मोदी सरकार की “ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस” नीति के तहत केंद्रीय वन, पर्यावरण एव जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा 28 जून 2022 को वन सरंक्षण अधिनियम 1980 के नियम में संशोधन किया है। नियमों में संशोधन के अनुसार वन जमीन को निजी पूंजी-कंपनियों के लिए डायवर्जन के सम्बन्ध में त्वरित कार्यवाही की जाएगी। इस प्रक्रिया में राज्य सरकार तथा संवैधानिक ग्रामसभा की भूमिका लगभग नगण्य कर दी गई है। वन भूमि के डायवर्जन के संबंध में संघीय सरकार का अधिकार सर्वोपरि बना दिया गया है।
यह संशोधन देश के आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों के साथ हुए “ऐतिहासिक अन्याय’ को सुधारने के लिए तथा औपनिवेशिक वन प्रशासन को ग्रामसभा के ज़रिये लोकतांत्रिक करने की दिशा में लाए गए “वन अधिकार मान्यता कानून 2006” को सिरे से खारिज़ करता है एवं वन विभाग के हाथ मे असीम क्षमता देते हैं।
निजी पूंजी को सहूलियत देने के लिए कानूनों-नियमों में परिवर्तन कर लोकतांत्रिक कानूनों-नियमों को न्यून या खारिज़ कर देना ही मोदी सरकार का “मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस” की नीति है।
वैसे भी वन अधिकार मान्यता कानून को लागू किए 15 वर्ष हो चुके हैं। इसके प्रभावी क्रियान्वयन से देश के लगभग 1,77,000 गांवों में स्थित सभी वन क्षेत्र (400 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा) ग्रामसभा के अधीन हो जाना था, लेकिन सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र का सिर्फ 3-5 प्रतिशत वन क्षेत्र ही ग्रामसभा के नाम से हो पाया है। इसके विपरित कोविड के समय देश में लगभग 5 लाख वन अधिकार के दावों को गैरकानूनी रूप से खारिज़ कर दिया गया।
वर्ष 2008 से 2019 तक विभिन्न परियोजनाओं के लिए लगभग 2,53,179 हेक्टेयर वन जमीन का डायवर्जन किया गया तथा 47,500 हेक्टेयर जमीन को वनीकरण के नाम से गैर-कानूनी रूप से ग्रामसभा की सहमति बिना ही हस्तांतरित कर दिया गया। यहां तक कि कानूनी रूप से हस्तांतरित वन क्षेत्र का “नेट-प्रेजेंट वैल्यू”, जो प्रति हेक्टेयर 10.69 लाख से 15.95 लाख है, वह राशि ग्रामसभा को हस्तांतरित नहीं की गई।
अब इन संशोधित नियम {नियम 9 (6)(b)(ii)} से संघीय सरकार को सर्वोपरि एवं निरंकुश बनाते हुए पेसा कानून 1996 एवं वन अधिकार मान्यता कानून 2006 को पूरी तरह खारिज़ कर दिया है। यहां तक कि नियम {9( 4)(a)} के तहत 5 हेक्टर के न्यून वनक्षेत्र के डायवर्जन में जांच के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया जबकि वह वन क्षेत्र जो वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं, जैसे छत्तीसगढ़ में “राजस्व वन, बड़े झाड़-छोटे झाड़” इत्यादि के लिए जिला कलेक्टर एवं डीएफओ को संयुक्त जांच के लिए अधिकृत हैं।
संशोधित नियम 9(4)(f) के अनुसार पेट्रोलियम या माइनिंग लीज के लिए प्रोस्पेक्टिंग लाइसेंस के लिए कोई स्वीकृति की ज़रूरत नहीं है।
नियम 9(5)(a) इत्यादि वन अधिकार मान्यता कानून, पेसा कानून तथा वन क्षेत्र को परिभाषित करते हुए 1996 में माननीय सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गए आदेश के विपरीत है।
मोदी द्वारा इन नियमों के संशोधन के जरिये वन क्षेत्र का मौद्रीकरण (मॉनिटाइज) करते हुए निजी पूंजी के हाथ में निर्विवाद रूप से सुपुर्द करने की मंशा है जो संविधान, आदिवासी एवं अन्य वन निवासियों के कानूनी अधिकारों की कुचलते हुए लागू की जाएगी।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन छत्तीसगढ़ के आदिवासी तथा अन्य वन निवासियों के संगठनों एवं राज्य सरकार से आग्रह करता है कि ऐसे निरंकुश कारपोरेटपरस्त जन-विरोधी गैर-कानूनी नियम के विरुद्ध संसद से सड़क तक आवाज उठाएं। आदिवासी आंदोलनों से विशेष आग्रह है कि 9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर ऐसे जन विरोधी, आदिवासी विरोधी नियमों को तुरंत खारिज करने के लिए प्रमुखता से अपनी आवाज़ बुलंद करें।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन पूरे प्रदेश में एवं देश के अन्य जनवादी संगठनों के साथ मिलकर इन संशोधनों के खिलाफ व्यापक जमीनी आंदोलन शुरू करेगा।
भवदीय
संयोजक मंडल सदस्य
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन
सुदेश टेकाम
मनीष कुंजाम
बेला भाटिया
नंदकुमार कश्यप
विजय भाई
शालिनी गेरा
रमाकांत बंजारे
आलोक शुक्ला
जिला किसान संघ राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मजदूर कार्यकर्त्ता समिति), आखिल भारतीय आदिवासी महासभा, जन स्वास्थ कर्मचारी यूनियन, भारत जन आन्दोलन, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (कोरबा, सरगुजा), माटी (कांकेर), अखिल भारतीय किसान सभा (छत्तीसगढ़ राज्य समिति), छत्तीसगढ़ किसान सभा, किसान संघर्ष समिति (कुरूद), दलित आदिवासी मंच (सोनाखान), गाँव गणराज्य अभियान (सरगुजा), आदिवासी जन वन अधिकार मंच (कांकेर), सफाई कामगार यूनियन, मेहनतकश आवास अधिकार संघ (रायपुर), जशपुर जिला संघर्ष समिति, राष्ट्रीय आदिवासी विकास परिषद् (छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर), जशपुर विकास समिति, रिछारिया कैम्पेन, भूमि बचाओ संघर्ष समिति (धरमजयगढ़)