अकेले वामपंथ ही क्यों है भगत सिंह की विरासत का असली दावेदार?


भगत सिंह को सब अपनाना चाहते हैं लेकिन भगत सिंह की वैचारिक विरासत का संवाहक एवं दावेदार वामपंथ है। भगत सिंह मसीहा नहीं थे और ना ही मसीहाई में विश्वास रखते थे। भगत सिंह में वर्गीय समझ थी जो तर्कपूर्ण अध्ययन से मिलती है। उनमें अपनी उम्र के लिहाज से अधिक परिपक्वता थी जो लगातार पढ़ने-लिखने और मज़दूर आंदोलन के संपर्क में आने से उन्होंने अर्जित की थी। भगतसिंह के समय में भारत में वामपंथी आंदोलन अपने शुरूआती दौर में था और भगत सिंह उसके एक हिस्से थे। भारत के वामपंथी आंदोलन को भगत सिंह के विचारों को लेकर आगे बढ़ना चाहिए और पहचान की राजनीति के ऊपर वर्गीय समझ को जगह देनी चाहिए। 

प्रो. चमन लाल

यह विचार सामने आए शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयंती के अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश द्वारा हाल में आयोजित एक वेबिनार में। भगत सिंह के बारे में खोजपूर्ण जानकारी एकत्र करने वाले विख्यात अध्येता, चिंतक प्रोफेसर चमनलाल कार्यक्रम के पहले वक्ता थे।

उन्होंने “भारत के वामपंथी आंदोलन में भगतसिंह का महत्व” विषय पर अपने व्याख्यान में कहा कि भगतसिंह के बाल मन पर परिवार से मिले क्रांतिकारी संस्कारों का असर था। उनके दादा अर्जुन सिंह और चाचा अजीत सिंह भारत की आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय थे। उन्होंने लाला लाजपत राय के साथ काम किया था। अजीत सिंह 38 वर्षों तक विदेश में ही रहकर भारत की आज़ादी के लिए लड़ते रहे थे। सन 1946 में जवाहरलाल नेहरू उन्हें भारत लाए। भगतसिंह के बचपन का प्रसिद्ध वाक़या है जिसमें वे अपने चाचा को छुड़ाने के लिए बंदूकों की फसल उगाने की इच्छा व्यक्त करते हैं। सन 1919 में जब भगतसिंह 12 वर्ष के थे, जलियांवाला बाग कांड के बाद वहां की मिट्टी लेकर आने की घटना ने ही उनके भावी जीवन की नींव रख दी थी।

प्रोफेसर चमनलाल ने अपने व्याख्यान को आगे बढाते हुए कहा कि उन दिनों में पंजाब का किसान कर्ज में डूबा हुआ था, और लाला बाँके लाल द्वारा लिखे गीत “पगड़ी संभाल जट्टा, तेरा लुट गया माल जट्टा” पर आधारित किसान आंदोलन चल रहा था। आज उसी तरह के आंदोलन की झलक वर्तमान किसान आंदोलन में भी दिखाई दे रही है। पंजाब में महिलाएं भगत सिंह का चित्र लेकर प्रदर्शन कर रही हैं।

सोलह वर्ष की आयु में भगत सिंह कांग्रेस द्वारा संचालित आंदोलन में शामिल हो गए, लेकिन चौरी-चौरा की घटना पश्चात आंदोलन वापस लेने के निर्णय से अन्य क्रांतिकारियों के समान वे भी निराश हुए और उन्होंने देश की आजादी के लिए दूसरा मार्ग अपनाने के बारे में विचार करना शुरू कर दिया। उन दिनों गांधीजी के आह्वान पर राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा संस्थान स्थापित किए जा रहे थे। लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज के प्राचार्य छबीलदास समाजवादी विचारक थे। वहीँ भगतसिंह पढ़ते थे। छबीलदास जी द्वारा लाहौर में एक पुस्तकालय “द्वारकादास लाइब्रेरी” स्थापित की गई थी। “द्वारकादास लाइब्रेरी” में अन्य साहित्य के अलावा मार्क्सवादी साहित्य भी उपलब्ध होता था। भगतसिंह उस पुस्तकालय के एक सजग पाठक थे। भारत के विभाजन के बाद उस लाइब्रेरी की किताबें चंडीगढ़ लाई गईं और नया पुस्तकालय स्थापित हुआ जिसमें भगतसिंह द्वारा पढ़ी गई पुस्तकों को एक अलग कक्ष में रखा गया है। इसी लाइब्रेरी में भगतसिंह ने मार्क्सवाद का अध्ययन किया था।

प्रो. चमनलाल ने आगे बताया कि उन दिनों गदर पार्टी द्वारा ‘कीर्ति’ नामक पत्रिका प्रकाशित की जाती थी। भगतसिंह उस पत्रिका के लिए विभिन्न विषयों पर लेख और संपादकीय लिखते थे, और उनके सहयोगियों में भगवतीचरण वोहरा, शिव वर्मा आदि भी थे। सन 1924 में “नौजवान भारत सभा” का गठन हुआ था और 1926 में उसके अधिवेशन में भगतसिंह शामिल हुए। उन दिनों वे पढ़ रहे थे और परिवार की तरफ़ से उन पर विवाह करने का दबाव था, जिससे बचने के लिए भगत सिंह ने घर छोड़ दिया। कॉलेज के प्रोफेसर जयचंद विद्यालंकर ने उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पत्र दिया जो उन दोनों कानपुर में ‘प्रताप’ पत्रिका प्रकाशित कर रहे थे, कानपुर में भगतसिंह की मुलाकात कम्युनिस्ट नेता मुजफ्फर अहमद, तर्कवादी राधामोहन गोकुल आदि से हुई। भारत की आज़ादी के लिए चल रहे आंदोलन और भारत के भविष्य को लेकर उनमें चर्चा हुआ करती थी, जैसे आज़ादी किसके लिए चाहिए? इस पर विचार-विमर्श होता था। कांग्रेस संगठन में मजदूर किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं था, और उन्हीं दिनों रुस की सोवियत क्रांति का आदर्श भी नौजवानों के सामने था। वे चाहते थे कि आज़ाद होने के बाद भारत की बागडोर मजदूरों किसानों के हाथों में हो, ताकि भारत में भी समाजवाद की स्थापना की जा सके।

हमारा आदर्श भगतसिंह होना चाहिए। भगतसिंह के कई लेख देश की विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध हैं, उनकी जेल डायरी 25 भाषाओं में छप चुकी है‌। भगतसिंह उस समय इतने महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व बन चुके थे कि उनके निधन पर पेरियार और अंबेडकर ने संपादकीय लिखे थे। आज भगतसिंह की विरासत को आगे ले जाने की जरूरत है। दक्षिणपंथी संगठन भगतसिंह के बारे में जो झूठ फैला रहे हैं, उसका प्रतिकार भी जरूरी है। जेल में भगतसिंह ने समाजवादी क्रांति का जो प्रारूप बनाया था, वही सब कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यक्रमों में भी मौजूद है। भगतसिंह देश में वामपंथ के लिए समृद्ध विरासत छोड़कर गए हैं, उनके अनेक साथी बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए। 

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने बड़े रोचक ढंग से “भगत सिंह के भगत सिंह बनने की प्रक्रिया” को गदर पार्टी के इतिहास से शुरू करते हुए तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण किया। कॉमरेड विनीत तिवारी ने बताया कि पंजाब से हज़ारों किसानों को अंग्रेज़ों द्वारा मेहनत-मज़दूरी और ग़ुलामी के लिए कनाडा और अमेरिका ले जाया गया था। वे लोग वहाँ रहते हुए भी भारत की आज़ादी का सपना देखते थे और उन्होंने 1913 में ग़दर पार्टी बनाकर भारत की आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष योजना बनाई।

उसी के तहत भारत के ग़दरी क्रांतिकारियों ने जापान से एक जहाज ख़रीदा जिसका नाम था कोमागाटामारू। कोमागाटामारू से 376 गदरी इंक़लाबी हॉंगकॉंग से जापान, चीन होते हुए कनाडा जा पहुँचे जहाँ उन्हें कनाडा ने दाख़िल नहीं होने दिया और वापस लौटा दिया। अनुभवहीन, भोले लेकिन जोशीले क्रन्तिकारी वापस कोलकाता के बंदरगाह पहुँचे तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत में घुसने से रोक दिया। संघर्ष हुआ, 20 गदरी क्रांतिकारी मारे गए और बाकी गिरफ्तार करके काला पानी और दूसरी जेलों में भेज दिए गए। उस वक़्त भगतसिंह की उम्र सिर्फ़ 7 वर्ष की थी लेकिन पूरे पंजाब में गदरी क्रांतिकारियों का नाम बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर था। इसके महज तीन वर्ष बाद रूस में लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक इंक़लाब हुआ जिसने ग़दर आंदोलन के बचे हुए क्रांतिकारियों को फिर एक उम्मीद की राह दिखाई। भगतसिंह की उम्र उस समय 10 बरस की थी लेकिन रूस और लेनिन का नाम भारत की आज़ादी चाहने वालों के बीच भरपूर लोकप्रिय था चाहे वे गाँधीवादी हों या अलग विचार के क्रान्तिकारी हों। 

सन 1918 में अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तुर्की में ब्रिटिश साम्राज्यवाद वहाँ के ख़लीफ़ा को अपदस्थ कर रहा था, जिसे इस्लामिक धर्मगुरू का ओहदा भी हासिल था। इसकी वजह से भारत के मुसलमान भी ब्रिटिश के खिलाफ और खलीफा के पक्ष में आज़ादी के आंदोलन में बड़े पैमाने पर शामिल हो गए। ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ होने से ख़िलाफ़त आंदोलन को महात्मा गाँधी का समर्थन भी प्राप्त था। तभी जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड हुआ जिसने 12 बरस के भगतसिंह को भीतर तक हिलाकर रख दिया था। देश के भीतर और बाहर हो रहीं इन सभी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य को समझने से ही भगतसिंह के भगतसिंह बनने की प्रक्रिया को समझा जा सकता है।

इधर भगतसिंह जलियाँवाला बाग़ और अपने आसपास घट रही घटनाओं से देश की आज़ादी  आंदोलन में सक्रिय होने के लिए तैयार हो रहे थे और दूसरी तरफ भारत के कुछ इंक़लाबी रूस और सोवियत संघ की ख़बरें पाकर वहाँ से क्रांति के सूत्र हासिल करने का सोच रहे थे। सोवियत क्रांति ने बड़े पैमाने पर अंग्रेज़ों की दासता के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले आज़ादी के आंदोलनों को हिम्मत दी थी। ईरान, तुर्की और अफ़ग़ानिस्तान के भीतर ब्रिटिश विरोधी ताक़तें सत्ता के नज़दीक पहुँच रही थीं। अफ़ग़ानिस्तान में अमानुल्लाह खान ने बादशाहत सँभालते ही अपने देश को ब्रिटिश नियंत्रण से आज़ाद घोषित कर दिया था और आह्वान किया कि जो मुसलमान भारत में ब्रिटिश गुलामी से बाहर आना चाहते हों, उनका अफ़ग़ानिस्तान में स्वागत है। अप्रैल, 1920 में दिल्ली में मुसलमानों की एक सभा हुई और हज़ारों मुसलमानों ने अफ़ग़ानिस्तान जाने का फैसला कर लिया। इनमे अधिकांश तो वे थे जो खिलाफत आंदोलनमें शामिल में थे लेकिन उसकी असफलता से अंदर ही अंदर गुस्से और हताशा में थे। इन्हीं में कुछ ऐसे क्रान्तिकारी भी थे जो सोच रहे थे कि अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंचकर किसी तरह रूस पहुँच जाया जाए जहाँ क्रांति का पूरा प्रशिक्षण लेकर ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंका जाये और समाजवाद कायम किया जाये। एक अनुमान के मुताबिक करीब 36 हज़ार मुसलमान 1920 में अफ़ग़ानिस्तान गए।

अँगरेज़ सरकार ने भी इन 36 हज़ार उपद्रवी तत्वों से निजात पाने में ख़ुशी महसूस की और उन्हें भारत से जाने की अनुमति दे दी। इनमे ऐसे क्रान्तिकारी भी थे जो मुसलमान नहीं थे लेकिन मुस्लिम नाम रखकर रूस जाने के लालच में अफ़ग़ानिस्तान जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर वे निराश हुए जब अमानुल्लाह ख़ान के प्रशासन ने उन्हें अंग्रेज़ों के खिलाफ किसी भी लड़ाई में सीधे मदद देने से इंकार कर दिया। उनमे से अनेक तो यही सोचकर गए थे कि अफ़ग़ानिस्तान से गोला-बारूद और हथियार लेकर खैबर दर्रे के पास के जंगलों से ढँके पहाड़ों से अंग्रेज़ों के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई शुरू देंगे। वे बहुत निराश हुए, लेकिन उनमें से 82 लोग 300 मील के दुरूह पहाड़ी सफ़र को पूरा कर अफ़ग़ानिस्तान से रूस जा पहुँचे। उन्हीं में से एक शौकत उस्मानी थे जो ताशकंद में एम. एन. रॉय से और अन्य भारतीय क्रांतिकारियों से मिले और उन्होंने ताशकंद में ही। सोवियत संघ में उन्हें हथियार चलाने आदि का प्रशिक्षण तो दिया ही गया, साथ ही मार्क्सवाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी बना ली, हालाँकि व्यवस्थित तरह से सीपीआई भारत में 1925 में ही बनी।

Formation of the Communist Party of India at Tashkent (1920)

ताशकंद में मौजूद इन भारतीय कम्युनिस्टों को सैद्धांतिक प्रशिक्षण भी दिया गया। यह इंकलाबियों की दूसरी धारा थी जो सोवियत संघ में सशस्त्र क्रांति का प्रशिक्षण लेकर भारत में सिर्फ आज़ादी ही नहीं बल्कि मेहनतकशों का समाजवादी राज लाना चाहती थी, लेकिन उनके साथ एक अलग ही त्रासदी हुई।

सन 1920 में ही लेनिन द्वारा संयोजित तीसरे इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस हुई थी जिसमें बहस के बाद ऐसे देशों के लिए एक नीति स्वीकार की गयी जहाँ आज़ादी के आंदोलन चल रहे थे लेकिन वे अपने चरित्र में समाजवादी नहीं भी थे। उस नीति के मुताबिक कम्युनिस्टों को अपने-अपने देशों में चल रहे ऐसे आज़ादी के व्यापक आंदोलनों से जुड़कर उनमे सक्रिय होने के लिए कहा गया और यह कि आज़ादी के इन आंदोलनों में शामिल होकर उनका चरित्र समाजवादी मूल्यों की ओर मोड़ने का प्रयास करें। कहाँ तो सशस्त्र क्रांति का ख्वाब सजाये हज़ारों मील दूर पहुँचे ये नौजवान और कहाँ ये फैसला कि वापस जाकर जनांदोलनों के ज़रिये अपनी जड़ें मज़बूत करो। शौकत उस्मानी ने अपनी किताब “पेशावर से मॉस्को” में लिखा है कि हममें से कुछ तो लौटे ही नहीं और जो लौटे वो यहाँ चल रहे वामपंथी आंदोलनों में ठीक से फिट ही नहीं हो सके। हालाँकि शौकत उस्मानी मेरठ षड्यंत्र कांड में और लाहौर षड्यंत्र कांड में अभियुक्त थे और 1970 के दशक में अपनी मृत्यु तक वे सीपीआई के सदस्य रहे लेकिन भारत में 1925 में बनी कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य नेताओं जैसे श्रीपाद अमृत डाँगे या पी. सी. जोशी की तरह उनका बड़ा जनाधार नहीं बन सका।  

सन 1925 – यही वो साल था जब भगतसिंह को कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी और मज़दूर आंदोलन के नज़दीक आने का मौका मिला। वह भगतसिंह की ज़िंदगी का सबसे अहम साल था। यहीं उन्होंने समाजवाद और वर्गीय राजनीति और नास्तिकता के ठोस सबक हासिल किये थे। मेहनतकश तबके के संघर्ष के इतिहास को जानने से ही उन्हें ये समझ हासिल हुई जो उन्होंने अपने आखिरी खत में लिखी है – “ये लड़ाई न हमसे शुरू हुई थी और न हम पर ख़त्म होगी।”  आशय यह कि शोषण के खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी और यही क्रांति के विज्ञानं को समझने का आधार बना। 

भगतसिंह के समय में गांधीजी के आंदोलन के साथ ही भारत में तीन तरह की वामपंथी धाराएँ सक्रिय थीं। सोवियत संघ की तर्ज पर इंक़लाब चाहने वालों की धारा जो या तो मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टी में शरीक हो गई या फिर सूख गई। दूसरी धारा थी मज़दूर आंदोलन के ज़रिये व्यापक जनांदोलन खड़ा करके ब्रिटिश को चुनौती देने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की धारा। तीसरी धारा थी ऐसे क्रांतिकारियों की जो विकसित हो रही थी। जैसे भगतसिंह ने अपने संगठन का नाम हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी और एसोसिएशन (एचआरए) से बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी और एसोसिएशन (एचएसआरए)  रखा। अनुशीलन समिति से अलग हुए अनेक समूह एकजुट हो रहे थे और उस वक़्त की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से वे सभी संपर्क में थे।

भगतसिंह के साथी विजय कुमार सिन्हा ने अपने एक लेख में लिखा है कि 1928 में शौकत उस्मानी ने सोवियत संघ में होने वाली किसी अंतरराष्ट्रीय मीटिंग के लिए भगतसिंह का नाम प्रस्तावित किया था लेकिन भगतसिंह ने कहा कि पहले यहाँ कुछ कर लें तब वहाँ जाएँगे। बाद में तो असेम्ब्ली में बम फेंकने के बाद उनकी गिरफ़्तारी और फिर फाँसी हो गई और ये संभव ही न हो सका। लेकिन 21 जनवरी 1930 को लेनिन के जन्मदिन पर तार भेजकर और अदालत में “समाजवाद ज़िंदाबाद”, और “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल” ज़िंदाबाद के नारे लगाकर भगतसिंह ने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया था। इसीलिए भगतसिंह को दक्षिणपंथी झुठला नहीं सकते और उन्हें अपना भी नहीं सकते। जेल में भी भगतसिंह ने जो पढ़ा, उसने उनका और भी विकास किया। जेल में पढ़ी किताबों में से एक का ज़िक्र करते हुए विनीत तिवारी ने कहा कि पीटर क्रोपोटकिन का लेख “नौजवानों के नाम एक अपील” भगतसिंह के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था।

Shaukat Usmani

क्रोपोटकिन का ज़िक्र आने पर विनीत तिवारी ने बताया कि 1842 में रूस में जन्मे क्रोपोटकिन अराजकतावादी थे और ज़ार के खिलाफ होने की वजह से वे रूस से बाहर ही रहे और ज़्यादातर वक़्त उन्होंने स्विट्ज़रलैंड में और योरप के अन्य देशों में गुजारा लेकिन 1917 में रूस में इंक़लाब होने पर वे करीब 40 बरस बाद रूस वापस आये और आते ही इंक़लाब से और बोल्शेविक इंकलाबियों से उन्होंने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की कि रूस में समाजवाद ठीक से नहीं लागू हो सका है। लेनिन के व्यक्तित्व को इस घटना से समझा जा सकता है कि जब 1921 में क्रोपोटकिन की मृत्यु हुई तो क्रोपोटकिन के समर्थकों को बोल्शेविक विरोधी नारे लिखी हुई तख्तियाँ लेकर प्रदर्शन की इजाज़त भी लेनिन ने दे दी। 

कॉमरेड विनीत तिवारी ने अपने व्याख्यान को समाप्त करते हुए कहा कि भगत सिंह अपनी आयु से अधिक परिपक्व थे और उनमें वर्गीय समझ थी, वे शास्त्रार्थ और तर्क से अपने विरोधियों को पराजित करने में सक्षम थे। भगत सिंह की किसी से भी तुलना नहीं की जानी चाहिए और उन्हे मसीहा बनाए जाने के प्रचार से भी बचा जाना चाहिए, क्योंकि वे स्वयं किसी भी क़िस्म की मसीहाई में विश्वास नही रखते थे।

अतिथियों का स्वागत करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के महासचिव कॉमरेड शैलेंद्र शैली ने कहा कि भगत सिंह को याद करते रहना नई ऊर्जा प्रदान करता है, उन्होंने महान लक्ष्य के लिए कुर्बानी दी थी।

संचालन करते हुए कॉमरेड सत्यम पांडे ने कहा कि भगत सिंह ने भारत के भविष्य का सपना देखा था और वे भारतीय वामपंथी आंदोलन के सबसे बड़े प्रतीक हैं।

कार्यक्रम में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) छत्तीसगढ़ के महासचिव अजय आठले के निधन पर उनके अवदान को स्मरण करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई


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