‘धृतराष्ट्र’ की मुद्रा में हैं मीडिया के ‘संजय’ इस समय?

पत्रकारिता समाप्त हो रही है और पत्रकार बढ़ते जा रहे हैं! खेत समाप्त हो रहे हैं और खेतिहर मज़दूर बढ़ते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह। खेती की ज़मीन बड़े घराने ख़रीद रहे हैं और अब वे ही‌ तय करने वाले हैं कि उस पर कौन सी फसलें पैदा की जानी हैं। मीडिया संस्थानों का भी कार्पोरेट सेक्टर द्वारा अधिग्रहण किया जा रहा है और पत्रकारों को बिकने वाली खबरों के प्रकार लिखवाए जा रहे हैं। किसान अपनी ज़मीनों को ख़रीदे जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया की समूची ज़मीन ही खिसक रही है पर वह मौन हैं। गौर करना चाहिए है कि किसानों के आंदोलन को मीडिया में इस समय कितनी जगह दी जा रही है? दी भी जा रही है या नहीं? जबकि असली आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ है। सिर्फ़ मीडिया में ख़त्म कर दिया गया है।

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पत्रकारिता के बदले परिवेश पर स्टेटस रिपोर्ट तैयार करे NUJ-I: रामबहादुर राय

राम बहादुर राय ने कहा कि इन दिनों जो पत्रकारिता हो रही है वह पूरी तरह से बदल चुकी है। पत्रकारिता ने अपने मूल चरित्र को खो दिया है। आज सार्थक पत्रकारिता कैसे हो यह सबसे बड़ा प्रश्न है।

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अख़बारनामा: वैश्वीकरण के दौर में भारतीय पत्रकारिता का एक जायज़ा

आज जो साम्प्रदायिकता का ज़हर हमारे समाज की जड़ों में गहरे तक उतरता जा रहा है तो यह केवल आज घटित हो गई कोई परिघटना नहीं है। इसकी भूमिका तभी से बननी शुरू हो गई थी जब उदारीकरण की नीतियों के माध्यम से हमारा देश अमेरिकी साम्राज्यवाद के जाल में फंसने लगा था। इस बारे में आलोक श्रीवास्तव जी की यह पुस्तक आंखें खोलने वाली है।

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पत्रकारिता की मिशनरी परंपरा और पतन: एक दिवंगत संपादक की अंतर्दृष्टि

पत्रकारों को अमूल या इंडियन कॉफी वर्कर्स को ऑपरेटिव सोसायटी की तर्ज पर अपना सहकारी संगठन खड़ा करना चाहिए। अगर हमारी दिलचस्पी स्वतंत्र, लोक हितैषी, स्वस्थ पत्रकारिता में है तो वह तभी संभव है जब पत्रकार स्वयं अपने मालिक बनें।

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कोरोना के बाद क्या ‘विश्वग्राम’ की परिकल्पना यथावत बनी रहेगी? ललित सुरजन का अनुत्तरित सवाल

उनका आखिरी संपादकीय 9 अप्रैल, 2020 को कोरोना पर आया था। इस संपादकीय में उन्‍होंने कोरोना के बाद बनने वाली दुनिया को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाये थे। ये सवाल अब भी अनुत्‍तरित हैं। जनपथ अपने समय के इस महान संपादक प्रकाशक को श्रद्धांजलि देते हुए उनके सम्‍मान में उनका 9 अप्रैल को छपा संपादकीय पुनर्प्रकाशित कर रहा है।

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कमल शुक्ला पर हमले में पत्रकारिता भी घायल हुई है!

कमल शुक्ला पर हमले को लेकर यह सवाल बार-बार पूछा जाता है कि क्या इस घटना को रोका जा सकता था? जवाब मिलता है ‘हां’, रोका जा सकता था! इय हमले की जांच के लिए गठित पत्रकारों की उच्चस्तरीय कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि दरअसल यह घटना सोशल मीडिया पर छिड़े महीने भर पुराने एक विवाद का परिणाम थी जिस विवाद में कमल शुक्ला, सतीश यादव, कलेक्टर कांकेर और कमल शुक्ला पर हमला बोलने वाले शामिल थे।

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कोरोना की आड़ में मीडिया को ‘पत्रकारों’ से सैनिटाइज़ करने की साज़िश है इस दौर की छंटनी!

कोरोना महामारी के चढ़ते ग्राफ़ के बीच पत्रकारों की नौकरी जिस गति से जा रही है, वह दिन दूर नहीं जब कोरोना से संक्रमित होने वाले नागरिकों की संख्‍या को …

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विनोद दुआ पर मुकदमे के बहाने ‘संशयवादी पत्रकारिता’ के अंत पर कुछ विचार: रॉबर्ट पैरी

‘संशय’ पत्रकारिता का बुनियादी उसूल है। सवाल करना लाज़िमी है, चाहे सामने कितनी बड़ी हस्ती क्यों न हो, लेकिन जहाँ बदनीयती हो वहाँ ऐसा करना अपराध मान लिया जाता है। …

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पहला पत्रकार कोरोना का शिकार, बाकी की गृहस्थी तबाह कर रहे अख़बार और सरकार

पंकज कुलश्रेष्ठ की मौत कोरोना से होने वाली देश में पहले पत्रकार की मौत है। कोरोना महामारी के चक्कर में जिस तरीके से दूसरी बीमारियों और पुराने रोगों की उपेक्षा की जा रही है, उसके चलते मौतें ज्यादा हो रही हैं।

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पत्रकारिता का साम्राज्यवादी चेहरा: संदर्भ एस.पी. सिंह

सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी. पर जितेन्‍द्र कुमार के लिखे आलेख पर बहस अब तक फेसबुक समेत तमाम मंचों पर जारी है। यह लेख अब भी जितेन्‍द्र कुमार के ब्‍लॉग …

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