कोलकाता बलात्कार और हत्याकांड पर भारत के मुख्य न्यायाधीश को संगठनों का खुला पत्र


प्रिय महोदय,

हम देश भर के नारीवादी, छात्र, जन संगठन और नागरिक, पश्चिम बंगाल में रीक्लेम द नाइट, रीक्लेम द राइट्स आंदोलन के साथ इस बात से निराश हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरजी कर अस्पताल में बलात्कार और हत्या के मामले में ‘स्वतः संज्ञान’ लेने के बाद भी मामला ठप पड़ा हुआ है। हम यह बताना चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट विरोध करने वाले लोगों की शिकायत, गुस्से और आक्रोश को दूर करने में विफल रहा है।

एक महीना बीतने के बाद भी सीबीआइ ने अब तक इस जघन्य बलात्कार और हत्या के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला है। पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने अपना ध्यान केवल विरोध करने वाले डॉक्टरों पर केंद्रित किया था, जिन्हें पश्चिम बंगाल की स्वास्थ्य प्रणाली के चरमराने का दोषी (श्री कपिल सिब्बल द्वारा समर्थित) माना गया था जबकि आम जनता और पूरा चिकित्सा समुदाय, जिसमें वरिष्ठ डॉक्टर भी शामिल हैं, विरोध करने वाले डॉक्टरों के समर्थन में हैं, जो एक बेहतर सुलभ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली चाहते हैं, जो ‘भ्रष्टाचार रैकेट्स और धमकी संस्कृति’ से मुक्त हो, माननीय मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट जांच के तहत इस विशिष्ट मामले पर अपना ध्यान क्यों खो रहे हैं?

हम चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट विलंबित जांच और अपराधियों को कथित संरक्षण। हम चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट विलंबित जांच और अपराधियों को कथित संरक्षण देने तथा उसके बाद नागरिक विरोध प्रदर्शनों पर हमलों पर विचार-विमर्श करे।

हम उम्मीद करते हैं कि CJI को मालूम होगा कि आरजी कर अस्पताल में प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ क्रूर बलात्कार और हत्या कोई अलग-थलग घटना नहीं है, बल्कि कार्यस्थल और सार्वजनिक रूप से यौन हिंसा और लैंगिक भेदभाव की विभिन्न घटनाओं से जुड़ी है, जो पूरे देश में तेजी से बढ़ रही हैं। हम संस्थागत सुरक्षा मानकों – आराम-कक्ष, शौचालय, छात्रावास, परिवहन, स्वच्छता आदि की समीक्षा करने और स्वास्थ्य सेवा संस्थानों के भीतर चिकित्सा पेशेवरों की भेद्यता को संबोधित करने के लिए आरजी कर में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित राष्ट्रीय टास्क फोर्स के बारे में अपनी चिंताएं व्यक्त कर रहे हैं।

क) संस्थागत सुरक्षा और बुनियादी ढांचे की कमी केवल स्वास्थ्य सेवा संस्थानों में ही चिंता का विषय नहीं है, बल्कि अन्य सभी शैक्षणिक, सार्वजनिक और निजी संस्थानों को इस समीक्षा और जांच की आवश्यकता है।

ख) नियुक्त समिति के पास चिकित्सा संस्थानों के भीतर भ्रष्टाचार के रैकेट और प्रणालीगत विफलताओं को पहचानने और उनका समाधान करने का अनुभव और विशेषज्ञता होनी चाहिए। इस प्रस्तावित समिति की हाइ-प्रोफाइल संरचना इस बात की गारंटी नहीं देती है कि चिकित्सा संस्थानों में राजनीतिक, बुनियादी ढांचे और नैतिक खामियों की जांच आवश्यक कड़ाई और कौशल के साथ की जाएगी।

ग) आरजी कर में सीआईएसएफ की स्थापना का सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल भय, धमकी और निगरानी को बढ़ाता है और त्वरित जांच में मदद नहीं करता है।

इस मामले में अपराधियों ने अपराध को छुपाने, सबूत नष्ट करने और छात्रों के बीच भय फैलाने की पूरी कोशिश की है। कॉलेज प्रशासन, राज्य प्रशासन से लेकर बलात्कारियों और हत्यारों तक, जिन्हें दोषी माना जाता है, अपराधियों की इस श्रृंखला को सत्तारूढ़ दल का पूरा संरक्षण प्राप्त है जबकि सीबीआइ जांच में अब तक केवल संदीप घोष और उनके कुछ साथियों की गिरफ्तारी हुई है, वह भी केवल वित्तीय धोखाधड़ी के लिए। यह चल रहे नागरिक विरोध का दबाव है कि पहले संदीप घोष को निलंबित किया गया और अब एसएसकेएम और उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय के तीन डॉक्टरों को निलंबित कर दिया गया है।

ज्यादातर मामलों में सत्तारूढ़ दल और उनके राजनीतिक गठजोड़ ऐसे अपराधों के पीछे होते हैं। सत्तावाद, धार्मिक कट्टरवाद, बढ़ती जातिगत अत्याचार, गरीबी और बेरोजगारी, सिंडिकेट रैकेट लैंगिक-यौन हिंसा को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक ढांचा बन गए हैं।

13 साल बाद भी कार्यस्थलों पर PoSH अधिनियम का क्रियान्वयन बहुत खराब रहा है। वर्मा समिति के बाद कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम के नियमों और प्रक्रियाओं के कारण संस्थानों में ICC और जिला स्तर पर LCC की स्थापना नहीं हुई है। ICC और LCC के बारे में सरकारी वेबसाइटों पर कोई डेटा नहीं है। अगर वे कुछ जगहों पर स्थापित भी हैं, तो वे या तो बेकार हैं या प्रशासन के उच्च अधिकारियों के नेतृत्व में हैं। यह भयावह है कि असंगठित क्षेत्र में कामगार वर्ग, मुसलमानों, उत्पीड़ित जाति की महिलाओं, समलैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों पर लैंगिक-यौन हिंसा की रोज़मर्रा की घटनाएं अभी भी अनसुलझी हैं। PoSH अधिनियम को सभी कार्यक्षेत्रों में प्रभावी बनाने के लिए कानून और नीति निर्माण में नारीवादी संगठनों, समूहों और मंचों को शामिल करना और उनकी भागीदारी बहुत ज़रूरी है।

देश भर में हो रहे जुझारू विरोध प्रदर्शनों के बीच, दंड से मुक्ति की संस्कृति जोर पकड़ रही है। हाल ही में उत्तराखंड के रुद्रपुर जिले में अल्पसंख्यक समुदाय की एक नर्स का काम से घर वापस जाते समय सामूहिक बलात्कार हुआ। दो मज़दूरों की गिरफ्तारी कई दिनों बाद हुई है। मणिपुर की तरह ही बंगाल में भी पिछले महीने भाजपा कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में एक महिला को नंगा करके घुमाया, जबकि भाजपा लैंगिक अधिकारों के कथित संरक्षक के रूप में काम कर रही है। यह राजनीतिक पार्टी हर नागरिक विरोध में घुसपैठ कर रही है और उसे अपने साथ मिला रही है। जब भाजपा उन्नाव और कठुआ के बलात्कारियों के लिए राष्ट्रीय ध्वज फहरा रही थी, हाथरस में जबरन दाह संस्कार कर रही थी, सबूतों को नष्ट कर रही थी और सवर्ण जाति के अपराधियों को बचा रही थी, बिलकिस बानो के बलात्कारियों को माला पहना रही थी, बृजभूषण शरण की रक्षा कर रही थी और विनेश फोगट, साक्षी मलिक और सभी विरोध करने वाले पहलवानों की आवाज़ को दबा रही थी, उस वक्त भी आप पीड़ित को न्याय नहीं दे पाए।

अब नारीवादी आंदोलनों और लोगों के विरोध को हाईजैक (अपहरण) करने की बेतहाशा कोशिश की जा रही है। हम सत्तारूढ़ राष्ट्रीय पार्टी की चुनावी राजनीति में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक चालों, जाति और सांप्रदायिक अत्याचारों को उजागर करने के लिए दृढ़ हैं।

हम अपराजिता विधेयक का विरोध करते हैं, जिसे टीएमसी ने आम नागरिकों से बिना किसी परामर्श के बनाया है। नारीवादियों के रूप में हम मृत्युदंड के खिलाफ हैं क्योंकि यह सार्वजनिक आक्रोश को दबाने के लिए एक लोकलुभावन उपाय है और न्याय की मांग करने वाली महिलाओं के लिए उचित प्रक्रिया सुनिश्चित नहीं करता है। हम सत्तारूढ़ पार्टी की कैरट ऐंड स्टिक वाली नीति की निंदा करते हैं, जो ‘रातिरेर साथी’ ऐप जैसे उपायों के साथ नागरिकों को खुश करने की कोशिश कर रही है। टीएमसी की हुकूमत महिलाओं के काम के घंटे 12 घंटे तक सीमित कर रही है एवं सीसीटीवी कैमरों के साथ सुरक्षित क्षेत्रों की पहचान कर रही है। समाज में स्वतंत्र रूप से जीने और सांस लेने के लिए हम स्वतंत्रता और सम्मान चाहते हैं, न कि ऐसे उपाय जो सुरक्षा के नाम पर हमें नियंत्रित/हमारी निगरानी करते हैं।

इस समय सभी राजनीतिक दल बेशर्मी से राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा करने या उसे बनाए रखने की योजना बना रहे हैं। हम इस बात से आक्रोशित हैं कि राजनेताओं, धार्मिक संगठनों और घृणा की राजनीति के समर्थकों को बिना किसी भय के हिंसक भाषण देने की अनुमति है, जबकि एक तरफ न्यायपालिका इस हिंसा को रोकने में विफल रहती है, दूसरी तरफ न्याय की मांग करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को जमानत नहीं दी जा रही है। उन्हें बिना किसी सुनवाई के कई दिनों तक जेल में रखा जाता है। हिंसा की संस्कृति इतनी व्यापक और गहरी हो गई है कि उज्जैन में एक महिला के साथ दिनदहाड़े सार्वजनिक सड़क पर यौन उत्पीड़न किया जाता है। वहां मौजूद किसी ने उसकी मदद नहीं की। ‘न्याय के दायरे से मुक्ति’  की यह संस्कृति हम महिलाओं, समलैंगिकों और ट्रांसजेंडर लोगों के लिए चिंताजनक है, जिन्होंने हमेशा यौन हिंसा से मुक्त समाज के लिए संघर्ष किया है। जब तक न्यायपालिका अपनी नींद से नहीं जागती, तब तक यौन हिंसा और घृणा की राजनीति जारी रहेगी और समाज के सबसे कमजोर वर्गों को निशाना बनाएगी।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही दिन शांतिपूर्ण विरोध पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाने का आदेश दिया था। हम विनम्रतापूर्वक पूछना चाहते हैं कि अगर प्रदर्शनकारियों को पुलिस और राजनीतिक दलों के स्थानीय गुंडों द्वारा धमकाया जाता है और उन पर झूठे मामले मढ़े जाते हैं, तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय कौन से तंत्र का इस्तेमाल कर रहा है? यह विडंबना है कि यौन हिंसा और छेड़छाड़ के मामले महिलाओं, समलैंगिकों और ट्रांस लोगों द्वारा भी अनुभव किए जा रहे हैं, जो 14 अगस्त, 2024 से पूरे पश्चिम बंगाल में स्वतंत्र रूप से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। हमारे मित्रों, साथियों सहित शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को  पुलिस और स्थानीय गुंडों द्वारा क्रूर दमन का सामना करना पड़ रहा है।

यह विडंबना है कि 14 अगस्त, 2024 से पूरे पश्चिम बंगाल में स्वतंत्र रूप से विरोध कर रहे महिलाओं, समलैंगिकों और ट्रांसजेंडर लोगों को यौन हिंसा और छेड़छाड़ के मामलों का भी सामना करना पड़ रहा है। बंगाल के विभिन्न जिलों से प्रतिदिन ऐसी खबरें आती हैं जहां टीएमसी और भाजपा के स्थानीय गुंडे प्रदर्शनकारियों पर हमला करते हैं और विरोध स्थलों को बाधित करते हैं। बारासात सहित उत्तर 24 परगना जिले का अनुभव बताता है कि पुलिस की अति-कार्रवाई, शांतिपूर्ण सभा पर हमला, अवैध गिरफ्तारी और प्रदर्शनकारियों पर झूठे मामले दर्ज करना आदि हाल के अनुभव हैं। हमारा दृढ़ विश्वास है कि असहमति का अधिकार लोकतंत्र का अभिन्न अंग है।

इस संदर्भ में देश के सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में, हम आपके समक्ष निम्नलिखित मांगें रखते हैं:

1. 9 अगस्त के बलात्कारियों और हत्यारों तथा उनके साथियों की पहचान, गिरफ्तारी हो और कठोर सजा दी जाए। जब तक बलात्कारी खुलेआम घूम रहे हैं और चिकित्सा संस्थानों में आपराधिक गिरोहों पर लगाम नहीं लगाई जा रही है, तब तक डॉक्टर, छात्र, स्वास्थ्य पेशेवर सुरक्षित नहीं हैं।     

2. साक्ष्य नष्ट करने से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों की तत्काल गिरफ्तारी की जाएं। 

3. सुप्रीम कोर्ट को एनटीएफ की संरचना में बदलाव करना चाहिए और इसमें क्षेत्रीय बिरादरी के डॉक्टरों, छात्रों, कार्यकर्ताओं और वकीलों को शामिल करना चाहिए ताकि प्रशिक्षु डॉक्टर के बलात्कार, हत्या और स्वास्थ्य क्षेत्र में संस्थागत खामियों, उच्च स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के बारे में प्रभावी और सूचित तथ्यखोज की जा सके। एनटीएफ को प्रदर्शनकारी डॉक्टरों, छात्रों और महिलाओं, नारीवादी संगठनों, मंचों से परामर्श करने की आवश्यकता है, जो इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं और इस आंदोलन के ‘केंद्र’ में रहकर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

4. यह मामला बंगाल के सत्र न्यायालय में स्थानांतरित होने के बाद सुनवाई प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे के साथ-साथ एक विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने का निर्देश दिया जाए।

5. दोषी पुलिस अधिकारियों, स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर शारीरिक हमला करने वाले तथा बंगाल के विभिन्न हिस्सों में नागरिक सभाओं को बाधित करने वाले किसी भी व्यक्ति को दंडित करने के लिए सख्त निर्देश जारी करें। 

6. चिकित्सा संस्थान सहित देश के हर संस्थान तथा इलाके में जेंडर ऑडिट (किसी संस्था या संगठन में लैंगिक समानता के स्तर का आकलन) करने के लिए एक समीक्षा समिति का गठन किया जाए ताकि काम के समग्र माहौल को सुरक्षित रखा जा सके।प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान में समीक्षा समितियों में छात्र, शिक्षक और कार्यकर्ता, नारीवादी, समलैंगिक आंदोलनों और संगठनों के वकील शामिल किये जाएं। असंगठित क्षेत्र के काम में ऐसी समीक्षा समितियों का अलग से गठन किया जाना चाहिए।

7. पीओएसएच अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार आइसीसी, एलसीसी की स्थापना करने में विफल संस्थानों और प्रशासनिक प्रमुखों (डीएम/ कलेक्टर) को दंडित करने के निर्देश जारी किए जाएं।  

8. क्वीर और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पी.ओ.एस.एच. अधिनियम में शामिल किया जाए तथा पी.ओ.एस.एच. अधिनियम में क्वीर और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों पर शारीरिक, यौन हिंसा के मामले में गैर-भेदभावपूर्ण और समान उपाय सुनिश्चित करें।   

9. हाल ही में पारित भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) को संशोधित किया जाए, जिसके तहत यौन उत्पीड़न पर एफआइआर दर्ज करने में समय लगता है और कोई भी लोकसेवक के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कर सकता।  

जैसा कि इतिहास गवाह है, बलात्कार और हत्या सत्ताधारी शासन द्वारा राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का प्राथमिक हथियार है।

ग) आरजी कार अस्पताल में सीआइएसएफ की स्थापना का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय केवल भय, धमकी और निगरानी को बढ़ाता है तथा त्वरित जांच में मदद नहीं करता है। 

हस्‍ताक्षरकर्ता
60 संगठन और 1012 व्‍यक्ति

पूरी सूची यहाँ देखें:

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About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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