मॉनसून सत्र में प्रस्‍तावित तीन विधेयकों का विरोध और कंपनीराज के खात्‍मे की ज़रूरत


दिसंबर 2002-03 में पूर्वांचल उद्योग बचाओ सम्मेलन का आयोजन देवरिया जनपद के गोरयाघाट चौराहे पर कॉमरेड सीबी सिंह (सीबी भाई) की अध्यक्षता में किया गया था। उस कार्यक्रम में पूर्वांचल से तमाम सम्मानित जनप्रतिनिधि, किसान एवं मजदूर नेता एवं नवजवानों की बड़ी भागीदारी रही। मौसम बहुत ही खराब था काफी पानी बरस रहा था और आश्चर्य यह कि लोग छाता लगा कर उस कार्यक्रम में शिरकत किये थे। लोगों की भागीदारी उत्साह और उम्मीद को देखकर लगता था कि हालात जो बिगड़ने शुरू हुए थे उसमें बदलाव की काफी गुंजाइश है। कार्यक्रम में पूर्व विधायक रुद्र प्रताप सिंह, भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत, मजदूर नेता व्यास मुनि मिश्र जैसे जुझारू लोग शिरकत किये हुए थे। बहस के केंद्र में किसानों की बिगड़ती हालत, उद्योगों के बंद होने या बिकने की गंभीर स्थिति तथा नवजवानों के पलायन का मुद्दा सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था।

नकदी फसल गन्ना मुख्य रूप से किसानों के लिए आय का आधार हुआ करता था। गन्ने की मिलें जो आज़ादी से पहले ही स्थापित हुई थीं, उनका नवीनीकरण न होने के कारण कमजोर हो चुकी थीं या सीधे तौर पर यह कहा जाये तो सरकारों की नजर उन मिलों की बिक्री पर थी जो इंदिरा गांधी द्वारा अधिग्रहण कर निगम को दे दी गयी थीं और जिसका संचालन उत्तर प्रदेश सरकार के हाथ में था। खास करके जिला स्तर पर प्रबंधन का कार्य पीसीएस अधिकारियों के जिम्मे कर दिया गया था जिस पर ब्यूरोक्रेसी की छाप साफ-साफ दिखायी दे रही थी और साजिशन उसे घाटे में ले जाने का काम शुरू हो गया था जिससे बिक्री में सुविधा हो सके। दूसरी ओर उन मिलों को बचाने की बहस भी तेज हो रही थी।

उस कार्यक्रम में सीबी सिंह ने उसी समय बहुत स्पष्ट रूप से कहा था कि इस देश में नई आर्थिक नीति आने के बाद सरकारों की योजना इन सरकारी मिलों को या सरकारी संस्थानों को पूरी तरह बेचने की है, इसे बचाना सहज कार्य नहीं है।

उसी दौर में तेज़ी से कॉरपोरेट फॉर्मिंग (स्पेशल डेवेलपमेंट जोन) के विश्व बैंक के प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया था जिसके लिए किसानों की जमीनें मामूली रेट पर गोली बंदूक के दम पर अधिग्रहण की जा रही थीं। मिलों के बेचने का उपाय कर किसानों के नकदी फसल को उजाड़ने की साजिश चल रही थी। यह कार्य अनायास नहीं हो रहा था बल्कि किसानों को मजदूर बनाने की प्रक्रिया के तहत उद्योगपतियों को सस्ता मजदूर उपलब्ध कराने के लिए पूँजीवाजी सरकारों के लिए जरूरी था। सीबी भाई का कथन सच साबित हुआ। ज्यादा दिन नहीं बीते, उत्तर प्रदेश निगम की सारी मिलें औने पौने दामों में बेच दी गयीं जिसके कारण इन मिलों के मजदूर और किसान बेकार और बेघर हो गए और पलायन कर गए।

2010-11 की एफआइआर के अनुसार यूपी सरकार ने 21 चीनी मिलों को बेचा था

अब गन्ने के उत्पादन पर एकाधिकार निजी मिल मालिकों का हो गया जिसके कारण गन्ने की सप्लाई के बाद भी किसानों को न वाजिब रेट मिला और न समय से मूल्य भुगतान हो पा रहा था। इसके कारण किसानों की तबाही बढ़ गयी और किसानों ने गन्ना बोना कम कर दिया। धान, गेहूं की फसल लागत अधिक होने तथा सरकारों द्वारा समर्थन मूल्य बहुत ही कम तय करने के कारण किसानो की लागत मूल्य की बात तो दूर न्यूनतम मजदूरी भी मिलना मुश्किल हो गया।

किसानों के साथ सरकारों का यह व्यवहार अनायास नही है बल्कि इसके पीछे देश के बड़े कारपोरेट का हाथ है जिनकी निगाह किसानों के पास मौजूद जमीन पर है। इसके लिए ही कंपनियां सरकारों को बनवाने में हज़ारों करोड़ का निवेश कर रही हैं। इस कारण ही किसान विरोधी नीतियां तय की जाती है। जब भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर पूरे देश में व्यापक जन आंदोलन हुए, जिसके लिए सिंगूर, नंदीग्राम, भट्टा परसौल, कुशीनगर, सिसवा महंत में लाठिया गोलियां तक चलीं, तब विवश होकर तत्कालीन सरकार ने 2013 में भूमि अधिग्रहण कानून को काफी हद तक किसानों के हित में बदल दिया था। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह कदम कंपनियों को नाराज़ करने वाला था जिसके कारण 2014 में कंपनियों द्वारा मोदी जी की सरकार बनवायी गयी। 

2002-03 के उस सम्मेलन में जो बात उभर करके आयी, कि नयी आर्थिक नीतियों के तहत देश में जमीन से लेकर सरकारी उपकरण चाहे वो मिल हो या अन्य संस्थाएं हों, वो पूरी तरह बेच दी जाएंगी जिसे रोकना मुश्किल होगा, वह 2019-20 आते-आते सच हो गयी। मोदी जी द्वारा कंपनियों से किये वादे के मुताबिक रेल, बीएसएनएल, एयर इंडिया, एयरपोर्ट, बिजली,  पेट्रोलियम, गैस, शिक्षण संस्थाएं, बैंक, बीमा आदि को बेचने का काम किया गया है। कृषि की नयी नीतियों के तहत किसानों की जमीन को कंपनियों को संविदा खेती के लिए देने का कानून, बिजली की समान दर के आधार पर किसानों को भी कामर्शियल रेट पर बिजली देने का कानून तथा किसानों द्वारा उत्पादित अनाज को आवश्यक वस्तु से बाहर करने तथा किसानों द्वारा उत्पादित अनाज को सरकारी खरीद न कर प्राइवेट फर्मों द्वारा खरीदारी कराने तथा इन अनाजों का समर्थन मूल्य सरकार द्वारा तय नहीं करने का कानून- इनके लिए तीन विधेयक मानसून सत्र में लाने के लिए प्रस्तावित हैं जिससे किसान की दशा अतिदयनीय हो जाने की स्थिति बन रही है। इसका पुरजोर विरोध करने का निर्णय देश के सभी किसान संगठनों एवं मजदूर संगठनों, अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्यव समिति व किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा द्वारा लिया गया है।

इसी तरह से कोरोना काल में कई राज्यों की सरकारों ने 1948 के श्रम कानून को कैबिनेट से पास कर निष्प्रभावी करने का काम किया है जिसके खिलाफ पूरे देश में अन्यान्य किस्म से विरोध किया गया है। यह बात सुनिश्चित हो चुकी है कि ये मोदी जी की सरकार पूंजीपतियों के द्वारा सुनियोजित तरीके से मजदूरों और किसानों के हक़ को छीनने के लिए तथा कंपनियों के हित में कानून बनाने के लिए ही लायी गयी है। अब पूरी तरह से इन कंपनियों की निगाह खेती, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में केंद्रित है जो उनके लिए सबसे बड़े मुनाफे का क्षेत्र मालूम पड़ते हैं। इसीलिए मोदी सरकार ने चिकित्सा में पीपीपी मॉडल को लागू किया, खेती में संविदा खेती जो पीपीपी मॉडल के आधार पर ही है। किसानों  द्वारा उत्पादित सामान को भी आवश्यक वस्तु कानून से बाहर कर और सरकार द्वारा समर्थन मूल्य नहीं तय करने के पीछे निजी फर्मों द्वारा लूट का रास्ता बनाये जाने का कानून बनाया जा रहा है।

इस सरकार द्वारा लायी गयी नई शिक्षा नीति (एनईपी) भी  देश की शिक्षा को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर देश और दुनिया के पूंजीपतियों के हाथ में सौंपने की नीति है जिसके कारण किसानों, मजदूरों और छोटे कर्मचारियों के बच्चे शिक्षा के लिए मोहता कर दिए जाएंगे। यानी यह शिक्षा नीति गरीबों के बेटों के बचपन के साथ खेलने और ग्यारह साल के बच्चो को मजदूर बनाने की प्रक्रिया से लेकर उच्चशिक्षा में गरीबों की कमाई की लूट का रास्ता साफ करने या उन्हें शिक्षा से वंचित करने का उपाय सुनिश्चित करने की है। यह कोई अनायास नहीं कि आज़ादी से पहले भी राजाओं महाराजाओं सामंतों के बच्चों के पढ़ने का ही इंतेज़ाम था और कुछ लोग जो कर्मकाण्ड पद्धति से जुड़े हुए थे उन्हें मठ मंदिरों में संस्कृत पढ़ने का अधिकार था। बाकी लोग गुलामी में अपने जीवन को दूसरों को समर्पित कर देने के लिए पैदा होते थे। आज यह देश फिर उस रास्ते की ओर चल पड़ा है। वैसे ही फीस इतनी महंगी थी कि सामान्य परिवार या गरीबों के बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करने के लिए विवश होते थे और असमय पलायन कर देश के ट्रेड सेंटरों पर पहुँचकर अपने श्रम का शोषण कराने को मजबूर होते थे। कोरोना में यह स्थिति जगजाहिर भी हुई जब लॉकडाउन के बाद मजदूर पैदल चल कर घर भागने के लिए मजबूर हुए थे।

सवाल ये है कि आखिर हम सरकार बनाते क्यों है? क्या सिर्फ हम वोट डालते हैं और सरकार कोई और बनाता है? अब तो दुनिया में ये खुलासा हो गया है कि अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी, गूगल, फेसबुक, वाट्सअप या अन्य तरीकों से एक देश दूसरे देश में सरकार बनाने में हस्तक्षेप करने लगे हैं और सरकार बनाने में उनकी भूमिका बन गयी है। ट्रंप का बयान हैरान करने वाला नहीं है कि उनको अपनी सरकार बनाने के लिए मोदी जी की जरूरत है? कैसे मान लिया जाए कि भारत मे सरकार बनाने में ट्रम्प की भूमिका नहीं होगी? यह तो निश्चित है कि इस देश के नागरिकों का चिकित्सा, शिक्षा और रोजगार पर मौलिक अधिकार बनता है जिसे हर नागरिक को निशुल्क मिलना चाहिए तथा साथ ही न्याय देना जो कि राज्य का काम  है, निःशुल्क मिलना चाहिए। पर यह सबकुछ देश की गरीब जनता के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता दिख रहा है। आखिर जनता द्वारा दिया गया टैक्स सरकार किसके लिए वसूल करती है इसपर विचार करना होगा।

यदि यह लोकतंत्र है, तो किसानों, मजदूरों, छात्रों, महिलाओं, बच्चों-बूढ़ों एवं अन्य लोगों की अपनी मुनासिब जगहें और अधिकार भी सुनिश्चित होने चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि देश में जनता का राज हो, जो आज के कंपनी राज को समाप्त करके ही प्राप्त होगा।


शिवाजी राय किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं


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