तीन दिन से जारी है मारुति के मजदूरों का दमन, प्रशासन ने नहीं माना कोर्ट का आदेश


गुरुग्राम, 31 जनवरी

आज तीसरे दिन मारुति के अस्थायी श्रमिकों के खिलाफ प्रशासन की कार्रवाई जारी रही। सैकड़ों श्रमिक सुबह डीसी कार्यालय पर शांतिपूर्वक एकत्र हुए थे। वे मारुति सुजुकी अस्थायी मजदूर संघ की समिति के सदस्यों, श्रम अधिकारियों और कंपनी प्रबंधन के साथ त्रिपक्षीय बैठक के लिए आए थे, जो 10 जनवरी को श्रम विभाग, गुरुग्राम में प्रस्तुत चार्टर ऑफ डिमांड्स पर चर्चा के लिए बुलाई गई थी।

पुलिस ने सूचित किया कि गुरुग्राम में धारा 144 लागू कर दी गई है और बड़ी संख्या में पुलिसबल ने श्रमिकों को डीसी कार्यालय के गेट से उठाना और खदेड़ना शुरू कर दिया। श्रमिक अदालत परिसर के अंदर एक पार्क में एकत्र हुए, लेकिन वहां भी पुलिस कार्रवाई जारी रही। फिर वे गुरुग्राम के कमला नेहरू पार्क में इकट्ठा हुए, लेकिन वहां भी पुलिसबल पहुंच गया। यह सिलसिला अब गुरुग्राम के विभिन्न स्थानों पर चल रहा है।

करीब 100 श्रमिकों को मानेसर पुलिसलाइन ले जाया गया है, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि कुल कितने श्रमिकों को हिरासत में लिया गया है। समिति के सदस्यों में से खुशीराम और सुरेंद्र दहिया को पुलिस ने हिरासत में लेकर राजेंद्र पार्क पुलिस स्टेशन भेज दिया। संभवतः उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं। 13 समिति सदस्यों में से केवल एक ही त्रिपक्षीय बैठक में शामिल हो सका क्योंकि बाकी या तो गिरफ्तार कर लिए गए, हिरासत में ले लिए गए या उन्हें वहां से भगा दिया गया। लगातार हो रही पुलिस कार्रवाई के कारण बैठक जारी रखना संभव नहीं था। 

मारुति सुजुकी के अस्थायी श्रमिकों ने पिछले तीन दिनों में मानेसर और गुरुग्राम में पुलिस कार्रवाई के बावजूद असाधारण साहस और संकल्प दिखाया और पीछे हटने से साफ इनकार कर दिया। प्रबंधन और पुलिस-प्रशासन लंबे समय से चल रही इस कार्रवाई के बावजूद श्रमिकों को डराने और उनके संघर्ष को रोकने में सफल नहीं हो पा रहे हैं।



दो दिन पहले मानेसर तहसील धरनास्थल से करीब 100 श्रमिकों को पुलिस ने उठा लिया था और उन्हें 25 किलोमीटर दूर छोड़ दिया। जब श्रमिक मानेसर लौट रहे थे, तो पुलिस ने उन्हें फिर से रोक दिया। पुलिस ने तंबू, बैनर, बर्तन, भोजन और श्रमिकों की व्यक्तिगत वस्तुएं जब्त कर ली थीं। गुरुवार को धारा 144 लागू होने के बावजूद “मानेसर चलो” के आह्वान पर हजारों अस्थायी श्रमिक मानेसर तहसील में एकत्र होने लगे। भारी पुलिसबल ने अलग-अलग स्थानों से श्रमिकों को हिरासत में लेना शुरू कर दिया। रात तक 76 श्रमिक हिरासत में लिए जा चुके थे जबकि अन्य को पुलिस बसों से धरनास्थल से दूर भेज दिया गया। इसके बावजूद श्रमिक फिर लौट आए और गुरुग्राम और मानेसर में विभिन्न स्थानों पर उन्‍होंने रात बिताई।

29 और 30 जनवरी को हरियाणा पुलिस द्वारा मानेसर तहसील को घेर लिए जाने के बाद दो दिन तक आइएमटी मानेसर में व्यापक अराजकता का माहौल रहा। यह वह जगह थी जहां मारुति सुजुकी के अस्थायी कर्मचारियों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और मार्च का आह्वान किया था। इस प्रदर्शन में कर्मचारियों को छोटी अवधि के लिए काम पर रखने, ‘हायर एंड फायर’ की प्रणाली को चुनौती दी जा रही थी। अस्थायी कर्मचारियों के लिए स्थायी नौकरी, स्थायी कर्मचारियों के समान वेतन और अन्य सुविधाओं की मांग की गई थी। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर बेतहाशा दमन से पता चलता है कि मारुति सुजुकी प्रबंधन को अपनी नीतियों के बारे में किसी भी सवाल से कितना खतरा महसूस होता है। इस घटनाक्रम ने कंपनी और स्थानीय प्रशासन के बीच मिलीभगत को भी उजागर किया।

कार्यक्रम में आने वाली भीड़ को रोकने के लिए प्रशासन ने 29 जनवरी की शाम को मानेसर तहसील के आसपास धारा 144 घोषित कर दी और मजदूरों के तंबू और सामान को वाहन से उखाड़ दिया। अगली सुबह, विरोध प्रदर्शन के लिए इलाके में उमड़े हजारों मजदूरों को बसों में भरकर मानेसर पुलिस लाइन थाने ले जाया गया या प्रदर्शन स्थल से 40-50 किलोमीटर दूर अलग-अलग जगहों पर उतार दिया गया। अन्य लोगों को लाठियों के साथ मैदानों में खदेड़ा गया। प्रदर्शन को नवगठित हीरो मजदूर अस्थाई संघ के साथ-साथ ऑटो दिग्गज के अन्य सप्लायर कंपनी के अस्थायी कर्मचारियों का भी समर्थन मिला। पश्चिम बंगाल के कलकत्ता जैसे अन्य शहरों में भी कार्यक्रम के समर्थन में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए।

‘मानेसर चलो’ कार्यक्रम की घोषणा 10 जनवरी को गुरुग्राम में श्रम विभाग के सामने मारुति के वर्तमान और पूर्व अस्थायी कर्मचारियों की एक विशाल सभा से की गई थी। इस दिन मज़दूरों ने प्रबंधन और श्रम विभाग को एक मांग पत्र सौंपा था, जिस पर मारुति सुजुकी अस्थाई मजदूर संघ (MSAMS) द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए 4,000 से अधिक कर्मचारियों ने हस्ताक्षर किए थे।

MSAMS हरियाणा में सभी मारुति संयंत्रों में वर्तमान और पूर्व में कार्यरत अस्थायी कर्मचारियों की विभिन्न श्रेणियों के मज़दूरों का एक मंच है। MSAMS की स्थापना इसी साल 5 जनवरी को गुड़गांव में श्रमिकों की एक सामूहिक बैठक के माध्यम से की गई थी, जिसने वर्तमान आंदोलन का आग़ाज़ किया।

मज़दूर स्थायी प्रकृति के काम पर स्थायी रोजगार, समान काम के लिए समान वेतन, फरवरी में कंपनी द्वारा आयोजित की जा रही आगामी सीटी परीक्षा में 10,000 स्थायी कर्मचारियों की भर्ती, सभी अस्थायी कर्मचारियों के लिए 40% वेतन वृद्धि, स्थायी कर्मचारियों के बराबर बोनस और अन्य सुविधाएँ और प्रशिक्षुओं और छात्र प्रशिक्षुओं के लिए उपयोगी प्रशिक्षण और मान्यता प्राप्त प्रमाण पत्र की मांग कर रहे हैं।



शांतिपूर्ण आंदोलन को विफल किए जाने की कोशिश ने मज़दूरों के आक्रोश को दबाने के बजाय लड़ने के लिए उनका हौसला और मज़बूत किया है। बार-बार हिरासत में लिए जाने और पुलिस दमन की ख़बरों के बावजूद मज़दूर दोपहर तक धरना स्थल पर पहुंचते रहे। मारुति सुज़ुकी अस्थाई मज़दूर संघ की समिति के सदस्य और युवा मज़दूर महाबीर ने बताया कि कैसे पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज और बार-बार मज़दूरों को हिरासत में लेकर मज़दूरों को खदेड़ा और मानेसर तहसील में शांतिपूर्वक इकट्ठा हुए मज़दूरों को तितर-बितर कर दिया।

उन्‍होंने कहा, “हम यहां बड़ी उम्मीदों के साथ आए थे, कि आखिरकार हमें अपनी पीड़ा और मांगों को उठाने के लिए एक मंच मिलेगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि सारी शक्ति प्रबंधन के पास है, जो पुलिस को निर्देश देता है। मज़दूरों को अपने अधिकारों के लिए खड़े होने का भी अधिकार नहीं है।” झारखंड से विरोध प्रदर्शन में शामिल होने आए एक अन्य मज़दूर ने सवाल किया, ‘’इस ठंड में अब हम कहां जाएं? हमारा खाना और आश्रय खत्म हो गया है। हमें ऐसा लग रहा है कि हम आज़ाद देश में गुलाम हैं।”

2012 में कंपनी से निकाले गए मज़दूर और कमेटी के कानूनी सलाहकार खुशीराम ने 29 जनवरी की रात को स्थानीय मीडिया से कहा, “हम कभी कानून के खिलाफ नहीं गए, जबकि कंपनी ने पिछले 13 साल में सभी श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाई हैं और 11 लाख से ज्यादा मजदूरों की जिंदगी बर्बाद की है। फिर भी प्रबंधन के इशारे पर पुलिस ने गुड़गांव कोर्ट के आदेश का भी पालन करने से इनकार कर दिया है।”

मारुति सुजुकी प्रबंधन ने अब गुड़गांव सिविल कोर्ट में दो बार मज़दूरों के ख़िलाफ़ केस दाखिल किए हैं, पहले नौकरी से निकाले गए मजदूरों के खिलाफ स्थाई निषेधाज्ञा और अब अस्थाई मजदूरों के खिलाफ निषेधाज्ञा मांगी है। दोनों ही मामलों में कोर्ट ने मजदूरों के कंपनी गेट और बाउंड्री से 500 मीटर दूर शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने के अधिकार को मान्यता दी, लेकिन 29 जनवरी की सुबह जैसे ही कोर्ट ने अपना आदेश सुनाया, पुलिस ने मानेसर तहसील के सामने मजदूरों के प्रदर्शन स्थल को उखाड़ना शुरू कर दिया, जो कि ‍मारुति कंपनी से सात किलोमीटर की दूरी पर है।

कर्मचारियों का तर्क है कि कंपनी ने अपनी बिक्री और मुनाफे में लगातार वृद्धि की है, लेकिन जिन कर्मचारियों ने इस तरक्की को संभव बनाया है, उन्हें रोजगार और श्रम अधिकारों की सुरक्षा के बिना सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया है। कंपनी वर्तमान में अपने 83% श्रम बल को अल्पकालिक अनुबंधों पर नियुक्त करती है, जिसमें कहा गया है कि “आपकी नियुक्ति पूरी तरह से अस्थायी प्रकृति की है और यह अस्थिर व्यवसाय और काम की अनिवार्यताओं के कारण हुई है।” 34,918 के कुल कार्यबल में से केवल 5713 स्थायी कर्मचारी ही उन लाभों और उच्च वेतन का आनंद लेते हैं, जिन्हें कंपनी अपने कर्मचारियों को प्रदान करने का दावा करती है।



कंपनी आईटीआई चलाने और कौशल विकास के नाम पर स्कूल के बाद सीधे कर्मचारियों की भर्ती कर रही है। कुछ युवाओं को सात महीने के अनुबंध के लिए अस्थायी कर्मचारी (टीडब्ल्यू) के रूप में भर्ती किया जाता है और कई अन्य को कुछ महीनों से लेकर कुछ वर्षों तक के कार्यकाल के लिए ठेका कर्मचारी के रूप में भर्ती किया जाता है। कर्मचारियों से वादा किया जाता है कि अगर वे पूरी उपस्थिति बनाए रखते हैं और बिना किसी शिकायत के काम करते हैं तो उन्हें कुछ समय बाद दूसरे कार्यकाल के लिए बुलाया जाएगा और शायद वो कभी पक्के भी कर दिए जाएं, हालांकि मुट्ठी भर से अधिक लोगों को दूसरे या तीसरे कार्यकाल के लिए नहीं बुलाया जाता है। हजारों कर्मचारियों को कंपनी प्रशिक्षु परीक्षा के लिए हर साल बुलाया जाता है, जिससे स्थायी मज़दूरों की भर्ती होती है लेकिन तीनों संयंत्रों में सालाना केवल 30-40 कर्मचारी ही स्थायी हो पाते हैं।

यह प्रक्रिया कर्मचारियों को उनके जीवन के सबसे अच्छे वर्षों, यानी 18 से 25 वर्ष की उम्र तक बीच-बीच में काम पर रखती है जिसके बाद फिर से भर्ती होने की कोई उम्मीद नहीं रहती। कंपनी द्वारा प्रदान किए गए अनुभव पत्र और प्रशिक्षण प्रमाण पत्र का नौकरी पाने में कोई महत्व नहीं है क्योंकि कर्मचारियों को सीधे उत्पादन में रखा जाता है और वे अपना पूरा समय केवल एक या दो स्टेशनों पर बिताते हैं, जिससे कोई निश्चित कौशल हासिल नहीं होता है।

मारुति सुज़ुकी मानेसर के मज़दूरों द्वारा 2011 में अपनी यूनियन बनाने के लिए शुरू किया गया आंदोलन पिछले कुछ दशकों में देश में सबसे जुझारू और महत्वपूर्ण ट्रेड यूनियन संघर्षों में से एक के रूप में याद किया जाता है। एक साल आंदोलन करने के बाद 1 मार्च, 2012 को मज़दूर अपनी एक स्वतंत्र यूनियन बनाने में सफल हुए थे, लेकिन उसी साल 18 जुलाई को हिंसा भड़कने के साथ प्रबंधन ने इसे कुचलने की कोशिश की। कंपनी ने हिंसा के बहाने बिना किसी जांच के 1800 ठेका मज़दूरों और 546 स्थायी मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया, 147 मज़दूरों को जेल में डाल दिया गया, जिनमें से 31 को दोषी ठहराया गया और 117 को पांच साल की जेल के बाद बरी कर दिया गया, जबकि यूनियन बॉडी के 13 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।


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2012 में नौकरी से निकाले गए मज़दूर तब से संगठित हैं और उन्होंने सभी नौकरी से निकाले गए मज़दूरों के आपराधिक और श्रम मामलों को चलाने में सक्रिय भूमिका निभाई है, साथ ही जेल में बंद मज़दूरों और उनके परिवारों को सहायता सुनिश्चित की है। वे 18 सितंबर, 2024 से ही मानेसर तहसील के सामने प्रदर्शन कर रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि न्यायालय और राज्य एसआइटी द्वारा बरी किए गए सभी कर्मचारियों को पुनः बहाल किया जाए। इन कर्मचारियों ने युवा अस्थायी कर्मचारियों को अपनी मांगें उठाने और खुद को संगठित करने में लगातार सहयोग दिया है।

2012 में नौकरी से निकाले गए एक कर्मचारी रविंदर दहिया ने बताया कि जब वे अपनी मांगों को लेकर आइएमटी मानेसर में बैठे और कर्मचारियों से बातचीत की, तो उन्हें कंपनी द्वारा चलाए जा रहे अस्थायी रोजगार के बड़े घोटाले का पता चला। उन्हें लगा कि यह ऐसा मुद्दा है जिसे हर कीमत पर उठाया जाना चाहिए।

उन्‍होंने कहा, “जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, हम अपना आंदोलन वापस नहीं लेंगे। हम इस कंपनी को हमारे देश के युवाओं का शोषण करने और उन्हें निराशाजनक भविष्य में धकेलने नहीं देंगे। 2011-12 में हमारे संघर्ष ने स्थायी और ठेका श्रमिकों के बीच एकता की मिसाल कायम की। जब कंपनी ने ठेका श्रमिकों को बाहर करने की कोशिश की, तो स्थायी श्रमिकों ने ठेका श्रमिकों को वापस लेने के लिए काम बंद कर दिया था। 18 जुलाई, 2012 की घटना से पहले हमारे उस समय नवगठित यूनियन द्वारा प्रस्तुत पहली मांग पर वार्ता भंग होने का मुख्य कारण ठेका श्रमिकों की स्थायी भर्ती करने से कंपनी का इनकार ही था।”



पिछले दशक में मुख्य उत्पादन प्रक्रियाओं में अस्थायी श्रमिकों के उपयोग में भारी वृद्धि देखी गई है; इस तरह की श्रम व्यवस्था लागत में कटौती के उपाय के अतिरिक्‍त कंपनी को कार्य के अत्यधिक बोझ और गति को बनाए रखने में सहायता देती है। ऐसे बोझ का काम केवल बहुत युवा और सक्षम मज़दूर ही संभाल सकते हैं, जो कुछ वर्षों के बाद श्रमिकों के लिए असहनीय है। इसने प्रबंधन को स्थायी श्रमिकों की यूनियनों द्वारा जीते गए अधिकारों को खत्म करने का भी मौका दिया है, जो कई जुझारू संघर्षों और बलिदानों के बाद बने हैं।

बेल्ट में सैकड़ों यूनियनें बनाई गईं और स्थायी श्रमिकों के वेतन और लाभों में तेज सुधार हुआ, विशेष रूप से मारुति मानेसर में 2011 की हड़ताल के बाद। कोविड लॉकडाउन में क्षेत्र ने कई छंटनी और शटडाउन देखे, जो स्थायी श्रमिक यूनियनों को कमजोर करने में प्रबंधन के लिए कारगर रहे है। स्थायी मजदूरों का अब उत्पादन पर पहले जैसा नियंत्रण या उग्र संघर्ष के लिए आवेग नहीं रहा। उत्पादन का पूरा बोझ युवा अस्थायी श्रमिकों पर मढ़ दिया गया है, जिनकी खुद की युनियन नहीं है और जिनकी मांगें स्थायी मजदूरों के यूनियनों द्वारा भी नहीं उठायी जाती हैं। इन मजदूरों को अब तक अपने गहरे दुख को व्यक्त करने के लिए बहुत कम जगह मिली है।

मानेसर में इस समय जो गुस्सा है, वह देश में शिक्षित कामकाजी वर्ग के युवाओं के सामने बेरोजगारी के बड़े संकट से भी जुड़ा है। दूसरी ओर, नई श्रम संहिता और व्यापार करने में आसानी की नीतियों के कारण नौकरी पर रखने और नौकरी से निकालने की गैरकानूनी प्रथाओं को कानूनी मंजूरी मिल रही है, जिससे युवा श्रमिकों का भविष्य और भी संगीन खतरे में पड़ गया है। इसलिए मौजूदा आंदोलन की गूंज इस एक कंपनी से कहीं आगे तक फैली हुई है क्योंकि हमारे देश में काम और रोजगार का भविष्य दांव पर लगा हुआ है।


जारीकर्ता : मारुति सुजुकी अस्थायी मजदूर संघ


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जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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