कोरोना, दिव्यांग और यूनिवर्सल डिज़ाइन का संकट


मेरे मित्र राजेश आसूदानी रिजर्व बैंक के एक बड़े अधिकारी होने के अलावा प्रखर वक्ता, सिंधी, हिंदी और अंग्रेजी भाषा के कवि हैं, मनोविज्ञान और दर्शन समेत तमाम विषयों पर अधिकार से बोलते हैं। वे जन्म से ही दृष्टिहीन हैं। वह कहते हैं कि कोरोना काल में जब दो गज की दूरी न्यू नॉर्मल हो जाएगी तो हमारा हाथ कौन पकड़ेगा? सड़क पार कराने से लगाकर परीक्षा देने तक हमें लगातार दूसरे इंसानों की मदद चाहिए होती है। जब आम दिनों में ही इस मदद के लिए हमें गिड़गिड़ाना पड़ता हो तब कोरोना के बाद शायद ही कोई आगे आए। कोरोना के साथ छुआछूत का एक नया सिलसिला शुरू हुआ है। ग्लव्स पहनना अनिवार्य किया जा रहा है, ऐसे में हम जैसे लोग जो हर चीज़ को छू कर ही महसूस कर सकते हैं, चीज़ों को कैसे पहचानें? अब तक सभी एयरलाइंस अपने दृष्टिहीन ग्राहकों को पूरी यात्रा के दौरान ग्राउंड स्टाफ मुहैया कराते थे। कोरोना के बाद किसी एयरलाइंस ने अभी तक इस मामले में कुछ नहीं कहा है।

सरकार ने कोरोना काल मे दिव्यांगों की सहायता के लिए जो गाइडलाइन जारी की है, वह अस्पष्ट और नाकाफी है। इस गाइडलाइन के मुताबिक विकलांग व्यक्ति को सहारा दे रहे व्यक्ति को पीपीई किट मुहैया करायी जानी चाहिए मगर यह किट कौन देगा, किसे देगा, कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यह वैसा ही है, जैसा 2016 में बना कानून ‘राइट्स आफ डिसेबिल्ड पर्सन’ जो कहता है,सभी लोग दिव्यांगों को ‘उचित’ सहायता मुहैया करायी जाना चाहिए। इस ‘उचित’ की कोई परिभाषा नहीं है। इसमें यह भी नहीं लिखा हुआ है कि यदि कोई सहायता न दे तो क्या? इसलिए सड़कों या सार्वजनिक जगहों पर दिव्यांगों को सहायता मिलना अब भी दया का मामला है,अधिकार का नहीं।

कोरोना के बहाने आइए हम समझें कि हमने जो दुनिया बनायी है, उसमें दिव्यांगों के लिए कितनी ओर कैसी जगह है। हमारे घर, दफ्तर, सड़क, फुटपाथ, लिफ्ट, सिनेमा, रेलवे स्टेशन बनाने में क्या हम दिव्यांगों का ख्याल रखते हैं? हमारे जीवन को आसान बनाने वाले उपकरण मोबाइल फोन, कंप्यूटर, टीवी, कार, गैस चूल्हा, मिक्सर, ग्राइंडर या ओवन डिजाइन करते समय हमारे इंजीनियर किसी विकलांग की शारीरिक सीमाओं के बारे में कुछ विचार करते हैं?

भारत सरकार का एक अभियान है- ‘सुगम्य भारत’। इसके तहत सभी सार्वजनिक इमारतों, सड़कों, पैदल मार्ग, बस, ट्रेन, हवाई अड्डे, शौचालय, आपातकालीन द्वार समेत आने-जाने के सभी साधनों को इस तरह बनाया जाएगा ताकि किसी दिव्यांग को इनके इस्तेमाल में असुविधा ना हो। परंतु कुछ एक इमारतों में रैंप बनाने के अलावा इस दिशा में अब तक कोई खास काम नहीं हुआ है। हमारे इंजीनियर और डिजाइनर दिव्यांगों की मुश्किलों के बारे में न तो जानते हैं और न ही परवाह करते हैं।

बताते हैं एक शहर में जब बीआरटीएस बन रहा था तब प्रोजेक्ट कंसल्टेंट ने पैदल लेन में एक खास किस्म की टाइल्स लगाने की सिफारिश की थी जिसमें उभरी हुई धारियों की डिजाइन बनी होती है, ताकि कोई दृष्टिहीन अपनी लाठी या पैरों से सड़क की दिशा को समझकर उसके समानांतर चल सके। जब टाइल लगाने की बारी आयी तब स्थानीय इंजीनियरों ने सोचा कि टाइल पर उभरी ये धारियां सुंदरता बढ़ाने की कोई डिजाइन है और यदि एक टाइल सीधी और एक आड़ी लगा दी जाय तो ज़्यादा सुंदर लगेगी। बाद में असल वजह पता लगने पर बहुत सी टाइल्स उखाड़ कर सही करनी पड़ी। आम लोगों की तरह इंजीनियर भी नहीं जानते कि इन टाइल्स को टेक्टाइल डिज़ाइन कहते हैं। इसे सबसे पहले जापान में दृष्टिहीनों की सहायता के लिए इस्तेमाल किया गया था। धारियों के अलावा इनमें उभरी हुई गोल आकृतियां भी बनी होती हैं। इन सब का एक खास मतलब होता है। आपने रेलवे प्लेटफार्म पर किनारे के समानांतर लगी इन टाइल्स को देखा होगा। यह दृष्टिहीन को बताती हैं कि प्लेटफॉर्म का किनारा कितनी दूर है ताकि वे रेलवे ट्रेक पर गिर न जाएं या लिफ्ट या सीढ़ी करीब है, आदि।

दुनिया भर में किसी डिजाइन को अच्छा तब माना जाता है जब वह यूनिवर्सल हो यानि उस प्रोडक्ट, इमारत या एप्लीकेशन को बनाते समय सभी तरह के लोगों की सुविधा का ख्याल रखा गया हो। हमारे डिजाइनर अमीरों की चाकरी में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनकी यूनिवर्सल की परिभाषा में से से गरीब और दिव्यांग बाहर ही रहते हैं। आर्किटेक्ट इंजीनियरों की संस्थाएं लाखों रुपये खर्च करके सालाना जलसे करती हैं जिनमें फाइव स्टार होटल में खाना-पीना, फैशन शो जैसे कार्यक्रम होते हैं, पर शायद ही कभी यूनिवर्सल डिजाइन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर पर कोई गंभीर चर्चा हुई हो।

दिव्यांगों के साथ सबसे बड़ा भेदभाव सड़कें बनाने में होता है। हमारे इंदौर में सड़क चौड़ी करने के लिए सैकड़ों घर ढहा दिए गये, कई परिवार हमेशा के लिए तबाह हो गये ताकि महंगी कारें फर्राटे से दौड़ते हुए एयरपोर्ट पहुंच सकें, पर पैदल व्यक्ति के लिए फुटपाथ बनाने की चिंता किसी को नहीं होती। कभी रीगल चौराहे को पैदल पार करके देखिए, खतरों के खिलाड़ी जैसा मज़ा आएगा। हम सड़कों के बीच ऊंचे डिवाइडर बना देते हैं ताकि पैदल व्यक्ति सड़क क्रॉस न कर सके और हमारी कारें निश्चिंत होकर भाग सकें, मगर सोचिए एक दिव्यांग व्यक्ति सड़क क्रॉस करने के लिए पहले अपनी बैसाखियां खटकाते 500 मीटर एक दिशा में चल कर पुल तक पहुंचे, फिर 50 सीढ़ियां चढ़े, 50 सीढ़ियां उतरे, फिर 500 मीटर वापस आये! सिर्फ इसलिए ताकि आपकी कारें तेज चल सकें? यह कैसा यूनिवर्सल डिजाइन है? नगर निगम टैक्स सबसे लेता है पर डिजाइन के केंद्र में कार वाले हैं। पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है। हर डिजाइन के केंद्र में एक वयस्क माचोमैन है, जिसके उपभोग के लिए हमें चीजें डिजाइन करनी है।

हर साल मई के तीसरे गुरुवार को ‘वर्ल्ड एक्सेसिबिलिटी डे’ मनाया जाता है। इसका मकसद डिजाइनर्स को ऐसे प्रोडक्ट बनाने के लिए उत्साहित करना है जिन्हें हर व्यक्ति इस्तेमाल कर सके। मोटे अनुमान के मुताबिक दुनिया की 20% आबादी किसी ने किसी न किसी तरह की शारीरिक अक्षमता का शिकार है। विकलांगता के साथ-साथ बीमारी और बुढ़ापा भी इसकी एक वजह है। वे बूढ़े जिनका इमारतें बनाते वक्त बिल्कुल ध्यान नहीं रखा जाता। बाथरूम की चिकनी टाइल्स पर फिसल कर हर साल हज़ारों बूढ़े अपनी कूल्हे की हड्डी तोड़ लेते हैं और उसके बाद कभी बिस्तर से नहीं उठ पाते। स्प्लिट फ्लोर डिजाइन के नाम पर हर कमरा अलग लेवल पर बनाया जाता है। दिव्यांग तो दूर, घुटने में दर्द की समस्या वाला व्यक्ति भी इन घरों में बहुत दुख पाता है।

डिजाइन की दुनिया का यह भेदभाव डिजिटल दुनिया में भी जारी है। भारत समेत दुनिया के कई देश ऐसे हैं जहां इन दिनों सरकार के स्पष्ट आदेश हैं कि कोई भी वेबसाइट या गैजेट इस तरह बनाया जाय कि दिव्यांग भी उसका इस्तेमाल कर सकें। अमेरिका में जब किंडल ई-बुक ले कर आया तो वह दृष्टिहीनों के लिए उपयुक्त नही था। वहां के विश्वविद्यालयों ने इसे खरीदने से मना कर दिया। मजबूरन किंडल को एक नया वर्ज़न निकालना पड़ा जो लिखे हुए शब्दों को आवाज में बदल सकता था और इस तरह दृष्टिहीन भी उसका इस्तेमाल कर सकते थे।

हमारे देश का हाल यह है सुगम्य भारत अभियान की हिदायतों के बावजूद तमाम सरकारी वेबसाइटें ऐसी हैं जिनमें टेक्स्ट टु स्पीच की सुविधा नहीं है, इसलिए कोई दृष्टिहीन व्यक्ति इन्हें इस्तेमाल नहीं कर सकता। भारतीय रेल रिजर्वेशन की वेबसाइट पहले दृष्टिहीन भी इस्तेमाल कर सकते थे। हाल ही में उसका नया वर्ज़न आया है जिसमें यह सुविधा नहीं है। सरकार ने कोरोना काल में आरोग्य सेतु नामक ऐप को हवाई यात्रा के लिए अनिवार्य कर रखा है परंतु यह भी दृष्टिहीन व्यक्ति के लिए सुविधाजनक नहीं है। यही हाल टेलिविजन चैनल्स का है। नियम के अनुसार हर एक सरकारी टेलीविजन पर गूंगे बहरे लोगों के लिए साइन लैंग्वेज में समाचार का प्रसारण होना चाहिए, मगर इसका पालन कोई नहीं करता।

ऐसा ही एक मामला नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण का है। नियम के अनुसार उच्च शिक्षा और और सरकारी नौकरियों में दिव्यांगों के लिए 4% आरक्षण है परंतु असल में ये पद खाली छोड़ दिये जाते हैं। सरकारी दफ्तर जान-बूझ कर ये भर्तियां नहीं करना चाहते। यहां तक कि बैंक में खाता खोलने के लिए भी एक दृष्टिहीन व्यक्ति को बहुत संघर्ष करना पड़ता है। बैंक मैनेजर पहले तो खाता खोलते नहीं या पासबुक और एटीएम देने से मना कर देते हैं।

किसी दिव्यांग और खास तौर पर दृष्टिहीन व्यक्ति के लिए यात्रा करना सबसे बड़ी मुश्किल होती है। पहले रेल में विकलांग डब्बा अलग होता था, अब उसे रेलवे ने हटा लिया है। औसतन सात सौ पचास बर्थ वाली किसी रेल में दिव्यांगों के लिए बमुश्किल 4 बर्थ का कोटा होता है।

मुश्किल सिर्फ सरकार की तरफ से ही नहीं] समाज की तरफ से भी है। भारत का पोंगापंथी समाज अब भी विकलांगता को पिछले जन्म के पाप का फल मानता है। वह किसी दिव्यांग व्यक्ति को या तो नफरत से देखता है या दया से। वह अब भी बराबरी और मानवीय व्यवहार के आधार पर मदद नहीं करना चाहता जो एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति कर्तव्य होता है।

2016 के राइट ऑफ डिसेबल्ड पर्सन कानून के तहत किसी दिव्यांग की उसकी शारीरिक अक्षमता के आधार पर बेइज्जती करना अपराधिक माना गया है, जिसमें 6 माह से 5 साल तक की सजा हो सकती है परंतु व्यवहार में अब तक कोई बदलाव नजर नहीं आता। हमारे पाठ्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे बच्चों को दिव्यांग जनों के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके।
टेक्नोलॉजी ने कुछ हद तक दिव्यांगों का जीवन आसान बनाया है, परंतु जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी सहारा दे रही है, समाज उन्हें टेक्नोलॉजी के भरोसे छोड़कर अपनी जिम्मेदारी से पिंड छुड़ा रहा है। मुश्किल यह है कि टेक्नोलॉजी अभी न तो इतनी विकसित है और न ही सभी के लिए उपलब्ध। एक दिव्यांग व्यक्ति को कदम-कदम पर दूसरे इंसान की जरूरत पड़ती है।

कोरोना त्रासदी हमें याद दिलाती हैं कि कई लोगों का जीवन हमारे मुकाबले कितना मुश्किल है और एक इंसान के रूप में हमारे क्या कर्तव्य हैं।


लेखक इंदौर के उद्यमी, यायावर और स्तम्भकार हैं

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3 Comments on “कोरोना, दिव्यांग और यूनिवर्सल डिज़ाइन का संकट”

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