बात बोलेगी: फिर आया लोकतंत्र के कर्मकांड का मौसम…

पहले जब राज्यों में चुनाव हुआ करते थे तो राज्य सरकारों की ही शक्तियां चुनाव आयोग को हस्तांतरित हुआ करती थीं। इधर कुछ वर्षों में, विशेष रूप से जब से भारतीय जनता पार्टी मौज में आयी है, तब से चुनाव भले ही घाना या नाइजर या टोगो में हों लेकिन सबसे पहले स्थगित होती है केंद्र की सरकार।

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बात बोलेगी: फिर इस मज़ाक को जम्हूरियत का नाम दिया…

जनता अब जम्हूरियत की चाभी नहीं, उसकी चेरी है। और हम जनता की तरफ से जनता के लिए जनता द्वारा चुनी गयी इस भूमिका को जम्हूरियत बतलाते हुए इसे इसके पुराने वैभव में लौटाने के लिए इसे बचाने पर आमादा हैं।

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धार्मिक सत्ता स्थापित करने का प्रयास लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ: प्रो. राम पुनियानी

पूर्व की सरकारों के दौर में भी मीडिया की भूमिका पर सवाल उठते थे पर वह अपवादस्वरूप होते थे आज हालत इससे उलट है। मीडिया ने जनसरोकार से किनारा कर के सत्ता सरोकार से रिश्ता बना लिया है जिससे लोकतंत्र के चौथे खम्भे से आम जन का भरोसा उठता जा रहा है।

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संविधान दिवस की गूंज और लोकतंत्र को कमजोर करने के सुनियोजित प्रयास

संवैधानिक प्रजातंत्रों पर संकट विश्वव्यापी है- ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, पोलैंड, हंगरी, तुर्की और इजराइल इसके उदाहरण हैं, लेकिन इन देशों की तरह हमारे देश में न तो आपातकाल लगा है न ही सेना सड़कों पर गश्त कर रही है, न ही नागरिक अधिकारों को निलंबित रखा गया है बावजूद इसके हमारे संवैधानिक प्रजातंत्र पर संकट है।

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संविधान पर चल रहे विमर्श के निहितार्थ

क्या संविधान से हमें कुछ हासिल नहीं हुआ? जब हमारे साथ स्वतंत्र हुए देशों में लोकतंत्र असफल एवं अल्पस्थायी सिद्ध हुआ और हमारे लोकतंत्र ने सात दशकों की सफल यात्रा पूरी कर ली है तो इस कामयाबी के पीछे हमारे संविधान के उदार एवं समावेशी स्वरूप की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

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सामाजिक एकता का खात्मा डेमोक्रेसी को चैलेंज है: प्रोफेसर मलिक

प्रो. मलिक ने इस बात पर अफसोस जताया कि अपने शहर में नजीर अब बेगाने हो गये हैं। जिस बनारस की परम्पराओं को लेकर उन्होंने ढेर सारे शेर लिखे उस बनारस का उन्हें भूलना दुखद है।

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बात बोलेगी: विस्मृतियों के कृतघ्न कारागार में एक अंतराल के बाद

सूचनाओं ने हमारे दिल-दिमाग को इस कदर भर दिया है कि उसमें सब कुछ केवल समाया जा रहा है। किसी सूचना का कोई विशिष्ट महत्व नहीं बच रहा है। मौजूदा हिंदुस्तान एक घटना प्रधान हिंदुस्तान बन गया है। इसमें घटनाएं हैं और केवल घटनाएं हैं। जब घटनाएं हैं तो उनकी सूचनाएं हैं। सूचनाएं हैं तो उनकी मनमाफिक व्याख्याएं भी हैं। व्याख्याएं हैं तो उसमें मत-विमत हैं। मत-विमत हैं तो वाद-विवाद हैं और वाद-विवाद हैं तो जीतने-हारने की कोशिशें भी हैं। पक्ष-विपक्ष अब केवल सत्ता के प्रांगण की शब्दावली नहीं रही बल्कि अब वह कटुता का एक नया रूप लेकर उसी खम के साथ एकल परिवारों से लेकर संयुक्त परिवारों, पड़ोस से लेकर मोहल्ले और मोहल्ले से लेकर गाँव तक बसेरा करती जा रही है।

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राज्य, सरकार, कानून और समाज की जटिल गुत्थी: अनिल चौधरी का एक व्याख्यान

यह जो समय था अंदर से चीजों को बदलने का वो पूरा हो चुका है। वो दिन लद चुके हैं जब इस इमारत को ठोक पीटकर रिपेयर किया जा सकता था, ठीक किया जा सकता था। हमारे बाप दादाओं की पीढ़ी ने कोशिश करके देख लिया। हम भी लास्ट स्टेज में पहुंच चुके हैं।

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बात बोलेगी: ‘लोक’ सरकारी जवाब पर निबंध रच रहा है, ‘तंत्र’ खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है!

बात यहां केवल उन तीन सौ या दो हज़ार लोगों की नहीं होना चाहिए जिनके नाम छाप रहे हैं। बात उनकी भी होना चाहिए जिनके अंगूठे के निशान और आँखों की पुतलियों की आभा नुक्कड़ की दुकानों पर सरेआम बिक रही है। दो किलो धान या चावल के बदले, अपना ही टैक्स अदा करने के बदले, विदेश जाने की ख़्वाहिश के बदले हम सब ने अपनी-अपनी हैसियत और औकात के हिसाब से अपनी निजता खुद बेची है।

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बात बोलेगी: बीतने से पहले मनुष्यता की तमाम गरिमा से रीतते हुए हम…

हम पिछली सदी से ज़्यादा नाकारा साबित हुए। हमने संविधान को अंगीकार किया और अपनी आवाजाही और बोलने की आज़ादी पर बलात् तालाबन्दी को भी अंगीकार किया। हम एक अभिशप्त शै में तब्दील हो गये। हम न मनुष्य रहे, न नागरिक हो सके। हम कुछ और बन गये, जिसके बारे में अगली सदी में चर्चा होगी।

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