शिरीष खरे की किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ उस भुला दी गयी लेकिन विशाल और त्रासदीग्रस्त दुनिया में पाठक को संस्मरणों के जरिये ले जाती है जिन रास्तों से गुजरते हुए हम और आप तस्वीरें खींचकर ‘ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड’ का स्टेटस सोशल मीडिया पर लगा देते हैं। एक पत्रकार उन जगहों पर ठहरकर देख पाता है कि यही ‘ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड’ दरअसल अन्यायों, तकलीफों, बीमारियों, लूट, चोरी, दोहन, शोषण की एक ऐसी दुनिया है जिससे निजात पाना स्थानीय निवासियों के लिए असंभव बनाया जा रहा है।
शिरीष के ही शब्दों का उपयोग किया जाए तो ‘डीसी या थ्रीसी’ यानी दो कॉलम या तीन कॉलम में इन जगहों की खबरें छपती हैं जिन्हें विज्ञापनों से दबे हुए पृष्ठ में या तो हम देख नहीं पाते या देखकर भी ‘टू डिप्रेसिंग’ मानकर पढ़ते नहीं हैं, जबकि ऐसी खबरों से अखबार पटा होना चाहिए और हर रात की प्राइम टाइम बहस में यही मुद्दे होने चाहिए।
‘पत्रिका’ (राजस्थान पत्रिका) के पत्रकार के रूप में शिरीष ने रायपुर-बस्तर में करीब तीन वर्ष बिताए। इस दौरान उनके संस्मरणों का मेरे लिए और भी अधिक महत्त्व है क्योंकि छत्तीसगढ़ मेरा गृह राज्य है और जिन वर्षों की कहानी शिरीष इस पुस्तक में लिखते हैं, तब मैं मेरे ही राज्य के लाखों युवाओं की तरह कहीं बाहर नौकरी कर रहा था। जब इक्कीस साल पहले हमारा राज्य अस्तित्व में आया था तब मैं कॉलेज में था। मेरे जैसे नौजवानों की आंखों में तब खुशहाली के जो सपने थे वो जल्द ही बर्बाद हो गए। उनकी बर्बादी का एक बड़ा कारण वह है जो ‘एक देश बारह दुनिया’ के छत्तीसगढ़ के हिस्से में बेहद मार्मिक विवरण के साथ लिखा गया है।
पुस्तक: एक देश बारह दुनिया
लेखक: शिरीष खरे
विधा: रिपोर्ताज
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज, 1590, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली-110006
पृष्ठ: 206
कीमत: 295 रुपया
प्रकाशन वर्ष: 2021
यह पुस्तक रिपोर्ताज संकलन भी है ओर साथ ही यात्रा संस्मरण भी। शिरीष ने नर्मदा की यात्रा (परिक्रमा नहीं) की है। ‘एक देश बारह दुनिया’ में नर्मदा नदी की धीमी मौत की सच्चाई है। ‘वे तुम्हारी नदी को मैदान बना जाएंगे’ शीर्षक से लिखी एक कहानी का सच यहां वीभत्स और विकराल रुप में सामने आया है। विकास के नाम पर आदिवासी समाज की साफ-सुथरी, निर्मल जीवनदायी नर्मदा नदी को खत्म किया जा रहा है। जिस नर्मदा जल को पीये बिना तृप्ति नहीं होती थी अब उसमें नहाना भी नहीं सुहाता। आचमन तक में प्रयास कम से कम पानी के इस्तेमाल का होता दिखाई देता है।
राजस्थान की उन तीन महिलाओं की कहानियों को एक दुनिया में शामिल किया गया है जिन्होंने जुल्म से लड़ने के लिए अलग-अलग रास्ते चुने हैं। इंसाफ अलबत्ता तीनों को नहीं मिलता है। महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा, बस्तर और छत्तीसगढ़ के दूसरे हिस्सों से लेकर बाड़मेर राजस्थान के इलाकों में पत्रकार द्वारा की गयी यात्राएं वहां के जनजीवन, संस्कृति के साथ-साथ कठोर यथार्थ, विसंगतियों, मौजूदा और भावी संकटों के साथ-साथ त्रासदियों की बानगी बयां करती हैं।
कमाठीपुरा और नागपाड़ा के जीवन की बहुत अंतरंग झांकियां हैं इस किताब में, उस रहस्यमय रूमान से अलग जो ऐसे इलाकों को लेकर हमारी कल्पनाओं में रहा है या जितना हमने यौनकर्मियों के किस्से-कहानियों से जाना है। किताब में मराठवाड़ा की घुमंतू जनजातियों के जीवन के दृश्य हैं, नट समुदाय, मदारी समुदाय के जीवन को लेखक ने करीब से देखा और उनके बारे में मार्मिक ढंग से लिखा है। जो बंजारे अपनी कला से कभी लोगों का मनोरंजन करते थे आज उनको देश के आम नागरिक के अधिकार भी नहीं हैं।
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा गन्ना उत्पादन के लिए जाना जाता है लेकिन वहां के गन्ना मज़दूरों की सुध कौन लेता है? आज भी उनके साथ गुलामों सा बर्ताव किया जाता है। लेखक का यह सवाल उचित है कि ‘क्या हमारा सिस्टम मजदूर को नागरिक बनने से रोकता है?’
यह पुस्तक एक पत्रकार की है, जो चाहता तो अपने आलेखों को संकलन करके बड़ी आसानी से उन्हें किताब की शक्ल में पिरो सकता था, लेकिन यहां दूरदराज के भारत की असल कहानियों को उजागर करने के लिए नया फार्मेट तैयार किया गया है और नये सिरे से ऐसे रिपोर्ताज लिखे गए हैं जिनकी भाषा साहित्यिक है, लेकिन घटनाओं के विवरण और तथ्यों से प्रेरित हैं। रिपोर्ताज सामान्यत: हिंदी साहित्य से गायब होते जा रहे हैं, बावजूद इसके अच्छे रिपोर्ताज को लेकर एक अरसे से पाठकों की मांग बनी हुई है।
यहां एक पत्रकार रिपोर्ट से बाहर निकलते हुए अपने अनुभव साझा करता है और जो बतौर ग्रामीण मध्यमवर्गीय मानसिकताओं को लिए खुद अपनी प्रतिक्रियाएं भी व्यक्त करता है। इस किताब के स्थलों और पात्रों से परिचित होना अभावग्रस्त भारत के उस रूप से परिचित होना है जो न जाने कब से उपेक्षित है, वंचित है और अपनी पहचान व अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा है। यह एक पत्रकार के अंदर के साहित्यकार की किताब है जिसकी दर्जन भर कथाएं किसी लम्बे शोकगीत की तरह हैं- उदास और गुमनाम। यह किताब यात्रा की तो है, लेकिन ऐसी यात्राओं की किताब है जिन पर हम अक्सर निकलना नहीं चाहते, ऐसी लोगों की किताब जिनको हम देखते तो हैं पहचान नहीं पाते, जिनके बारे में जानते तो हैं मिलना नहीं चाहते!
हितेन्द्र अनंत पुणे स्थित एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत हैं।