरी दिन होगा।’’
पहले भी उसने ऐसी ही बातें कही हैं। अपने 2011 के एक बयान में उसने कहा था, ‘‘मैं 2006 में शबरी कुम्भ (स्वामी असीमानंद द्वारा आयोजित) में गया था। वहां यह तय हुआ कि वीर सावरकर द्वारा 1930 में निर्मित अभिनव भारत संगठन को दोबारा जिंदा करना है। यह महसूस किया गया था कि वक्त की जरूरत है कि मुस्लिम कट्टरपंथियों पर हिंदू प्रार्थनास्थलों में पलटवार किया जाए और उन्हें माकूल जवाब दिया जाए।’’
राजेश्वर सिंह जिस शबरी कुंभ की बात कर रहा है, उसके बारे में जानना दिलचस्प होगा ताकि हम जान सकें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ के एजेंडे के बीच कोई फर्क नहीं है। अलीगढ़ के धर्मांतरण कार्यक्रम का टाला जाना महज एक राजनीतिक दबाव का हिस्सा है जिससे अगर राजेश्वर सिंह को नाखुशी है तो मोदी भी इससे खिन्न ही होंगे।
धर्मांतरण और मोदी
‘‘कारवां’’ पत्रिका में लीना रघुनाथ ने ‘‘दि बिलीवर’’ नाम से स्वामी असीमानंद का एक प्रोफाइल किया था। उसमें उन्होंने स्वामी असीमानंद द्वारा गुजरात के डांग जिले में किए गए धर्मांतरण कार्यक्रम की परतें खोली थीं। यह वही डांग जिला है जहां शबरी कुंभ मेले का आयोजन किया गया जिसमें पहली बार राजेश्वर सिंह की मुलाकात असीमानंद से हुई थी। असीमानंद 1998 के आरंभ में डांग जिले में काम करने आया था। उस वक्त केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इससे पहले तक लगातार गुजरात में कांग्रेस की सरकार रही थी हालांकि 1995 में सात माह के लिए पटेल ने राज्य की कमान संभाली थी। मार्च 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और उस वक्त तक एनडीए सरकार को राजनीतिक दबावों के तहत अपने वैचारिक आग्रहों को झुकाने की जरूरत नहीं आन पड़ी थी, ऐसे में संघ के भीतर अचानक इस आकांक्षा का उभार हुआ कि अपनी कल्पना का भारत बनाने का वक्त अब आ गया है। इसी साल दिसंबर में बड़े दिन को डांग में एक दंगा हुआ जिसने संकेत दिया कि संघ अपनी परियोजना को मूर्त रूप देना शुरू कर चुका है। लीना अपनी स्टोरी में लिखती हैं, ‘‘असीमानंद की कामयाबी का एक आरंभिक संकेत वहां सोनिया गांधी का लगा दौरा था जो इस हिंसा की निंदा करने वहां आई थीं और जिसे उन्होंने ‘‘दिल तोड़ने वाला’’ करार दिया था। इसके बाद तो वहां नेताओं की कतार लग गई और समाचारों में मिली कवरेज ने असीमानंद को चर्चा में ला दिया। संघ में इस वजह से उसकी साख ऊपर हुई। इसके बाद बहुत दिन नहीं बीते जब संघ ने उसे सालाना श्री गुरुजी पुरस्कार दे डाला जो गुरु गोलवलकर के नाम पर दिया जाता है।
असीमानंद के करवाए दंगों पर दिल्ली में मचे हल्ले को शांत करवाने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को मध्यस्थता करनी पड़ी। असीमानंद ने ‘कारवां’ को बताया, ‘‘मेरी धर्मांतरण की खबरें जब सुर्खियों में आईं और जब सोनिया गांधी मेरे खिलाफ भाषण देने के लिए वहां पहुंची, तो मीडिया में काफी चर्चा हुई। तब आडवाणीजी गृहमंत्री थे और उन्होंने मुझ पर लगाम कसने के लिए केशुभाई को कहा। इसके बाद केशुभाई हमें काम करने से रोकने लगे और यहां तक कि उन्होंने हमारे कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया।’’ इसी दौरान असीमानंद के मुताबिक अहमदाबाद में आरएसएस के वरिष्ठ स्वयंसेवकों की एक बैठक हुई। इसमें मोदी उसके पास आए और उससे कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि केशुभाई आपके साथ क्या कर रहे हैं। स्वामीजी, आप जो कर रहे हैं उसकी कोई तुलना ही नहीं है। आप असली काम कर रहे हैं। अब यह तय हो चुका है कि मुख्यमंत्री मुझे ही बनना है। मुझे आने दीजिए, फिर मैं ही आपका काम खुद करूंगा। आराम से रहिए।’’
Photo Courtesy THE CARAVAN |
मोदी अक्टूबर 2001 में मुख्यमंत्री बने और जिस वक्त फरवरी के अंत में मुसलमानों का नरसंहार गुजरात में किया गया, ऐन उसी समय असीमानंद ने डांग जिले के उत्तर स्थित पंचमहाल जिले में अपने हमले शुरू किए। असीमानंद ने दावा किया, ‘‘इस इलाके में भी मुसलमानों को साफ करने का काम मेरी ही निगरानी में हुआ’’ (कारवां)। इसी साल के अंत में मोदी डांग के दौरे पर पहुंचे। अक्टूबर 2002 में असीमानंद ने राम को बेर खिलाने वाली महिला शबरी के नाम पर शबरी धाम आश्रम और मंदिर के निर्माण का काम शुरू किया। इस आश्रम और मंदिर को बनाने के लिए पैसे जुटाने के लिए उसने आठ दिन की रामकथा का आयोजन किया जिसमें मुरारी बापू कथा सुनाने आए। इस आयोजन में करीब दस हजार लोगों ने हिस्सा लिया। दंगों के बाद जुलाई में अपनी सरकार जाने के बाद दोबारा मुख्यमंत्री बनने के लिए प्रचार में लगे मोदी ने इस कार्यक्रम के मंच पर आने के लिए वक्त निकाला।
उस साल मोदी के चुनावी घोषणापत्र का एक अंश गुजरात फ्रीडम आॅफ रेलीजन बिल था, जिसमें प्रस्ताव था कि सारे धर्मांतरणों को जिला मजिस्ट्रेट की मंजूरी होनी चाहिए। असीमानंद द्वारा आयोजित रामकथा के चार माह बाद अमित शाह ने इस बिल को राज्य विधानसभा में पेश किया। बिल पारित हुआ और अप्रैल 2003 में इसे कानून की शक्ल दे दी गई। जल्द ही असीमानंद ने मुरारी बापू, मोदी और संघ के नेतृत्व की मदद से डांग में एक भव्य घर वापसी कार्यक्रम की योजना बनानी शुरू कर दी।
इसी रामकथा के समापन पर मुरारी बापू ने शबरी धाम में एक नए कुंभ मेले को आयोजित किए जाने का प्रस्ताव रखा था। इस आयोजन की तैयारी होने में चार साल लग गए। इसे धर्मांतण के विरुद्ध एक भव्य प्रदर्शन और हिंदुत्व का उत्सव होना था। इस मेले के आयोजन की जिम्मेदारी असीमानंद ने ली और संघ ने इसमें सहयोग किया। फरवरी 2006 के दूसरे सप्ताह में दसियों हजारों लोग सुबीर नामक एक गांव में शबरी कुंभ मेले के लिए उमड़े जो असीमानदं के शबरी धाम आश्रम से छह किलोमीटर दूर था। चारों परंपरागत कुंभों की तरह यह कुंभ भी धार्मिक शुद्धीकरण के कर्मकांड पर केंद्रित था जिसमें लोगों को एक स्थानीय नदी में डुबकी लगानी थी जिसके बाद आदिवासियों के हिंदू धर्म में वापस आने की घोषणा कर दी जाती। समूचे मध्य भारत के आदिवासी जिलों से ट्रकों में भरकर दसियों हजार आदिवासी वहां हिंदू बनाने के लिए लाए गए थे। सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन में (कारवां को) यह जानकारी प्राप्त हुई थी कि गुजरात सरकार ने कम से कम 53 लाख रुपये खर्च कर के पानी को नदी की ओर मोड़ा था ताकि उसमें इतना पानी रह सके कि वह इतनी भीड़ के डुबकी लगाने के लिए पर्याप्त हो। यही वह मेला था जिसका जिक्र धर्म जागरण समिति के मुखिया राजेश्वर सिंह ने इंडिया टुडे की ताज़ा खबर में किया है, जहां उसकी मुलाकात असीमानंद से हुई थी।
शबरी कुंभ हिंदू दक्षिणपंथियों की एकजुटता का एक प्रदर्शन भी था। तीन दिनों तक चले इस मेले में मुरारी बापू, आसाराम बापू, जयेंद्र सरस्वती, साध्वी ऋतम्भरा, इंद्रेश कुमार, प्रवीण तोगड़िया, अशोक सिंघल, शिवराज सिंह चैहान आदि मंच पर साथ थे। कारवां के मुताबिक यह मेला ‘‘साधुओं, संघ और सरकार’’ का समागम था। इस आयोजन के उद्घाटन समारोह में मोदी ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि आदिवासियों को राम से दूर ले जाने के हर प्रयास को नाकाम कर दिया जाएगा। तत्कालीन आरएसएस प्रमुख के.एस. सुदर्शन ने कहा था, ‘‘हम कट्टरपंथी मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा चलाए जा रहे कपट युद्ध के विरोध में खड़े हैं… और इससे हम अपने पास उपलब्ध हर संसाधन से निपटेंगे।’’ उस वक्त सुदर्शन के बाद संघ में दूसरे नंबर पर रहे मोहन भागवत ने कहा था, ‘‘हमारा विरोध करने वालों के दांत तोड़ दिए जाएंगे।’’
निष्कर्ष
अब हम समझ सकते हैं कि किस तरह समूचे देश में धर्मांतरण के रास्ते व बचे हुए जम्मू और कश्मीर में हिंदू वोटरों के रास्ते ‘‘मोबिलाइज़ेशन’’ की संघ की राष्ट्रीय प्रक्रिया एक साथ आगे बढ़ रही है और दोनों को जोड़ने वाला एक ही सूत्र है- राम! संघ की सैद्धांतिकी के हिसाब से जम्मू और कश्मीर के संदर्भ में वहां के हिंदू शासक का क्षत्रिय कुल राम का कुल था तो बाकी स्थानों पर राम को बेर खिलाने वाली शबरी के नाम पर ‘‘घर वापसी’’ हो रही है। ध्यान दें कि राजेश्वर सिंह के मुताबिक ‘‘31 दिसंबर 2021 भारत में दोनों धर्मों (इस्लाम और ईसाई) का आखिरी दिन होगा।’’ धर्मांतरण की जड़ों में पानी डालने का काम मोदी ने बराबर किया है। अब वे गुजरात से निकलकर देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। उनके सामने अड़चन सिर्फ एक है कि कुछ राज्यों में उनकी सरकार नहीं है और राज्यसभा में उनका बहुमत नहीं है। हिंदू अल्पसंख्यक वाले राज्य जम्मू और कश्मीर में हिंदू एकता का रास्ता साफ़ होने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार भाजपा के लिए बहुत दिक्कत पैदा नहीं करेंगे क्योंकि यहां हिंदू बहुसंख्यक हैं और ‘‘लव जेहाद’’ से लेकर ‘‘घर वापसी’’ और कुछ कारगर न होने पर दंगे का रास्ता तो भाजपा और संघ के पास बचता ही है। फिलहाल भाजपा और संघ के रास्ते का एक कांटा जम्मू और कश्मीर में 25 सीटों के साथ साफ हुआ है। अगली बारी उत्तर प्रदेश और बिहार की है। एक बार 2016 के अंत तक दोनों राज्यों में इनकी सत्ता आ गई, तो हम देखेंगे कि कैसे डांग जिले में असीमानंद जैसा काम यहां राजेश्वर सिंह जैसे लोग करते फिरेंगे और खुलेआम उसे मोदी सरकार का समर्थन होगा। अगले लोकसभा चुनाव 2019 में होने हैं यानी हिंदूवादी संगठनों के पास खुलकर खेलने के लिए 2016 के बाद भी पूरे दो साल होंगे। अगर 2019 में दोबारा भजपा को बहुमत मिलता है, जो कि संभव है चूंकि तब तक हिंदू ‘‘मोबिलाइज़ेशन’’ का चरण येनकेन प्रकारेण संपन्न हो ही चुका होगा, ऐसे में 2021 का 31 दिसंबर इस देश के संविधान के बदलने की ज़मीन तय कर देगा। याद रखें कि हिंदू राष्ट्र बनाने की संघ की डेडलाइन 2025 है।
(समाप्त)
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