हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के विलक्षण पैरोकार और महत् आकांक्षी बांग्ला कवि-लेखक काजी नज़रुल इस्लाम आधुनिक बांग्ला काव्य एवं संगीत के इतिहास में निस्संदेह एक युग प्रवर्तक थे। प्रथम महायुद्ध के उपरांत आधुनिक बांग्ला काव्य में रवीन्द्र काव्य को एकमात्र परिष्कृत विद्यत्व और चेतना की देन माना जाता है। रवींद्र काव्य मानवीयता, विश्वबंधुत्व का प्रणेता और सामाजिक विसंगतियों से उबरने की संभ्रांत चेतना का संवाहक है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के बाद 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में केवल काजी नज़रुल इस्लाम ही एक निर्भीक और सशक्त रचनाकार रहे हैं।
ध्यातव्य है कि गुरुदेव के पश्चात साहित्य और संगीत की युगलबंदी में जिन प्रख्यात कवियों और साहित्यकारों ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, उनमें काज़ी नज़रुल का नाम सर्वोपरि है। नजरुल ने लगभग 4,000 गीतों की रचना की तथा कई गानों को आवाज दी। जिन्हें ‘नजरुल संगीत’ या ‘नजरुल गीति’ नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि यद्यपि काजी नज़रुल इस्लाम को अंग्रेजी साहित्य का उतना प्रगाढ़ ज्ञान नहीं था, तथापि उनकी अंतश्चेतना इतनी विलक्षण थी कि अंग्रेजी का अल्पबोध होते हुए भी अंग्रेजी के कई पुराने कवियों की रचनाओं के बरक्स उनकी रचनाएं रखी जा सकती हैं। उनमें काव्य का एक नूतन सौष्ठव एवं स्वरूप झांकता है। विविध भाषाओं के इंद्रधनुषी आकाश में बांग्ला साहित्य का अवदान संभवत: सर्वाधिक वैशिष्ट्यपूर्ण और सुपठित है। यहां यह कहना उचित होगा कि भारतीय वांगमय उस महासागर की तरह विस्तीर्ण और अथाह है जिसमें अनेक नाले-नदियां अपने अस्तित्व को भुलाकर एक साथ विलीन हो जाते हैं और एक नवीन रूप सृजित हो जाता है।
कहा जा सकता है कि नज़रुल के जीवनदर्शन और प्रतिभा से 20वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में साहित्य और संगीत के मेलजोल से एक नए इतिहास की रचना का मार्ग प्रशस्त हुआ। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गीतों की बृहत व्याप्ति है।
नजरुल का जन्म 24 मई, 1899 को पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में आसनसोल के निकट चुरुलिया गांव में एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा धार्मिक (मजहबी) शिक्षा के रूप में हुई। इनके पिता काजी फकीर अहमद मस्जिद में इमाम थे और मां जाहिदा खातून एक घरेलू महिला। दस वर्ष की अल्पवय में ही पिता का साया सर से उठ गया। तब नज़रुल ने उसी मस्जिद में म्युज़िन (अज़ान देने वाला) का कार्य संभाला। उन्होंने ग्रामीण नाट्य समूह ‘लेटो’ दल के साथ काम करते हुए कविता, नाटक और साहित्य के बारे में सीखा। ‘लेटो’ पश्चिम बंगाल का लोक गीत शैली है, जो आमतौर पर उस क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा किया जाता है (उस क्षेत्र का लोक उत्सव है)। तदनंतर किशोरावस्था में विभिन्न थिएटर समूहों के साथ काम करते-करते उन्होंने कविता, नाटक एवं साहित्य का अध्ययन किया।
उनके चाचा फजले करीम एक संगीत मंडली (नाटक कंपनी) के साथ थे। वह मंडली पूरे बंगाल में घूमती और शो करती थी। नज़रुल ने मंडली के लिए गाने लिखे। इस दौरान नज़रुल ने बांग्ला भाषा को लिखना सीखा। 1910 में उन्होंने नाटक कंपनी छोड़ दी और सिअरसोल राज हाई स्कूल, रानीगंज, आसनसोल में प्रवेश ले लिया। वहां जुगांतर से संबद्ध शिक्षक निबारनचंद्र घटक के प्रभाव में आए। इसके बाद वह माथरुन हाई इंगलिश स्कूल में प्रविष्ट हुए। यहां विद्वान कवि कुमुदरंजन मलिक के संपर्क में आए। यहां उनकी साहित्यिक रुचि विकसित हुई। लेकिन पारिवारिक कारणों से वह आगे पढ़ाई जारी नहीं रख पाए। और वह लोक कलाकारों के एक समूह ‘कावियाल्स’ से जुड़ गए। इसके बाद उन्होंने 1914 में दरियापुर स्कूल में प्रवेश ले लिया। जहां संस्कृत, बांग्ला, फारसी और अरबी भाषा सीखी जिसके बाद कभी बांग्ला, तो कभी संस्कृत में पुराण पढ़ने लगे। आगे इसका असर उनके लेखन में भी नजर आने लगा। उन्होंने पौराणिक कथाओं पर आधारित ‘शकुनी का वध’, ‘युधिष्ठिर का गीत’, ‘दाता कर्ण’ जैसी नाटक लिखे। काली, शिव और कृष्ण पर भजन भी लिखे। मुझे लगता है कबीर के अलावा नज़ीर अकबराबादी के बाद हिंदू मिथकों और प्रतीकों पर साहित्य रचना करने वाले वह संभवतः अकेले आधुनिक और बड़े कवि हैं। सूफी परंपरा का प्रभाव भी उनपर अवश्य था। खुसरो, रूमी, फिरदौसी को भी उन्होंने पढ़ा था।
नज़रुल 1917 में ब्रिटिश-इंडियन आर्मी में भर्ती हो गए। उनकी तैनाती कराची छावनी में हुई। यहां वह कराची के स्थानीय कवियों के संपर्क में आए और पठन-पाठन पर अधिक समय दे सके। इसी समय बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित हुए और साम्यवादी विचारों प्रति आकर्षित हुए। 1919 में उनकी एक कविता पुस्तक ‘मुक्ति’ और एक गद्य की पुस्तक ‘बौंदुलेर आत्मकहिनी’ प्रकाशित हुई। सेना में रहकर अंग्रेजों के औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी चरित्र को उन्होंने समझा और 1920 में सेना से त्यागपत्र दे दिया। बंगाल वापस लौटकर वह बंगाली मुस्लिम लिटरेरी सोसाइटी से जुड़ गए। इसी वर्ष उनका उपन्यास ‘बंधनहारा’ (बंधन-मुक्ति) आया। 12 अगस्त 1922 को उन्होंने अपनी पत्रिका ‘धूमकेतु’ प्रकाशित की जिसमें स्वतंत्रता के पक्ष में क्रांतिकारी साहित्य छपता था। तभी उनकी सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण कविता ‘बिद्रोही’ प्रकाशित हुई। इस कारण ब्रिटिश शासन ने उनपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया।
विद्रोही कविता की कुछ पंक्तियां देखें –
मैं महाविद्रोही अक्लांत
उस दिन होऊंगा शांत
जब उत्पीड़ितों का क्रंदन शोक
आकाश वायु में नहीं गूंजेगा
जब अत्याचारी का खड्ग
निरीह के रक्त से नहीं रंजेगा
मैं विद्रोही रणक्लांत
मैं उस दिन होऊंगा शांत
पर तब तक
मैं विद्रोही दृढ बन
भगवान के वक्ष को भी
लातों से देता रहूंगा दस्तक
तब तक
मैं विद्रोही वीर
पी कर जगत का विष
बन कर विजय ध्वजा
विश्व रणभूमि के बीचों-बीच
खड़ा रहूंगा अकेला
चिर उन्नत शीश
मैं विद्रोही वीर..
इसके पश्चात नज़रुल ‘बिद्रोही कोबी’ के नाम से पहचाने जाने लगे। कविता ‘विद्रोही’ काफी लोकप्रिय हुई, जिसने उन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि दी। कविता में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बागी तेवर थे। इस कविता का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। अतः ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में वह हमेशा ही गड़ते रहे। 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में बंगाल में केवल वही एक सशक्त एवं निर्भीक कवि थे। अतः 23 जनवरी 1923 को उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। इसी वर्ष अप्रैल में जेल सुपरिंटेंडेंट के अभद्र व्यवहार और अशालीन भाषा के प्रतिरोध में उन्होंने 40 दिनों का उपवास किया। गांधी का प्रभाव रहा होगा। उसी वर्ष
दिसंबर में वे जेल से बाहर आ गए। 1924 में उनकी एक और पुस्तक ‘बिषेर वंशी’ प्रकाशित हुई। यह पुस्तक भी अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दी। इसके बाद उन्होंने ‘श्रमिक प्रजा स्वराज दल’ नाम से एक समाजवादी राजनीतिक पार्टी बनाई और साम्राज्यवादी- दमनकारी अंग्रेजी सत्ता के विरोध में वे चेतना फैलाने का काम सक्रिय रूप से करने लगे। 25 अप्रैल 1925 को काजी नज़रुल इस्लाम ने एक हिंदू लड़की प्रमिला देवी से शादी कर ली, जिसका काफी विरोध हुआ था। प्रमिला ब्रह्म समाज से आती थीं। मुस्लिम मजहब के ठेकेदारों ने नज़रुल से कहा कि प्रमिला को धर्मपरिवर्तन करना होगा लेकिन नज़रुल ने एकदम मना कर दिया। इसी समय उन्होंने लांगल नाम से एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया। 1926 में वे परिवार सहित कृष्णानगर में रहने लगे। 1927 में उनका बांग्ला गजलों का प्रथम संग्रह आया। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अनेक मौलिक एवं अनूदित साहित्यिक रचनाओं जैसे-उपन्यास, लघुकथा, नाटक, निबंध, अनुवाद और पत्रकारिता आदि का सृजन किया। उन्होंने बाल साहित्य भी लिखा। वे कुशल गायक व अभिनेता भी रहे। बांग्ला फिल्म ‘ध्रुव भक्त के डायरेक्टर और रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा’ पर आधारित फिल्म के संगीत निर्देशक भी बने। 1928 में वे संगीत की सुप्रसिद्ध कंपनी एचएमवी के साथ जुड़ गए। उसके बाद उनके गीत राष्ट्रीय रेडियो पर प्रसारित होने लगे। 1930 में उनकी पुस्तक ‘प्रलय शिक्षा’ आई। पुनः उनपर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ और किताब प्रतिबंधित कर दी गई। तीन वर्ष बाद 1933 में उनका एक निबंध संग्रह ‘मॉडर्न वर्ल्ड लिटरेचर’ भी आया।
1939 में वह कलकत्ता रेडियो में आ गए। तभी उनकी पत्नी प्रमिला देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं। उनके इलाज के लिए नज़रुल ने अपनी किताबों के कॉपीराइट तक बेच दिए। उधारी बढ़ गई। वे गंभीर आर्थिक संकट में आ गए जिससे वह कभी उबर नहीं सके। गरीबी पर लिखी उनकी एक कविता में उनकी यह बेबसी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उसकी कुछ पंक्तियां हैं –
गरीबी सर्वाधिक असह्य वस्तु है
जो घर में मुझसे, मेरी पत्नी और बच्चों से
रोज मिलती है।
इन परिस्थितियों के चलते 1940 में वे गहन अवसाद से ग्रस्त हो गए। दो वर्ष बाद उनकी स्थित और गंभीर हो गई। दुर्योग से 1942 में 43 वर्ष की आयु में वह अपनी आवाज़ और याददाश्त खोते हुए एक अज्ञात बीमारी से पीड़ित होने लगे। यह देखकर 1950 में उनके प्रशंसकों और समर्थकों के एक समूह ने उन्हें योरोप भिजवाने की व्यवस्था की। वह पत्नी सहित लंदन और फिर आस्ट्रिया गए। वहां वियना में डॉ हेंस हॉफ के साथ एक मेडिकल टीम ने उनमें ‘पिक्स डिसीज नामक’ बीमारी का पता लगाया। यह एक दुर्लभ और लाइलाज न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारी थी। जिसमें याददाश्त खोने के साथ-साथ बोलने पर भी प्रभाव पड़ता है और बोलने की शक्ति चली जाती है। 15 अगस्त 1953 को वह वापस कलकत्ता लौट आए। नज़रुल के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आती जा रही थी। बीमारी के कारण वे अलग-थलग पड़ गए और अलगाव में रहने के लिए विवश हो गए। उनकी ऐसी मानसिक हालत के कारण उन्हें रांची (झारखंड) मनोरोग अस्पताल में भी भर्ती कराया गया। कई वर्षों तक वहऻ रहे लेकिन उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। इसके बाद उनका जीवन बहुत कष्टप्रद रहा। उनकी पत्नी उनकी देखभाल करती रहीं। 1962 में प्रमिला देवी की मृत्यु हो गई। यह बहुत पीड़ादायक था। अगले दस वर्ष इसी दुख और पीड़ा में बीते। लेकिन इन सब परेशानियों बावजूद यह तो स्पष्ट है कि उनका इतिहास गौरवशाली था। समाज में चेतना प्रसार और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उनका अवदान चिरस्मरणीय रहेगा। साहित्य में तो वह अग्रणी पंक्ति में थे ही।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नज़रुल की राष्ट्रवादी सक्रियता और क्रांतिकारी साहित्य सृजन ही औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उनके लगातार कारावास का कारण बने। जेल में रहते हुए ही नज़रुल ने “राजबन्दीर जबनबन्दी” (“राधारमण”, ‘एक राजनीतिक कैदी का बयान’) लिखा था। दृष्टव्य है, उनके लेखन ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान वहां के मुक्ति संघर्ष को प्रेरित किया। नज़रुल ने अपने लेखन में स्वतंत्रता, मानवता, प्रेम, और क्रांति जैसे विषयों को मुख्य आधार बनाया। उन्होंने कट्टरता और रूढ़ियों का विरोध किया। नज़रुल जीवनपर्यन्त राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के मजबूत आधार-स्तंभ बने रहे। साम्यवाद में उनकी अटूट आस्था थी लेकिन उन्हें अहसास था कि धर्मभीरु जन इस रोग से मुक्त होने में असमर्थ हैं। इसलिए धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध और सौहार्द एवं सद्भाव के पक्ष में वह सृजनशील भी रहे और सक्रिय भी रहे।
उनकी कविता ‘साम्यवादी’ की पंक्तियां हैं –
गाता हूं साम्यता का गान
जहां आकर एक हो गए
सब बाधा व्यवधान
जहां मिल रहे हैं हिंदू-बौद्ध-मुस्लिम-ईसाई
गाता हूं साम्यता का गान…
द्वितीय महायुद्ध के उपरांत नज़रुल के साहित्य का बृहत् पठन-पाठन आरंभ हुआ। तब तक वह बीमारी के गिरफ्त में आ चुके थे। नज़रुल के साहित्य को पढ़ने के बाद यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि काव्य में मुक्ति, विद्रोह, लैंगिक समानता, सांप्रदायिक सौहार्द और प्रेम आपस में पूरी तरह गुंथे हुए हैं। इसके लिए वे धार्मिक प्रतीकों, मिथकों और मान्यताओं को अपने ढंग से अपनाते हैं। स्त्री समानता पर वह न केेेेवल वैचारिक प्रतिबद्धता और व्यवहारगत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं अपितु
कविता इस तरह लिखते हैं, कि कृष्ण को चुनौती देते हुए कहते हैं कि ‘अगर तुम राधा होते’ तो वह महसूस करते जो एक स्त्री राधा के रूप में महसूस करती है। उनकी एक कविता से –
अगर तुम राधा होते श्याम
मेरी तरह बस आठों पहर तुम,
रटते श्याम का नाम
वन-फूल की माला निराली
वन जाति नागन काली
कृष्ण, प्रेम की भीख मांगने
आते लाख जनम
तुम, आते इस बृजधाम
उन्होंने बंगाली भाषा में ग़ज़ल को भी समृद्ध किया। एक पुस्तक भी आई। उन्हें अपने कार्यों में अरबी और फारसी शब्दों के व्यापक उपयोग के लिए भी जाना जाता है। इसपर गुरुदेव को भारी आपत्ति भी रही। ‘रक्तो’ की जगह ॱखून’ का प्रयोग उन्हें बहुत नागवार गुजरा। यह विडंबना रही कि नज़रुल इस्लाम के साहित्य और संगीत के संदर्भ में तत्त्वमूलक और तथ्यपूर्ण विस्तृत मूल्यांकन नहीं हो सका इस क्षेत्र में बहुत थोड़े-से आलोचकों ने ध्यान दिया। यह खेद का विषय है कि उनकी समस्त आलोचनाएं प्राय: एकांगी रहीं। वे युक्तिसंगत नहीं थीं। उनके अत्यंत निकटस्थ मित्रों ने उनके बारे में कुछ समीक्षाएं अवश्य छपवाई। बीच-बीच में ऐसे कुछ मोड़ आए जहां उनका काव्य और संगीत अपने प्रकृत स्वरूप को खो बैठा। लयह उन्होंने जानबूझकर भी किया। दरअसल कंटेंट उनके लिए महत्वपूर्ण था फॉर्म गौण। इस सबके बावजूद नज़रुल बांग्ला भाषा के अन्यतम श्रेष्ठ सामाजिक चेतना के कवि रहे। नज़रुल की संपूर्ण रचनाओं का कहीं भी कोई ब्योरा तिथिवार नहीं मिलता। लेकिन यदि किसी को नज़रुल की संपूर्ण रचनाओं का विधिवत अध्ययन करना हो तो उसे पश्चिमी बंगाल में स्थित बालीगंज के पुस्तकालय को अवश्य देखना चाहिए। इसी पुस्तकालय में उनकी संपूर्ण रचनाएं संभालकर रखी हुई हैं।
हिंदी में उनपर बहुत कम लिखा गया। उनकी मृत्यु के उपरांत 1976 में कवि विष्णुचंद्र शर्मा की उनके जीवन पर एक किताब ‘अग्निसेतु’ नाम से आई। एक जन गीतकार एवं सुर-साधक के रूप में भी नज़रुल सर्वोच्च स्थान के अधिकारी हैं। 1972 में बांग्लादेश सरकार के निमंत्रण पर नज़रुल का परिवार उन्हें ढाका, बांग्लादेश ले गया। वहां ससम्मान उन्हें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश की नागरिकता प्रदान की गई। उन्हें बांग्लादेश ने ‘राष्ट्रकवि’ घोषित किया। चार साल बाद 29 अगस्त 1976 को बांग्लादेश में उनकी मृत्यु हो गई। वहां उनकी इच्छानुसार उन्हें ढाका विश्वविद्यालय के सामने दफनाया गया।