सुदामा प्रसाद: एक ऐसा उम्मीदवार जिसे जनस्वास्थ्य, पर्यावरण व पुस्तकालयों की भी चिंता है

जनता के मुद्दों को लेकर किसानों, मज़दूरों, विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ बिहार के आरा से लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर तक लड़ने वाली पार्टी के नुमाइंदे को अपना नुमाइंदा बनाना आरा के प्रबुद्ध मतदाताओं के हाथ में है। तीन तारों वाले चुनाव चिह्न में संघर्षों की लालिमा है, सतरंगी इंडिया गठबंधन से जुड़ा यह रंग जनता जनार्दन को पसंद है या नहीं ये 4 जून को ही पता चलेगा।

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बिहार: ऑनलाइन बिज़नेस में आत्मनिर्भर बनती महिलाएं

घाघरा और गंगा नदी के संगम पर बसे इस छोटे से शहर में भी महिला उद्यमियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और इसमें उनकी मदद की है इंटरनेट और प्रौद्योगिकीकरण ने। सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी के एडवांसमेंट ने न केवल महिलाओं के उद्यमी होने की संभावनाओं को बढ़ाया है बल्कि स्मार्टफोन और लैपटॉप की मदद से उनकी उंगलियों पर ला दिया है।

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जाति के बाँट-बखरे में पिटते छात्र-किसान और ढाई सौ करोड़ का जेट

ये पूरा मामला वोटों की खेती का है। लालू जानते हैं कि एम-वाय समीकरण को उच्चतम सीमा तक दोहन कर लिया गया है, इसलिए नये तरीके चाहिए वोटों के। नीतीश जानते हैं कि केवल कुर्मियों के वोट से कुछ नहीं होगा। भाजपा जानती है कि केवल सामान्य वर्ग के वोटों से वह बड़ी ताकत नहीं बन सकती है। हरेक बड़े समुदाय और जाति का बांट-बखरा हो चुका है।

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जातिवाद की नींव पर टिके समाज में जातिगत जनगणना का क्या मतलब है

बिहार के एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं, ‘बिहार का जातिवाद बिल्कुल ही अलग है। बाकी जगहों पर आप देखेंगे कि क्षेत्रवाद हावी हो जाता है जातिवाद पर। बिहार में हरेक पहचान से अलग और ऊपर जाति हावी है। सबकी पसंद आखिरकार जाति पर ही जाकर टिक जाती है, विनाश का यही मूल कारण है।’

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पावर के प्रति हिकारत और आकर्षण के द्वैत में लटका बिहार

स्वप्न तो उस अब्सोल्यूट पावर का सभी देखते हैं क्योंकि सभी को पता है कि प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) में जाने पर आप निरंकुश हो सकते हैं; बिना जिम्मेदारी के भरपूर माल कूट सकते हैं; मजा काट सकते हैं और आपका रुतबा बढ़ सकता है। अंतर्मन में हालांकि, यही ऑब्सेशन घृणा बनकर बैठा हुआ है।

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इतनी आसानी से क्यों आहत हो जाती है ‘बिहारी गरिमा’?

बिहार की नेता-बिरादरी को चूंकि पता है कि जनता अपने मसायल में व्यस्त है, इसलिए उसे फिलहाल कोई चुनौती मिलने वाली नहीं है। यही वजह है उसकी शॉर्ट-साइटेडनेस (छोटी सोच की) और बिहार के बिहार बने रहने की।

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यहां चालीस मौतों पर हंसी-मज़ाक क्यों चल रहा है?

बिहार में किसी भी समस्या पर आप चर्चा करेंगे तो जवाब में बाहुबली विधायक अनंत सिंह का वह बहुचर्चित वीडियो-संवाद सुनने को मिल जाएगा, जिसमें वह पुरुषों के अंग विशेष से शासन की तुलना कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर हाल बतर्जे जॉन एलिया हैः हाल ये है कि अपनी हालत पर / गौर करने से बच रहा हूं मैं…

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बिहार: कुर्सी बचाने की एक सामान्य घटना और दर्शकों की असामान्य उत्तेजना

नीतीश की राजनीतिक यात्रा को देखते हुए कोई सामान्य व्यक्ति भी यह बड़ी आसानी से कह सकता है कि वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि रखने वाले राजनेता हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे बड़ी आसानी से विचारधारा और नैतिकता के साथ समझौते कर सकते हैं।

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नित वेश बदलती महामारी और टीकाकरण की चुनौती: बिहार के कुछ ज़मीनी अनुभव

कोरोना बीमारी के साथ ही साथ सरकारों को ‘अफवाह की महामारी’ से भी लड़ना पड़ेगा। संचार के सशक्त होते माध्यमों से नागरिक आवाज़ों को जरूर बल मिला, लेकिन उसके साथ ही दबे पाँव उन समस्याओं का भी आगमन हुआ है जिनसे हम सब लड़ रहे हैं।

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लालू यादव से मोहब्बत के लिए चाहिए वो नजर जिसमें सामाजिक न्याय की आस हो!

वे ऐसी शख्सियत हैं जिसने करोड़ों लोगों की जिंदगी को कई तरह से प्रभावित किया है- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से। बहुसंख्य अल्पसंख्यकों, पिछड़ों व दलितों में उनकी छवि मसीहा की है तो सवर्णों, थिंक टैंक, मीडिया, इंटेलीजेंसिया में वह आंबेडकर के बाद भारतीय समाज के सबसे बड़े खलनायक हैं। आज उसी लालू यादव की 74वीं वर्षगांठ है।

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