छान घोंट के: बहुजन नायक कांशीराम का दलित आंदोलन अभी जिंदा है!

जब कांशीराम को समझ आया कि दलित आंदोलन बिना राजनीतिक जमीन के नहीं पनप सकता, तो उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। कांशीराम ने पाली भाषा के शब्द ‘बहुजन’ का इस्तेमाल कर सभी अल्पसंख्यकों को अपने साथ एक बैनर तले लाने की कोशिश की।

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बात बोलेगी: क्या आप प्रबुद्ध वर्ग से हैं? तो जज साहब का कहा मानिए…

अगर ऐसी कोई युक्ति निकाल सकें कि दो दिन पीछे जा सकें तो लखनऊ में आयोजित बहुजन समाज पार्टी के प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन में शिरकत कर आइए, जहां इसी तरह के पर्यायवाची का सार्वजनिक रूप से निर्माण हुआ है। पहले यह सम्मेलन ब्राह्मण सम्मेलन था, उसे कुछ रोज़ पहले प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कह दिया गया। इसका तात्पर्य यही हुआ कि जो बौद्धिक हैं वो ब्राह्मण हैं और इसके उलट व समानान्तर- जो ब्राह्मण हैं वो बौद्धिक हैं। इसी तर्ज पर जो आलोचना करें, सलाह दें, वो बुद्धिजीवी हैं। जो बुद्धिजीवी हैं वो सलाह दें और आलोचना करें!

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बसपा के ब्राह्मण सम्मेलनों की आलोचना सतही और राजनीति से प्रेरित है

बसपा ब्राह्मणों को अपनी पार्टी से जोड़ रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह ब्राह्मणों के धर्म और दर्शन को स्वीकार करने जा रही है। वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकती, इसलिए कि यह उसके वजूद से जुड़ा हुआ प्रश्न है। अपने वजूद को बचाने के लिए बसपा कोई जोखिम तो ले सकती है लेकिन स्वयं अपने पैर में कुल्हाड़ी मारेगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

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हर्फ़-ओ-हिकायत: दलित चिंतकों का सवर्णवादी आदर्श बनाम कांशीराम की राजनीतिक विरासत

कांशीराम ने 1978 में ये भांप लिया था कि पहले से ही दमित समाज को संघर्ष की नहीं सत्ता की जरूरत है और सत्ता से ही सामाजिक परिवर्तन होगा। यही भाव कांशीराम से मायावती में अक्षरश: स्थानांतरित हुआ। इतिहास इसका गवाह है।

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राग दरबारी: उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती फैक्टर

बीजेपी के लिए परिस्थिति अगर विपरीत हुई और जो जाति या समुदाय भाजपा या सपा से सहज महसूस नहीं कर पा रहा है, अगर उसका छोटा सा तबका भी बसपा की तरफ शिफ्ट कर जाता है तो उत्तर प्रदेश के मुसलमान बीजेपी को हराने वाले उम्मीदवार को वोट देने से नहीं हिचकेंगे क्योंकि वह ऐसा समुदाय है जिसका एकमात्र लक्ष्य हर हाल में भाजपा को हराना होता है!

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उत्तर प्रदेश में मायावती राज और दलित उत्पीड़न

अब यह सामान्य अपेक्षा है कि जिस राज्य में सवर्ण मुख्यमंत्री के स्थान पर कोई दलित मुख्यमंत्री बनेगा वह दलित उत्पीड़न को रोकने के लिए वांछित इच्छाशक्ति दिखायेगा और अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून को प्रभावी ढंग से लागू कराएगा ताकि दलित उत्पीड़न कम हो सके. पर क्या वास्तव में ऐसा होता है?

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एक हम्माम में तब्दील हुई है दुनिया, सब ही नंगे हैं किसे देख के शरमाऊँ मैं!

बड़े नेता दिल्ली स्तर पर पार्टी बदलते हैं, उनसे छोटे नेता राज्य स्तर पर और सबसे निचले स्तर के जिला स्तर पर दल बदल करते हैं. मीडिया का सारा ध्यान केवल राष्ट्रीय स्तर पर रहता है. उधर जमीन पर बदलाव पर ध्यान ही नहीं जाता किसी का.

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