स्मृतिशेष: कमला भसीन और उनका स्त्री संसार

उन्होंने 1975 से अपना काम शुरू किया और तत्कालीन नारीवादी आंदोलन का एक अहम चेहरा बनकर उभरीं। उनके काम की सबसे सुंदर बात या उनके काम की विरासत उनके द्वारा लिखे गए गीत हैं। कमला भसीन ने महिला आंदोलन को पहले गीत दिए। कोई भी लड़की अगर महिला आंदोलन से जुड़ेगी, किसी मोर्चे पर जाएगी तो वह ये गाने ज़रूर गाएगी। इनमें से एक गीत ये है-

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श्रद्धांजलि: ‘तेरा शायर-ए-मशरिक़ तुझे आवाज़ दे रहा है…!’

12 अगस्त को ब्रेन हैमरेज के कारण उन्हें मैक्स अस्पताल में भर्ती कराया गया था। बाद में कोमा में जाने पर जीबी पंत अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां कल रात उन्होंने अंतिम सांस ली।

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समाजशास्त्री गेल ओमवेट को याद करते हुए

सत्तर के दशक के आख़िर में उन्होंने कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी में सुनहरा अध्यापकीय जीवन छोड़कर भारत आने का चुनौतीपूर्ण निर्णय लिया। सामाजिक कार्यकर्ता भारत पाटणकर से विवाह कर वे महाराष्ट्र के एक गाँव में ही बस गयीं और वर्ष 1983 में उन्होंने भारत की नागरिकता भी ले ली।

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‘यथास्थितिवाद के विरोधी थे विलास, इसलिए नए संगठन बनाना उनकी जीवनशैली का हिस्सा बन गया’

कॉमरेड विलास के प्रश्न सीपीएम नेतृत्व के लिए असुविधाजनक बनते गए और सीपीएम नेता शरद पाटिल के विचार के प्रति उनका खिंचाव बढ़ता गया, किन्तु उनके इस विचार से कि देश में जनवादी क्रांति जाति इत्यादि सामाजिक प्रश्नों को भी हल कर देगी विलास को रास नहीं आता था इसलिए उनका सीपीएम के अंदर और बाहर साथ देने के बजाय प्रश्नाकुल बने रहे और सीपीआई(एमएल) के एक गुट सीआरसी में 1980 के दशक के आरंभिक दिनों में शामिल हो गए और उस दशक के ही 1987 तक महाराष्ट्र यूनिट के स्टेट सेक्रेटरी बने रहे।

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समता और स्वतंत्रता के प्रयोगधर्मी योद्धा विलास सोनवणे

कम्युनिस्ट लोग उन्हें कामरेड कहते थे और सर्वोदयी और समाजवादी लोग विलास भाई। भक्ति आंदोलन की विरासत को ढोने वाला वार्करी समाज उन्हें अपना साथी मानता था। इसी तरह महानुभाव और लिंगायत समाज से भी वे अपनापन रखते थे। मुस्लिम समाज उन्हें अपना दोस्त मानता था और गांधीवादी-समाजवादी लोग उन्हें अपना नया व्याख्याकार कहते थे। आंबेडकरवादी उन्हें अपने करीब मानते थे। स्त्रीवादी उन्हें अपना वकील समझती थीं।

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श्रद्धांजलि: आज आदिवासियों के हक में उठने वाली एक आवाज़ मौन हो गयी!

चौरासी वर्षीय फादर स्टेन स्वामी जीवन भर दलित आदिवासियों के लिए कार्यरत रहे। जेल जाने से पूर्व वे लगातार सभी सामाजिक मुद्दों पर सरकार के सामने हमेशा खड़े हुए। हमेशा गांधी के मूल्यों को लेकर अहिंसक रास्ते को सही मानते हुए वे काम करते रहे।

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स्मृतिशेष: लगता है जैसे हिमालय की कोई चट्टान टूट कर गंगा में समा गई हो!

उनके खाने-पीने में हमेशा यही कोशिश होती थी कि वे ऐसे ही अनाज खाएं जो कम पानी में पैदा हों। मैंने उनको चावल खाते हुए नहीं देखा। पहाड़ में होने वाले पारंपरिक अनाज जैसे झंगोरा व कोदा ही उनके मुख्य भोजन होते थे।

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स्मृतिशेष: हिंदीपट्टी के युवाओं में वाम-इतिहासबोध रोपने वाले एक अभिभावक का जाना

दिल्ली के बौद्धिक सर्किल ने लाल बहादुर जी को उस तरह से सपोर्ट नहीं किया जैसा उन्हें करना चाहिए था। शायद दिल्ली की अंग्रेजी दुनिया में ऐसे लोगों को ज्यादा सर नहीं चढ़ाया जाता जो गैर-अंग्रेजी फलक से क्रांतिकारी चेतना का विश्वविद्यालयी दुनिया से बाहर विस्तार चाहते हैं।

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स्मृतिशेष: ‘दिल्ली की सेल्फ़ी’ के जुनूनी प्रकाशक जतिंदर, जिनमें ‘अखबार निकालने का कीड़ा’ था!

जतिंदर जी को अख़बार निकालने का इतना जूनून था कि आज से 20 साल पहले उन्होंने ‘अलर्ट टाइम्स’ नाम से अंग्रेजी साप्ताहिक शुरू किया था और उसके लोकार्पण के लिए पूर्व सीबीआई प्रमुख जोगिन्दर सिंह को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया था।

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करोगे याद तो हर बात याद आएगी… यादों में सागर सरहदी

सागर सरहदी सिनेमा से जुड़े उन विरले लोगों में से हैं, जो घंटों किताबें पढ़ना पसंद करते थे. मुंबई के सराय कोलीबाड़ा इलाके में स्थित उनके घर में दीवारों के समानांतर आलमारियों में किताबें भरी पड़ी हैं. उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई पुरानी लाइब्रेरी के बीच रह रहा हो.

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