हमारे समय की मिस्टेकेन मॉडर्निटी और यथार्थ के बीच की जो फांक है, वह या तो बहुत गहरी हो गयी है या फिर वह हमारी पहुंच से बहुत दूर है और हम उसे पकड़ ही नहीं पा रहे हैं। बात की शुरुआत करते हैं प्रियंका वाड्रा के हाल ही में रिलीज किए कांग्रेस के थीम-सांग से, जो उन्होंने खास उ.प्र. के चुनाव के लिए बनवाया है। थीम-सांग मूलत: महिषासुर-मर्दिनी श्लोक का रीमिक्स वर्जन है, जिसमें कांग्रेस ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के दो-तीन अंतरे का तड़का भी लगा दिया है।
मिसेज वाड्रा काफी समय से यूपी की राजनीति में सक्रिय हैं और कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इस बात का यकीन है कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस अपना खोया हुआ मुकाम पाकर ही रहेगी। कांग्रेस आखिरकार उसी पिच पर खेल रही है, जो भाजपा का होम-टर्फ रहा है। ‘हिंदुत्व’ को जबरन सनातन धर्म का राजनीतिक प्रारूप बतानेवाली और हिंदुत्व-हिंदूवाद (हिंदुइज्म) के बीच विभेद करने वाली पार्टी भी अगर अपने थीम सांग के लिए धार्मिक श्लोक का आसरा ले रही है, तो यह सोचना लाजिमी हो जाता है कि हमारी मॉडर्निटी कितनी मिस्टेकेन है।
इसके उलट, अगर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ रहे सीरीज और फिल्मों को देखें, तो वहां लगभग वैसी चीजें परोसी जा रही हैं, जो आज के अमेरिका में जान-बूझकर या अनजाने में की जा रही हैं। आप ‘इनसाइड एज’ देखें या ‘आर्या’ सीजन 2, ‘बांबे बेगम्स’ देखें या कोई भी नई सीरीज, इसमें समलैंगिक अपने रिश्ते को सार्वजनिक तौर पर स्वीकारते और जश्न मनाते (इनसाइड एज3) या उसकी जद्दोजहद में लगे (आर्या 2) दिखते हैं। शादी के बाहर सेक्स, शादी के बिना सेक्स या बच्चा होनेवाला है तो शादी की बात, किशोर-किशोरियों के धूम्रपान से मदिरापान तक को बिल्कुल ही न्यू नॉर्मल सा बना दिया गया है। इंटरनेट की अबाध और बहुत सस्ती पहुंच की वजह से ये चीजें गांव-खलिहानों और कस्बों-शहरों के दालानों तक पहुंच रही हैं।
एक तीसरी घटना का उल्लेख कर फिर हमलोग आगे की ओर बढ़ेंगे। तेजस्वी यादव बिहार के नेता प्रतिपक्ष हैं, लालू प्रसाद के सुपुत्र हैं और भविष्य में शायद बिहार के मुख्यमंत्री भी बनें। उन्होंने एक ईसाई युवती से शादी की। खबर हालांकि यह नहीं है। खबर तो यह है कि लालू-राबड़ी काफी नाराज थे और उन्हें मनाने में तेजस्वी को काफी मेहनत करनी पड़ी। तेजस्वी के भुला दिए गए मामा साधु यादव ने तो संस्कार डुबाने तक की बात कह दी और पूरे खानदान का चिट्ठा खोलने की धमकी तक दी। यह अलग बात है कि इन्हीं साधु का एक बलात्कार के मामले में डीएनए टेस्ट के लिए बुलावा आया था और तब इन्होंने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सैंपल देने से इन्कार कर दिया था।
अस्तु, रेचल के बाकायदा हिंदू धर्म में प्रवेश की खबरें भी नमूदार हो गयी हैं और वह रेचल से राजेश्वरी यादव भी बन गयी हैं। इससे पहले कि आप लोग भूलें, यह याद दिलाना मौजूं रहेगा कि चंद रोज पहले शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व सदर वसीम रिजवी भी हिंदू धर्म में आ चुके हैं और हरेंद्र नारायण त्यागी हो गए हैं। इस पर कई चिंतकों ने यह चिंता भी जताई कि जिस तरह रिजवी को त्यागी यानी ब्राह्मण बनाया गया, क्या कुछ दलितों को भी वही पूजा कर ब्राह्मण बनने का अधिकार है? अब इसमें भी बुनियादी झोल है। पहली, तो त्यागी ब्राह्मण हैं या नहीं, इस पर वैसा ही मतभेद है, जैसा बिहार में भूमिहारों के साथ है। वे भी खुद को ब्राह्मण कहते हैं, पर दूसरे नहीं मानते। यही मामला पश्चिमी उ.प्र. के त्यागी जाति के लोगों के साथ है। दूसरे, रेचेल को यादव ही रखा गया, इस पर चिंतकों का क्या कहना है?
यह तीनों उदाहरण हमारी मिस्टेकेन मॉडर्निटी और आइडेंटिटी और इससे उपजे क्राइसिस के जीवंत उदाहरण हैं। एक समाज के तौर पर या उसके प्रातिनिधिक सैंपल के तौर पर लालू के परिवार से ताकतवर, धनी और सामाजिक तौर पर सशक्त परिवार से बड़ा उदाहरण क्या होगा, प्रियंका वाड्रा से सशक्त व्यक्ति कौन होगा, लेकिन ये दोनों भी जब बढ़कर चुनाव करते हैं तो हिंदुत्व को गाली देने के तमाम आयामों के बावजूद मिसेज वाड्रा फिर से उसी हिंदुत्व की शरण जाती हैं, यहां तक कि ये भी कहती हैं कि वह 17 वर्ष की अवस्था से व्रत रख रही हैं और उन्हें किसी योगी आदित्यनाथ के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं। तेजस्वी यादव जब प्रेम-विवाह करते हैं तो एक उदाहरण तो पेश करते हैं युवाओं के सामने, अंतर्धार्मिक विवाह कर,लेकिन फिर ढाक के तीन पात। वह रेचल को न केवल हिंदू बनाते हैं, बल्कि यादव ही बनाते हैं।
यानी, जहां परीक्षा की घड़ी आयी, तेजस्वी हों या प्रियंका, भहरा कर गिर जाते हैं।
ओटीटी के पात्र दूसरी ओर एक ऐसे समाज से आते हैं, जो शायद हमारे शीर्ष पर पांच-छह फीसदी परिवारों का समाज हो। भारत का मध्यवर्ग शायद अभी भी उन जड़ों से ही जुड़ा हुआ है, जो लालू प्रसाद के परिवार को भी रेचल का नाम राजेश्वरी करने को मजबूर करते हैं। दूसरी ओर, यह शायद हिंदुत्व की विशालता (या उनींदापन) ही है कि रिजवी त्यागी बनें या रेचल बन जाएं राजेश्वरी, बहुतेरे हिंदुओं को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह एक बिबलियोलेटरस रिलिजन और एक मूर्तिपूजक धर्म का भी अंतर है। इसलिए, आप हिंदुत्व को गालियां चाहे जितनी भी दें, उससे अपना दामन नहीं छुड़ा सकते।