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गाली किसी भी समाज की भाषाई संस्कृति का अभिन्न अंग है। गाली का ही आंचलिक शब्द है “गारी”। गारी और गाली में उतना ही अंतर है जितना शहर और गाँव में, धूप और छाँव में, शहद और करेले में। गाली भावनाओं को आहत करने के लिए अथवा अपमान के उद्देश्य से दी जाती है परंतु गारी प्रेम का परिचायक है। जिस शब्द का प्रयोग मांगलिक कार्यों में हो वे निन्दनीय तो हो ही नहीं सकता।
भारतीय भाषाओं में उच्चारण की विविधता देखने को मिलती है जिसकी वजह से हिन्दी शब्दों को आंचलिक भाषाओं में उच्चारित करने पर विविधता दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण के तौर पर मैथिली सहित और कई क्षेत्रीय भाषाओं में “ल” को “र” कह कर उच्चारित किया जाता है, जैसे- मछली को मछरी, आँचल को आँचर, झोला को झोरा। इसी तरह संस्कृत, मैथिली सहित कई भाषाओं में ष को ख कहा जाता है, जैसे बरखा, दोख, पुरुख आदि। “य” को “ज” उच्चारित करने से बने शब्द हैं संजोग, विजोग आदि!
हिंदी के अंचल में पहुंच कर गाली ऐसे ही गारी बन जाती है। गाली युद्ध और संबंध-विच्छेद का कारण हो सकती है जबकी गारी नये रिश्ते की शुरुआत और अपनत्व का परिचायक है। गारी से स्वयं राम, कृष्ण और शिव भी कहाँ बच पाए। गालियों का इतिहास सम्भवतः उतना ही पुराना हो सकता है जितनी कोई सभ्यता और संस्कृति। भाषा और भावनाओं के विकास के साथ साथ जैसे-जैसे हुआ होगा वैसे-वैसे गालियाँ भी विकसित हुई होंगी। कई पौराणिक ग्रंथों/महाकाव्यों में भी गाली का उल्लेख है।
जैसे महाभारत के एक प्रसंग में युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन के गांडीव का अपमान करने पर अर्जुन का ज्येष्ठ भ्राता को “तू” कहना गाली के समान ही अपमानित करने वाला भाव बताया गया है। कृष्ण-शिशुपाल प्रसंग में भी अपशब्दों का उल्लेख है।
लेखिका मेलिसा मोर ने गालियों पर एक किताब लिखी है। वे कहती हैं कि पहले लोगों के बीच इतनी दूरियां नहीं थीं। अक्सर वो एक दूसरे को बिना कपड़ों के देखते थे इसीलिए एक दूसरे के बदन को लेकर मज़ाक़ बनाने को गाली के तौर पर नहीं गिना जाता था।
वे कहती हैं कि गालियां देना, हमारे इंसान होने की निशानी है। अपनी भड़ास निकालने के लिए ये हमारी बुनियादी ज़रूरत है। धीरे-धीरे मानव ने रक्त संबंधों के विषय में जाना और गाली का वर्तमान स्वरूप हमारे सामने है।
गाली भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक जरिया है। मन के भीतर चल रही उथल-पुथल, गुस्से और अवसाद को लोग गालियों के माध्यम से व्यक्त कर पाते हैं। यदि समाज से गालियाँ हटा दी जाएं तो लोग मानसिक तनाव और अवसाद का शिकार हो सकते हैं। झगड़े के दौरान मारपीट से उत्त्पन्न हुई स्थिति से बचने और अहिंसा के प्रतीक के रूप में भी गालियों को देखा जा सकता है।
कहा जाता है कि अधिकतर गालियाँ स्त्रियों को इंगित कर के ही दी जाती हैं। मेरा अपना मानना है कि गालियाँ हमेशा विपरीत लिंगों को इंगित कर के दी जाती हैं और अधिकतर गालियाँ पुरुषों के द्वारा पुरुषों को ही दी जाती थीं। अतः इसमें विपरीत लिंग के रिश्तों को शामिल किया गया, मसलन किसी पुरुष को माँ अथवा बहन की गालियाँ देना।
आक्रमणकारी जब भारत आए तो वे अपनी सभ्यता और संस्कृति के साथ कई चीजें साथ ले कर आए। चूंकि गालियाँ किसी भाषा का अभिन्न अंग हैं वे गालियाँ भी हमारे समाज की संस्कृति में ऐसे घुल मिल गईं कि हमारे बोलचाल का हिस्सा बन गईं। उदाहरण के तौर पर भारतीय समाज में माँ को दी जाने वाली गाली का प्रथम शब्द है “मादर” जो फारसी का शब्द है इसका अर्थ है माँ। ऐसी ही हराम शब्द से भी बनी एक गाली है और ये भी फारसी का शब्द है।
आज भी मिथिला में विवाह के अवसर पर गारी गायी जाती है। रामचरित मानस में शिव और पार्वती के विवाह की भी चर्चा है। यहां इस बात का उल्लेख है कि शिव और पार्वती के विवाहोपरान्त जब बारात को भोजन कराया जा रहा था तब स्त्रियों ने बारात को गालियां गा कर सुनाईं। ऐसी ही एक रस्म मिथिलांचल में है जिसे भतखई कहते हैं। भतखई एक ऐसी रस्म है जब बारात भात खाती है। माना जाता है कि भात खिलाना अर्थात अपना बना लेना। यह एक ऐसी रस्म है जब बारात खाना खा रही होती है और महिलाएं गारी गाती हैं।
जब मिथिला के पाहुन राम मिथिला की धीया से ब्याह करने आए तब मिथिलानियों (मिथिला की नारियों) ने उन्हें गारी गाकर सुनाई। इस गारी के माध्यम से शास्त्रार्थ भी किया और चारो वरों को निरुत्तर भी किया। देवत्व को अपने अंदर समाहित किए पाहुन मुस्कुराते रहे और सुनते रहे मिथिला की विदुषी नारियों की गारी।
राम का देवत्व एक तरफ है परंतु मिथिला के लोगों और राम के बीच का रिश्ता भक्त और भगवान के रिश्ते से कहीं अलग है। राम भगवान से पहले हमारे लिए, हमारे मिथिला के लिए जमाता और बहनोई हैं तथा सीता बेटी और बहन। आज भी मिथिला में अयोध्यावासियों को, राम को, उलाहना दी जाती है, तंज किया जाता है, चुटकी ली जाती है।
मिथिला की बेटी को मिले कष्टों को लेकर ऐसे ही एक मैथिली गीत के बोल याद आते हैं।
“दण्ड भेदे करू कि
अपनाउ साम-दाम
हमर सीते जं बोन
अहां सुथनीक राम?”
अर्थात आपका रामत्व किस काम का जब हमारी सिया वन में हैं?
गारियों के माध्यम से मिथिला की नारियां राम सहित चारों भाइयों से शास्त्रार्थ भी करती हैं। ऐसी ही न जाने कितनी गारियाँ याद आती हैं। जैसे –
“अनका कहल किया आयलन महल
चारु लालन के पूछियऊ हे
बान्हू कसी बन्धन प्रबल सखी
दूल्हा के पूछियउन हे।”
जब चारों वर और वधुएं कोहबर में प्रवेश करती हैं, तब द्वार छेकने का एक गीत है जब मिथिला की नारियां वरों से अन्दर प्रवेश करने देने के एवज में नेग माँगती हैं और राम कहते हैं, “आप सबको मैं क्या दे सकता हूँ? आप सबने अपने नैनों से हमें पहले ही लूट लिया है।” इस पर मिथिलानी गीत गाती हैं और कहती हैं:
“हम्मर अपन केहनो छैथ पाहुन
अईस मतलब अनका की?
हिनकर पक्ष आब हम करबैन
आंहा दुसै छि हिन्का की?
अप्पन बहिन के बेइच दियो अईसा मतलब अनका की?”
कभी राम को उनके चलने के तरीके पर चिढ़ाया जाता है तो कभी साँवले रंग पर चुटकी ली जाती है! ऐसा ही एक गीत है:
“रसे रसे दूल्हा चलई छैथ कोना अगे माई कोल्हू के बरद चलईया जेना।”
अर्थात धीरे-धीरे दूल्हा कैसे चल रहा है जैसे कोल्हू का बैल चलता हो।
भरत से रहा नहीं जाता, वे मिथिलानियों को टोकते हैं और कहते हैं:
“हिनका कोल्हूआ के बरद कहलियै कोना?”
अर्थात तुमने इन्हें (राम को) कोल्हू का बैल कैसे कहा?
मिथिलानी बीच में ही उन्हें रोक कर कहती हैं, “हम कहलीयै एना चौरासी लाख जीव के पेरथी जेना।”
अर्थात ये वही हैं जो चौरासी लाख योनि रूपी कोल्हू में जीवों को पेर रहे हैं।
तात्पर्य ये कि गारी गाने वाली विदुषी जिसे भरत सहित लक्ष्मण और शत्रुघ्न मूर्खा समझ लेते हैं, वे समझ रही हैं कि जिनके साथ वे हास-परिहास कर रही हैं वे स्वयं ब्रह्म हैं।
मिथिला की नारियों के कण्ठ की मधुर स्वरलहरी आज भी वैवाहिक अवसर पर मिथिला के आंगनों को हर्षातिरेक से गुंजायमान करती है। ये परम्परा मिथिला में आज भी ठीक वैसे ही जीवित है।
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सोवियत साहित्य से मेरा प्रथम परिचय तब हुआ जब मैं 10वीं कक्षा में थी। अजीब बात है कि कबाड़खाने और कबाड़ी के ठेले पर रखी वस्तुएं मुझे आकर्षित करती हैं और मैं उनसे कुछ न कुछ खरीद ही लेती हूँ। ऐसे ही ये पुस्तक मुझे कबाड़ की दुकान पर किलो के भाव बिकते रद्दी में मिली और मैं मामूली दाम देकर ये मैली सी जिल्द वाली अमूल्य पुस्तक खरीद लाई।
सोवियत साहित्य के क्षेत्र में प्रथम पुस्तक जो मैंने पढ़ी थी वो यही थी, सोवियत साहित्य के पितामह कहे जाने वाले मक्सिम गोर्की की पुस्तक “थ्री ऑफ़ देम”। रादुगा प्रकाशन से प्रकाशित हुई हिन्दी अनुवाद वाली इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इसका हिन्दी नाम “उनमें से तीन” होना चाहिए था।
रुसी साहित्य का हिन्दी अनुवाद कर हिन्दी और रूसी भाषा के मध्य एक पुल का निर्माण करने वाले रादुगा प्रकाशन (मास्को) में सम्पादक अनुवादक रहे डॉ. मदन लाल मधु का आभार हिन्दी के पाठक सदैव व्यक्त करते रहेंगे। मधु जी ने न केवल शब्दों का अनुवाद किया बल्कि लेखक के भाव को भी पुस्तक में उतार सकने में सक्षम हुए।
यह मुख्यतः तीन लोगों की कहानी है। इसके तीन नायक हैं इल्या लुन्योव, पावेल ग्राचोव और याकोब फिलिमनोव। कहानी शुरू होती है केरजेनेत्स नदी के कछार के जंगलों और कठोर स्वभाव के धनी किसान अंतिपा लुन्योव से जो पचास वर्ष की आयु तक इस पापमय जीवन जीने के बाद सन्यासी बन कर जंगल में रहने लगा। पुस्तक का एक नायक इल्या लुन्योव का बाप और अंतिपा का बेटा याकोव गाँव में आग लगाने के जुर्म में साइबेरिया भेज दिया जाता है और अब इल्या के पालन-पोषण की जिम्मेदारी इल्या के चाचा तेरेंती पर आ जाती है।
रूस के एक गाँव से निकल कर इल्या चाचा के साथ शहर चला जाता है और एक गंदी झुग्गी में रहने लगता है जहां एक ही मकान में कई लोग रहते हैं। यहीं उसकी मुलाकात विभिन्न स्वभाव परंतु एक ही पृष्ठभूमि यानी सर्वहारा वर्ग के लोगों- पावेल ग्राचोव एवं उसके लोहार और कठोर स्वभाव के पिता सावेल, कबाड़ का काम करने वाले दयालू दादा येरेमई, शराबखाने के मलिक दुराचारी और भ्रष्ट पेत्रुखा, पेत्रुखा का धर्मभीरु और सरल बेटा याकोव सहित शराबी पेर्फिशका और उसकी बेटी माशा- से होती है।
इस पुस्तक के तीनों नायक उस गलाज़त से निकलने की कोशिश करते हैं जहां रहने को उन्हें मजबूर किया गया। वे नैतिक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लोगों को देख कर तिलमिलाते हैं। इसका एक नायक याकोव नेकदिल और भीरु है जो सदैव किसी न किसी पुस्तक में डूबा रहता है। ईश्वर और मानव सहित दुनिया की सभी चीज़ों की उत्त्पति को ले कर सवाल करता है और उसी में खोया रहता है। अपने पिता के शराबखाने में काम करने को मजबूर किया जाता है और पीटा जाता है। अंत में स्वयं को नैतिक भ्रष्टाचार के दलदल में फँसा देता है।
दूसरा नायक इल्या लुन्योव साफ-सुथरी जिंदगी बिताना चाहता है। उसकी आकांक्षाएं बस पेट भर लेने तक ही सीमित नहीं हैं। जीवन कैसे जिया जाए और नैतिक पतन से कैसे बचा जाए ये सोचते हुए वह अपराधी बन जाता है और अपनी नैतिकता खो देता है।
तीसरा नायक है सावेल लोहार का मनमौजी बेटा पावेल। पिता के द्वारा माँ की हत्या कर दिये जाने पर और पिता को हत्या के जुर्म में साइबेरिया भेज दिये जाने पर वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जाता है और अपने सामने कोई उद्देश्य रखता है। फटेहाली में भी मस्त रहता है, कविताएँ लिखता है और जेल की सैर भी कर आता है।
ये तीनों जीवन के क्रूर बन्धन से स्वयं को छुड़ाना चाहते हैं। अंत में केवल पावेल ही जीवन का सही मार्ग खोज सकने में सफल हो पाता है।
वे तीनों एक ही घर की अलग-अलग खोली में रहते हैं। इल्या कबाड़ का काम करने वाले दादा येरेमई का शागिर्द बन जाता है। वह कचरा चुनता है, मेहनत करता है और स्कूल भी जाता है। कबाड़ इकट्ठा कर वो शाम को घर लौटता है और घर के सभी बच्चों को कबाड़ से निकाल कर टूटे-फूटे खिलौने बांट देता। नन्हे परंतु तीक्ष्ण बुद्धि के कबाड़ी का स्कूल में अपमान होता है। दादा येरेमई की मृत्यु को काफी करीब से देखने वाला वो कबाड़ी पूरी दुनिया और अपने चाचा के नैतिक पतन को देख विरक्त हो जाता है। उसे घृणा होती है अपने चाचा और शराबखाने के मालिक पेत्रुखा से जब वो देखता है कि कबाड़ का काम कर दादा येरेमई द्वारा जोड़े गये पैसे जिसे वह एक गिरजाघर बनाने के लिए जमा करता है उसे वे चुरा लेते हैं, वो भी तब जब येरेमई की आखिरी सांसें चल रही होती हैं।
स्कूल छोड़ वह एक मछली की दुकान में काम करने लगता है लेकिन अधिक ईमानदार होने की वजह से वहाँ से निकाल दिया जाता है। मछली की दुकान का मालिक उसे निकालने से पहले कहता है, “मुझे इस बात से क्या मतलब कि तीन में से एक आदमी ईमानदार है?
मेरे लिए तो एक ही बात है। हमें एक खास किस्म की कसौटी चाहिए। अगर एक ईमानदार हैं और नौ बदमाश तो उस से किसी का कोई भला नहीं होने का और जो ईमानदार है उसका अंजाम बुरा होगा… लेकिन सात ईमानदार हैं और तीन बदमाश तो तुम्हारे पक्ष की जीत होगी। जो गिनती में अधिक होते हैं वे सही होते हैं।”
दुकान का मालिक यह कहते हुए उसे उसकी ईमानदारी की वजह से निकाल देता है और इल्या वापस घर लौट आता है। अब वह फेरी वला बन जाता है और गले में बक्सा लटका शहर की सडकों पर सामान बेचा करता है। यह घर इल्या को अभिशप्त लगता है जहाँ से चाह कर भी कोई निकल कर साफ-सुथरी जिंदगी नहीं जी सकता।
शराबखाने के शोर से बच कर शाम को ये युवा कैसे जीवन जिया जाए, कौन सी किताबें पढ़ी जाएं, दुनिया की उत्पत्ति कैसे हुई ये विचार करते हुए गर्मागर्म बहस और समोवार से गर्मागर्म चाय पीते हुए तथा पत्ते खेलते हुए पेर्फीश्का मोची के तहखानेनुमा घर में बिताते है।
गौर करने पर लगता है कि सर्वहारा वर्गों की दशा दुनिया के सभी भागों में लगभग एक सी ही है। भारत और रूस की समाजिक व्यवथा काफी मिलती-जुलती थी। अतः गोर्की को समझ सकने में अधिक दिक्कत नहीं होती।
मेहनतकश लोगों एक ऐसा वर्ग जो समाज में वर्गहीन होता है, दुनिया के सभी क्षेत्रों में इनकी स्थिति कमोबेश ऐसी ही रही है। अच्छा जीवन कैसे जिया जाए सोचते-सोचते ये लोग कब नैतिक पतन और नैतिक भ्रष्टाचार के शिकार होते चले जाते हैं इन्हें भी नहीं पता चलता।
हमेशा की तरह बुर्जुआ तथा सर्वहारा वर्ग के बीच चल रहे संघर्षों को गोर्की ने इस उपन्यास में भी बखूबी उकेरा है।
गोर्की की लेखनी के प्रभाव का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि औपनिवेशिक भारत में गोर्की की किताब ‘माँ’ को पढ़ना गैरकानूनी था। गोर्की को पढ़ना सिर्फ रूस को जानना भर नहीं है। गोर्की की लेखनी संसार के सभी भागों के लोगों को समझने में मदद करती है जो स्वयं को जीवन के क्रूर बन्धन से छुड़ा सकने के लिए जद्दो-जहद कर रहे हैं।