हम अपनी ‘ग्राउंड रियलिटी’ के साथ जी रहे हैं या एक ‘पाथेर पांचाली’ बनाने की कोशिश कर रहे हैं?
यह कॉम्पैशन आज कहाँ चला गया है। क्या यह हमारे समाज में है? क्या यह हमारी फ़िल्मों में है? अगर सिनेमा समाज का आईना है तो हम गहरे खतरे में हैं और मेरा मानना है कि सिनेमा समाज का आईना है।
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