चंबल की पहचान अकेले डाकुओं-बागियों से नहीं, बल्कि इस सरज़मीं पर अनेक क्रांतिकारी भी पैदा हुए हैं, जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए, अपनी जान तक न्यौछावर कर दी। आज भी यह धरती पूरी तरह से बंजर नहीं हुई है। देश की सेना में फौजी के तौर पर इस इलाके के सैकड़ों नौजवान अपनी सेवाएं दे रहे हैं। यहां के अनेक बहादुर सैनिक देश की सुरक्षा की खातिर शहीद हुए हैं।
साल 2016, क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ का शताब्दी वर्ष था। यह दल उत्तर भारत का सबसे बड़ा गुप्त क्रांतिकारी दस्ता था जिससे जुड़े क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत को अपने विप्लवी और साहसिक कारनामों से जमकर चुनौती दी थी। साल 1916 में ‘मातृवेदी’ दल का गठन चंबल के बीहड़ में ही हुआ था। महान क्रांतिकारी पं. गेंदालाल दीक्षित ने इसकी स्थापना की थी। कुछ जुझारू और संवेदनशील नौजवानों, जिसमें घुमंतू पत्रकार शाह आलम भी शामिल थे, की राय बनी कि इस मौके को खास बनाया जाना चाहिए। ‘मातृवेदी’ दल और उससे जुड़े क्रांतिकारियों के कारनामों को देश की नई पीढ़ी तक लाने के लिए चंबल के इन बीहड़ में साइकिल यात्रा की जाए।
इस साइकिल यात्रा का जिम्मा शाह आलम (जिन्हें पहले ही इस तरह की कई यात्राओं का तजुर्बा है, जिन्होंने दिल्ली से लेकर पाकिस्तान के मुल्तान तक पैदल नापा है) ने लिया और तीन महीने तक इस दुर्गम इलाके में साइकिल से घूमे। आजादी के आंदोलन के गुमनाम योद्धाओं की खोज की और फिर इस यात्रा का दस्तावेजीकरण किया, जो कि एक अहम काम है। चंबल फाउंडेशन से प्रकाशित किताब ‘बीहड़ में साइकिल’ इस पूरी यात्रा का सफ़रनामा है। इस सफरनामे में न सिर्फ जंग-ए-आजादी में चंबल की सरज़मीं से हिस्सा लेने वाले वतनपरस्तों के न भुलाये जाने वाले अनेक किस्से हैं, बल्कि इस इलाके के बाशिंदों की मौजूदा समस्याएं और उनकी संघर्षशील जिंदगी भी शामिल है। लेखक ने बड़ी तटस्थता और संवेदनशील तरीके से इन समस्याओं को उठाया है।
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान तीन राज्यों के बीच तकरीबन 400 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले चंबल में स्वतंत्रता आंदोलन की कई कहानियां बिखरी पड़ी हैं जिनमें कुछ लोगों को याद हैं तो बाकी को बिसरा दिया गया है। आजाद भारत में भी क्रांतिकारियों के स्मारक, उनसे संबधित दस्तावेज और उनकी यादें उपेक्षित पड़ी हैं। सत्ता के केन्द्र में कोई भी सरकार रही हो, क्रांतिकारियों की विरासत के प्रति उनका रवैया एक समान रहा है। किसी ने भी आगे आकर इनके संरक्षण की जिम्मेदारी नहीं ली। यही वजह है कि हमारी नई पीढ़ी भी इनके बारे में ज्यादा नहीं जानती। ‘बीहड़ में साइकिल’ किताब में लेखक ने इन्हीं क्रांतिकारियों की गौरवमयी गाथाओं को इकट्ठा किया है, तो खास तौर पर उन स्थानों की यात्रा की है जो इनसे जुड़े हुए हैं।
क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित के जन्म स्थान आगरा के बाह तहसील का मई गांव, शंभूनाथ आजाद का गांव कचौरा घाट, इटावा और जसवंतनगर का बिलैया मठ जहां 1857 की क्रांति में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज फौज से जमकर टक्कर ली थी। ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का ठिकाना रहा आगरा के नूरी दरवाजा स्थित ऐतिहासिक इमारत, जहां चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, डॉ. गया प्रसाद, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु आदि क्रांतिकारी इकट्ठे होते थे और यहीं से अपनी गतिविधियां चलाते थे।
लेखक की यात्रा में और भी कई अहम पड़ाव पड़े। मसलन क्रांतिवीर चौधरी राम प्रसाद पाठक का औरैया जिले का गांव देवकली, जहां उन्होंने अपने 17 साथियों के साथ शहादत दी थी। औरैया जिले का ही गांव बीझलपुर, जहां देश के पहले मुक्ति संग्राम 1857 में 81 क्रांतियोद्धा शहीद हुए। मुरैना जिले की अंबाह तहसील का बरबाई गांव, जो क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ का पैतृक गांव है, जहां बिस्मिल ने तीन महीने से ज्यादा समय बिताया। आजादी का गवाह इटावा जिले का भरेह गांव स्थित भरेह किला, जहां अब किले के अवशेष ही बाकी हैं। मैनपुरी जिले का गांव बेवर, जहां 15 अगस्त 1942 को एक छात्र समेत तीन लोग शहीद हुए थे। आजादी के आंदोलन के एक और गुप्त क्रांतिकारी संगठन ‘प्रजा परिषद’ के अध्यक्ष जगदीश गुप्ता, जो कि राजस्थान के धौलपुर में रहते हैं, किताब में उनसे भी बातचीत शामिल है।
इन सबके अलावा किताब में चंबल के ही एक और रणबांकुरे अर्जुन सिंह भदौरिया का भी जिक्र है जिन्होंने यहां ‘लाल सेना’ का गठन किया था। चंबल के बीहड़ों में अर्जुन सिंह भदौरिया ने गांव के लोगों को संगठित कर, अंग्रेजी हुकूमत से टक्कर ली थी। बात, शहीद रामचरण लाल शर्मा और क्रांतिकारी शिवचरण लाल की भी है, जो ‘मातृवेदी दल’ और बाकी क्रांतिकारियों से जुड़े हुए थे।
डोंगर-बटरी, मान सिंह, तहसीलदार सिंह, माधों सिंह, मोहर सिंह, निर्भय गुर्जर, सलीम गुर्जर, श्रीराम-लालाराम, फक्कड़-कुसमा, मलखान सिंह, विक्रम मल्लाह, फूलन देवी, सुल्ताना डाकू, पुतली बाई, अतर सिंह मुखिया, पान सिंह तोमर, सुरेश सोनी सर्वोदयी, लाखन सिंह और फिरंगी सिंह जैसे दुर्दांत डाकू, या बागी भी इस किताब का हिस्सा बने हैं। इनमें वे भी शामिल हैं, जो व्यवस्था की नाकामी से मजबूर होकर बागी बने थे। चंबल की बात होगी, तो इनका जिक्र किए बिना बात पूरी नहीं होगी।
यात्रा के दरमियान जो गांव, स्थल ऐसे आए जहां इन डाकुओं या बागियों की निशानी-कहानियां हैं, तो वे खुद-ब-खुद किताब का हिस्सा बन गए वरना, उनकी कहानियां किताब का विषय नहीं हैं। अलबत्ता बीहड़ के इन गांवों और उनमें रहने वाले बाशिंदों की समस्याओं को लेखक ने अहमियत के साथ उठाया है। आजादी के सात दशक से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी यहां के लोग बुनियादी समस्याओं रोजी-रोटी, बिजली-पानी के लिए जूझ रहे हैं। चंबल, सिंध, पहूज, क्वारी और यमुना नदी होने के बावजूद यह इलाका सूखे की विभीषिका झेलता रहता है। चर्चित ‘पचनदा’ बांध परियोजना, ‘कनैरा सिंचाई परियोजना’ सालों बीत जाने के बाद भी परवान नहीं चढ़ पाई हैं। लेखक ने इन सबका भी अच्छी तरह से जायजा लिया है। सीधे-सादे शिल्प और आमफहम भाषा में लिखी गई इस किताब में कई बोलती तस्वीरें भी हैं जो चंबल के हालात को खुद ही बयां कर देती हैं।
बीहड़ की इस यात्रा में लेखक को कई परेशानियां पेश आईं। जिस्मानी परेशानियां कोई मायने नहीं रखतीं, लेकिन जेहनी परेशानियां और अपमान व्यक्ति को तोड़ देता है। मसलन, सफर के दौरान फिरोजाबाद के टुंडला में पुलिसवालों ने लेखक को आतंकवादी बताकर उनके साथ दुर्व्यवहार तक किया। यही नहीं, मैनपुरी में पत्रकार जमात द्वारा भी उन्हें शक की नजर से देखना, आजाद हिंदुस्तान की ऐसी बदरंग तस्वीरें हैं जिसके लिए शायद ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी जां की कुर्बानी दी हो। उनके तसव्वुर में हिंदुस्तान का ऐसा चेहरा नहीं था। बावजूद इसके लेखक ने अपना हौसला नहीं खोया। जिस महत्वाकांक्षी मिशन के लिए वह निकला था, उसे बिना रुके-थके पूरा किया।
आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने वाले चंबल के गुमनाम नायकों को अकेले जानने के लिए ही नहीं, इस इलाके की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति को भी समझने के लिए ‘बीहड़ में साइकिल’ एक जरूरी दस्तावेज है। चंबल पर जो लोग गहन शोध करना चाहते हैं, उनके लिए भी यह किताब एक आधार का काम करेगी। किताब के लेखक शाह आलम को इस महत्वपूर्ण काम के लिए दिली मुबारकबाद!