पुस्तक अंश: द्विराष्ट्र के सिद्धांत के जनक कौन- जिन्ना या सावरकर?


हाल ही में महात्‍मा गांधी और वीर सावरकर के संदर्भ में उठी बहस के बहाने डॉ. राजू पाण्डेय की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक “सावरकर और गांधी” के कतिपय संपादित अंश आने वाले दिनों में हम आपके लिए प्रस्तुत करने जा रहे हैं। आज यह पहली कड़ी प्रस्‍तुत है।

संपादक

पिछले तीन चार वर्ष से श्री वी डी सावरकर को प्रखर राष्ट्रवादी सिद्ध करने का एक अघोषित अभियान कतिपय इतिहासकारों द्वारा अकादमिक स्तर पर अघोषित रूप से चलाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर भी श्री सावरकर को महिमामण्डित करने वाली पोस्ट बहुत सुनियोजित रूप से यूज़र्स तक पहुंचायी जा रही हैं। अब ऐसा लगता है कि यह अभियान सरकारी स्वीकृति प्राप्त कर रहा है, किंतु जब ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन किया जाता है तब हमें यह ज्ञात होता है कि श्री सावरकर किसी विचारधारा विशेष के जनक अवश्य हो सकते हैं किंतु भारतीय स्वाधीनता संग्राम के किसी उज्ज्वल एवं निर्विवाद सितारे के रूप में उन्हें प्रस्तुत करने के लिए कल्पना, अर्धसत्यों तथा असत्यों का कोई ऐसा कॉकटेल ही बनाया जा सकता है जो नशीला भी होगा और नुकसानदेह भी।

जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया- ”हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो”। सावरकर ने 1941 में हिन्दू महासभा के भागलपुर अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा- ”हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जापान के युद्ध में प्रवेश से हम पर ब्रिटेन के शत्रुओं द्वारा हमले का सीधा और तत्काल खतरा आ गया है। इसलिए हिन्दू महासभा के सभी सदस्य सभी हिंदुओं को और विशेषकर बंगाल और असम के हिंदुओं को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे सभी प्रकार की ब्रिटिश सेनाओं में बिना एक मिनट भी गंवाए प्रवेश कर जाएं।” 

भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने में लगे अंग्रेजों को सावरकर के इस अभियान से सहायता ही मिली। जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1942 में जर्मनी से जापान जाकर आजाद हिंद फौज की गतिविधियों को परवान चढ़ा रहे थे तब सावरकर ब्रिटिश सेना में हिंदुओं की भर्ती हेतु उन मिलिट्री कैम्पों का आयोजन कर रहे थे जिनके माध्यम से ब्रिटिश सेना में प्रविष्ट होने वाले सैनिकों ने आजाद हिंद फौज का उत्तर पूर्व में दमन करने में अहम भूमिका निभायी। प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने हिन्दू महासभा आर्काइव्ज के गहन अध्ययन के बाद बताया है कि ब्रिटिश कमांडर इन चीफ ने हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में प्रवेश हेतु प्रेरित करने के लिए बैरिस्टर सावरकर का आभार व्यक्त किया था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सावरकर ने हिन्दू महासभा के सभी सदस्यों से अपील की थी कि वे चाहे सरकार के किसी भी विभाग में हों (चाहे वह म्यूनिसिपैलिटी हो या स्थानीय निकाय हों या विधान सभाएं हों या फिर सेना हो) अपने पद पर बने रहें, उन्हें त्यागपत्र आदि देने की कोई आवश्यकता नहीं है (महासभा इन कॉलोनियल नॉर्थ इंडिया, प्रभु बापू)। इसी कालखंड में जब विभिन्न प्रान्तों में संचालित कांग्रेस की सरकारें अपनी पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र दे रही थीं तब सिंध, उत्तर पश्चिम प्रांत और बंगाल में हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चला रही थी (सावरकर: मिथ्स एंड फैक्ट्स, शम्सुल इस्लाम)।

आजकल यह भी कहा जा रहा है कि यदि सावरकर नेतृत्वकारी स्थिति में होते तो भारत का विभाजन नहीं होने देते। वस्तुस्थिति यह है कि जिन्ना द्वारा 1939 में द्विराष्ट्र के सिद्धांत के प्रतिपादन के लगभग दो वर्ष पहले ही सावरकर इस आशय के विचार व्यक्त कर चुके थे।

उन्होंने हिन्दू महासभा के 1937 के अहमदाबाद में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष की आसंदी से कहा- ”भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह मानने की गंभीर भूल करते हैं कि भारत पहले से ही एक सद्भावनापूर्ण राष्ट्र बन चुका है या यही कि इस बात की महज इच्छा होना ही पर्याप्त है। हमारे यह सदिच्छा रखने वाले किन्तु अविचारी मित्र अपने स्वप्नों को ही यथार्थ मान लेते हैं। इस कारण वे सांप्रदायिक विवादों को लेकर व्यथित रहते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार मानते हैं, किन्तु ठोस वस्तुस्थिति यह है कि कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय शत्रुता… की ही विरासत है… भारत को हम एक एकजुट (Unitarian) और समरूप राष्ट्र के तौर पर समझ नहीं सकते, बल्कि इसके विपरीत उसमें मुख्यतः दो राष्ट्र बसे हैं: हिंदू और मुस्लिम।” (समग्र सावरकर वाङ्गमय, हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिन्दू सभा पूना, 1963, पृष्ठ 296)

इसके बाद 1938 के नागपुर अधिवेशन में उन्होंने पुनः कहा:

जो मूल राजनीतिक अपराध हमारे कांग्रेसी हिंदुओं ने इंडियन नेशनल कांग्रेस आंदोलन की शुरुआत में किया और जो अभी भी वे लगातार करते आ रहे हैं वह है टेरीटोरियल नेशनलिज्म की मरु मरीचिका के पीछे भागना और इस निरर्थक दौड़ में आर्गेनिक हिन्दू नेशन को बाधा मानकर उसे कुचलना।

1937 में सावरकर ने द्विराष्ट्र सिद्धांत की स्पष्ट सार्वजनिक अभिव्यक्ति की किन्तु इसके बीज तो उनके द्वारा 1923 में रचित ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक में ही बड़ी स्पष्टता से उपस्थित थे।

जिन्ना और उनके सहयोगी द्विराष्ट्र के सिद्धांत का जहर भारतीय समाज में फैलाने और देश के विभाजन हेतु अवश्य ही उत्तरदायी हैं, किंतु देश के बंटवारे में सावरकर के विचारों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। संघ परिवार द्वारा स्वीकृत और प्रशंसित इतिहासकार आर सी मजूमदार लिखते हैं- ”साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार एक बड़ा कारक… हिन्दू महासभा थी… जिसका नेतृत्व महान क्रांतिकारी नेता वी डी सावरकर कर रहे थे।” (स्ट्रगल फ़ॉर फ्रीडम, भारतीय विद्या भवन, 1969, पृष्ठ 611)

आम्बेडकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1946) में सावरकर के द्विराष्ट्र सिद्धांत और अखंड भारत की उनकी अवधारणा के छद्म को उजागर किया है। आंबेडकर लिखते हैं- ”वे चाहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र प्रधान राष्ट्र हो और मुस्लिम राष्ट्र इसके अधीन सेवक राष्ट्र हो। यह समझ पाना कठिन है कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के बीच शत्रुता का बीज बोने के बाद श्री सावरकर यह इच्छा क्यों कर रहे हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक संविधान के अधीन एक देश में रहना चाहिए।” (पृष्ठ 133-134)

15 अगस्त 1943 को सावरकर ने नागपुर में कहा- ”मेरा श्री जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है। हम हिन्दू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं।” (निरंजन टाकले द्वारा उद्धृत द वीक, अ लैम्ब लायनाइज़ड, 24 जनवरी 2016)। इसी आलेख में निरंजन, सावरकर और तत्कालीन वाइसराय लिनलिथगो की मुंबई में 9 अक्टूबर 1939 को हुई मुलाकात का उल्लेख करते हैं जिसके बाद लिनलिथगो ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया लार्ड ज़ेटलैंड को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें लिखा गया था- ”सावरकर ने कहा स्थिति अब यह है कि महामहिम की सरकार हिंदुओं की ओर उन्मुख हो और उनके सहयोग से कार्य करे।” सावरकर के अनुसार अब हमारे हित एक जैसे थे और हमें एक साथ कार्य करना आवश्यक था। उन्होंने कहा- ”हमारे हित परस्पर इतनी नजदीकी से जुड़े हुए हैं कि हिंदुइज्म और ग्रेट ब्रिटेन के लिए मित्रता जरूरी है और पुरानी शत्रुता अब महत्वहीन हो गयी है।”

एक ऐतिहासिक प्रसंग और है जो सावरकर की पसंद और प्राथमिकताओं को दर्शाता है। यह भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक परिदृश्य के सबसे विवादित व्यक्तित्वों में से एक सी पी रामास्वामी से संबंधित है। अतिशय महत्वाकांक्षी, स्वेच्छाचारी, सिद्धांतहीन, अधिनायकवादी चिंतन से संचालित और पुन्नापरा वायलार विद्रोह के बर्बर दमन के कारण जनता में अलोकप्रिय सी पी रामास्वामी ने 18 जून 1946 को त्रावणकोर के महाराजा को अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित करने के लिए दुष्प्रेरित किया। सी पी रामास्वामी ने इसके बाद पाकिस्तान के लिए अपना प्रतिनिधि भी नियुक्त कर दिया। 20 जून 1946 को सी पी रामास्वामी को जिन्ना का तार मिला जिसमें उन्होंने सी पी के कदम की प्रशंसा की थी, किंतु इसी दिन एक और तार उन्हें प्राप्त हुआ। शायद वे इसकी अपेक्षा भी नहीं कर रहे थे। यह तार था सावरकर का, जिसमें उन्होंने हिन्दू राज्य त्रावणकोर की स्वतंत्रता की घोषणा के दूरदर्शितापूर्ण और साहसिक निर्णय के लिए सी पी की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। (अ नेशनल हीरो, ए जी नूरानी, फ्रंटलाइन, वॉल्यूम 21, इशू 22, अक्टूबर 23 से नवंबर 5, 2004)

मनु एस पिल्लई ने उल्लेख किया है कि सावरकर ने 1944 में जयपुर के राजा को लिखे एक पत्र में हिन्दू महासभा की रणनीति का खुलासा करते हुए बताया कि हिन्दू महासभा कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और मुसलमानों से हिन्दू राज्यों के सम्मान, स्थिरता और शक्ति की रक्षा के लिए हमेशा उनके साथ खड़ी है। सावरकर ने लिखा कि हिन्दू राज्य हिन्दू शक्ति के केंद्र हैं और इसलिए वे स्वाभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सहायक होंगे। राजाओं ने सावरकर के विचारों पर एकदम अमल तो नहीं किया, किन्तु उनके विचारों से सहमति व्यक्त की और अनेक राजाओं के साथ हिन्दू महासभा की बैठकें भी हुईं। ये बैठकें मैसूर और बड़ोदा जैसे आधुनिक और विकसित रियासतों के साथ भी हुईं, किंतु हिन्दू महासभा को खूब समर्थन परंपरावादी रियासतों से ही मिला। (सावरकर्स थ्वार्टेड रेशियल ड्रीम, 28 मई 2018, लाइव मिंट)।

मनु एस पिल्लई ने 1940 में सावरकर के उनके छद्म नाम (एक मराठा) से प्रकाशित एक आलेख का उल्लेख किया है जिसमें सावरकर ने लिखा था:

यदि गृहयुद्ध की स्थिति बनी तो हिन्दू रियासतों में सैनिक कैम्प तत्काल उठ खड़े होंगे। इनका विस्तार उत्तर में उदयपुर और ग्वालियर तक और दक्षिण में मैसूर और त्रावणकोर तक होगा। तब दक्षिण के समुद्र और उत्तर की यमुना तक मुस्लिम शासन का लेशमात्र भी नहीं बच पाएगा। पंजाब में सिख लोग मुसलमान जनजातियों को खदेड़ देंगे और स्वतंत्र नेपाल हिन्दू विश्वास के रक्षक तथा हिन्दू सेनाओं के कमांडर के रूप में उभरेगा। नेपाल हिंदुस्थान के हिन्दू साम्राज्य के राजसिंहासन के लिए भी दावेदार बन सकता है।

सावरकर्स थ्वार्टेड रेशियल ड्रीम, 28 मई 2018, लाइव मिंट

इन राजाओं की रुचि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में कम और अपनी शानो शौकत तथा ऐशो आराम भरे जीवन को जारी रखने में अधिक थी तथा ये ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त करने के ज्यादा इच्छुक थे। इन राजाओं की रियासतों के छोटे आकार, आपसी बिखराव और जनता में इनकी अलोकप्रियता के कारण हिन्दू राष्ट्र निर्माण का सावरकर का सपना साकार नहीं हो पाया।



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