श्रम, उत्पादन और निर्माण की प्रमुख धुरी है. श्रमिकों के बगैर इस दुनिया के गढ़े जाने की कल्पना नहीं की जा सकती. बावजूद इसके, पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिक हाशिये पर हैं.
हर आने वाली सरकार ने श्रम कानूनों को लघु से लघुतर बनाया है. कार्यस्थलों पर सुरक्षा व्यवस्थाओं के अभाव में दुर्घटनाओं में मजदूरों का मरना बदस्तूर जारी है. बुनियादी सुविधाओं की मांग, हड़ताल, यूनियन, सब जैसे बीते जमाने की बातें हो गयीं. श्रमिक जीवन उतरोत्तर बदतर होता गया, लेकिन किसी सरकार या समाज के लिए यह कभी मुद्दा नहीं रहा. याद नहीं आता आख़िरी बार भारत में कब मजदूर बहस और ‘चिंता’ के केंद्र में थे.
इधर हालांकि कुछ दिनों से अचानक मजदूरों पर बहसें शुरू हो गयीं. सरकार, मीडिया, सोशल मीडिया, सब तरफ मजदूरों की बातें होने लगीं. ऐसा लगने लगा जैसे एकबारगी पूरा देश मजदूरों का शुभचिंतक हो गया है. केंद्र और राज्य सरकारों ने तत्परता दिखाते हुए कई घोषणाओं के साथ पैसे और राशन बांटना शुरू कर दिया.
आख़िर ऐसा क्या हुआ कि पूंजीपतियों की हितैषी सरकारें मजदूरों को लेकर अचानक सक्रिय हो गयीं?
लॉकडाउन के पहले सरकार के ज़ेहन में मज़दूर कहीं नहीं थे. यह ठीक नोटबंदी की तरह था. श्रमिक वर्ग इस लॉकडाउन से कैसे प्रभावित होगा, सरकार ने यह सोचा ही नहीं था. सरकार को इस बात का अंदेशा ही नहीं था कि मज़दूर इस कदर भूखे-प्यासे जान की फ़िक्र किये बगैर पैदल निकल पड़ेंगे. सरकार की योजनाओं, नीतियों और चिंताओं में श्रमिक वर्ग कहां है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है.
लॉकडाउन की घोषणा के कुछ ही घंटों बाद जब हुज़ूम के हुज़ूम मज़दूर अपने गाँव लौटने के लिए सड़कों पर निकल पड़े तो सरकार ने इसे पहले प्रशासनिक नियम-कानूनों की अवहेलना की तरह लिया और पुलिस अपने चिरपरिचित अंदाज़ में इनसे पेश आने लगी. इन्हें मारा-पीटा गया, वापस भेजा गया, मेढकों की तरह छलांग लगवाकर सजाएं दी गयीं. बावज़ूद इसके जब यह मानव सैलाब बढ़ता गया और एक नैरेटिव बना कि शहरों से निकले ये मजदूर देश के गाँवों में फैलकर कोरोना के कैरियर बनेंगे, तब सरकार अचानक सतर्क हो गयी.
विश्व बैंक ने भी अपने ‘दक्षिण एशिया आर्थिक अपडेट: कोविड 19 का प्रभाव’ रिपोर्ट में यही बात दुहरायी कि प्रवासी मजदूरों का हुजूम अन्य राज्यों और गाँवों में कोरोना वायरस का आसानी से रोगवाहक हो सकता है.
यही वह डर था जिसने केंद्र सहित सारे राज्यों को सक्रिय कर दिया. पहले ज़ोर-ज़बरदस्ती से और बाद में मामला बड़ा और संवेदनशील हो जाने पर अपील के साथ कहा गया कि जो जहां हैं वहीं रहें. बावजूद, चौतरफ़ा संकट से घिरे मज़दूर साहस करके सैकड़ों किलोमीटर की दुश्वारियों से भरी यात्रा पर निकल गए.
छवियों की प्रमुखता वाले इस दौर में आगे उनकी यात्रा इतिहास के लिए संरक्षित हो गयी. विचलित कर देने वाली उनकी कहानियों और तस्वीरों से सोशल मीडिया और लोगों के हृदय भरने लगे. रास्ते में जगह-जगह समाजसेवी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवता के अन्य मुरीदों ने भोजन और राशन का वितरण शुरू किया. इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी पैदा करने के लिए अदूरदर्शी सरकार की अनदेखी और लापरवाहियों की आलोचना शुरू हो गयी.
इसी के बाद आलोचना से घिरी सरकार का ‘शुभचिंतक’ चेहरा सामने आया और वह एक पर एक घोषणाएं करती गयी. इसमें मजदूरों के लिए परिवहन, भोजन, राशन और बेरोजगारी वाली स्थिति में पैसे की व्यवस्था करना शामिल था, हालांकि इन घोषणाओं का हश्र भी बाकी घोषणाओं जैसा ही हुआ लेकिन सरकार इसी बिना पर ख़ुद को श्रमिक वर्ग के हितैषी के तौर पर पेश करने लगी.
इन सबमें जो सबसे बुरा पहलू रहा, वह सरकार समर्थकों की मजदूरों से नफ़रत है. ये वही लोग हैं जो सरकार के घिरने की स्थिति में उसके बचाव में किसी भी हद तक हमलावर हो उठते हैं. मजदूरों को समस्या की तरह पेश करने में कई बड़े मीडिया हाउसों से लेकर सोशल मीडिया के ट्रोल तक शामिल रहे. ‘नवरात्रि में लोग नौ दिन उपवास करते हैं, दो दिन भूखे रहने से कोई मर नहीं जाएगा’ जैसी अमानवीय टिप्पणियों की बाढ़ आ गयी. अपने सुरक्षित ठिकानों पर बैठ सरकार द्वारा चलाए जा रहे रामायण-महाभारत के साथ नौस्टेलजिया महसूस करने वाले खाये-पिये-अघाये लोग भी मजदूरों के ख़िलाफ़ खड़े हो गये.
कोरोना के प्रसार के लिए जिस तरह तबलीगी जमात को ज़िम्मेदार माना गया, मजदूरों को भी इसी फेहरिस्त में देखा जाने लगा. बस फर्क यह था कि मजदूरों के साथ मुसलमानों की तरह नैरेटिव सेट नहीं किया जा सकता था. मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक बना-बनाया बरसों पुराना सांप्रदायिक नैरेटिव मौजूद है, जिसको किसी भी सन्दर्भ में इस्तेमाल किया जा सकता है. मजदूरों के साथ यह तुरंत संभव नहीं था. 14 अप्रैल को लॉकडाउन टूटने के अंदेशे के साथ घर जाने के लिए बांद्रा स्टेशन पर जमा हुए मजदूरों को मीडिया ने ख़तरनाक, जाहिल और कॉन्सपिरेसी थियरी की तरह पेश किया. इन्होंने इसे राष्ट्रीय सवाल बना दिया कि जब सरकार ने मजदूरों की देखभाल का भरोसा दिया है तो मज़दूर क्यों गाँव जाना चाहते हैं? जहां हैं, वहीं क्यों नहीं रहते?
इस सवाल को बांद्रा और धारावी के उदाहरण से समझा जाना चाहिए, जहां कोविड-19 के केसों की संख्या अस्सी के आसपास पहुँच गयी है. धारावी और बांद्रा दोनों जगहों पर बड़ी संख्या में बिहार एवं उत्तर प्रदेश से आये प्रवासी मजदूर रहते हैं. यहां के ज़्यादातर प्रवासी मजदूर कपड़ा बनाने के कारखानों में काम करते हैं. ये कारखाने झुग्गी-झोपड़ियों में ही चलाये जाते हैं. कई मजदूर उन्हीं कारखानों में रहते हैं. 10 गुणा 10 के कमरे में 7 से 8 मजदूर काम करते हैं. दिन के वक़्त सक्रिय रहने वाली सिलाई मशीनों को रात में एक दूसरे के ऊपर रखकर कमरे में लोगों के सोने लायक जगह बना ली जाती है. जो मजदूर कारखाने में नहीं रहते, वे अपने गाँव के मजदूरों या एक ही कारखाने में काम करने वाले मजदूरों के साथ खोली ले कर रहते हैं..
खोली के एक कोने में बने किचन के नाम पर उनके पास स्टोव या छोटा सा गैस चूल्हा होता है. साथ ही कुछ जरूरी बरतनों के साथ अलग-अलग पॉलीथिनों में बंद चावल, दाल, आटा आदि होता है. अमूमन मजदूर किचन का इस्तेमाल तब ही करते हैं जब कारखाने में काम का दबाव कम होता है अन्यथा रोज़ ठेले पर या पास के होटलों में खाना खाते हैं. इन होटलों-ठेलों में खाना प्लेट के हिसाब से मिलता है. एक दिन में खाने का खर्च लगभग 100 रुपया आता है. इस हिसाब से करीब तीन हज़ार रुपये भोजन में खर्च होते हैं. कई बार यह रुपये उन्हें एडवांस में जमा करने होते हैं.
एक मजदूर रूम के किराये पर महीने में कम से कम एक हज़ार रुपये खर्च करता है. शेष सप्ताहांत में आने-जाने, कपड़े, दवा-दारू, खैनी-तम्बाकू, मोबाइल आदि को जोड़कर कम से कम पांच हज़ार रुपये महीने खर्च होते हैं.
गारमेंट उद्योगों में काम करने वाले ज़्यादातर मजदूरों को पीस के आधार पर पगार दी जाती है जिससे ये 6000 रुपये से लेकर 12000 रुपये तक प्रति महीने कमाई करते हैं. कई बार कारखाने में कम काम आने पर प्रतिदिन की यह आमदनी घट जाती है. कई बार कुछ तकनीकी दिक्कतों और मांग-आपूर्ति में असंतुलन आने पर काम नहीं भी आता. ये बुरे दिनों में गिने जाते हैं. कई बार काम करने के बाद भी उनका पैसा उन्हें आसानी से नहीं मिलता. वेतन महीने के आख़िरी दिन या अगले महीने के पहले सप्ताह में भी नहीं आता. ऐसे में खर्च चलाने के लिए उन्हें अपने सुपरवाइजर से उधार लेना पड़ता है.
प्रवासी मज़दूरों की यही सीधी सी ज़िन्दगी है, जिसमें वे अदृश्य रहते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था में महती भागीदारी निभाते हैं. इनकी यह ज़िन्दगी इतनी कसी हुई होती है, जिसमें अस्वस्थ होने तक की गुंजाइश नहीं होती.
ऐसे में अगर इनकी इस लाइफलाइन को रातोंरात काट दिया जाए तो आप और हम जो पहले से ही इनकी दुनिया से नावाकिफ़ थे, उनके लिए इस दर्द को समझना नामुमकिन है. जिन मजदूरों का बिना काम के दो दिन नहीं गुजारा हो सकता, उनसे महीने भर बिना पैसों और भोजन के उसी झुग्गी में टिकने को कहना उन्हें कंकाल में बदल देने का नुस्खा है. सरकारें, मीडिया और लोग उनसे यही उम्मीद कर रहे थे.
बहुत सारे मज़दूरों ने होली (11 मार्च) में ही अपनी छोटी बचत घर भिजवा दी थी. बहुत सारे मज़दूर ख़ुद होली में घर गये और अपनी बचत परिवार को सौंप 15 मार्च तक काम की जगह पर वापिस आ गये. दोनों स्थितियों में इनके पास सरवाइव करने के लिए पैसे नहीं थे. ज़ाहिर है, ऐसे में 24 मार्च को लॉकडाउन की अप्रत्याशित घोषणा ने इन्हें बेचैन कर दिया. सारे कारखाने बंद हो गये. खाने के ठिकाने बंद हो गये क्योंकि खाने के उन ठेलों और होटलों को प्रवासी मज़दूर ही चलाते थे.
पहला संकट खाने और रहने का आया. रुकने का मतलब था किराया देना. जो किसी भी सूरत में संभव नहीं था. कई संस्थाएं 15 दिनों के राशन के साथ मजदूरों की मदद करने आगे आयीं लेकिन इससे भी समस्या हल होने वाली नहीं थी. खाना बनाने के लिए उन्हें किरोसिन तेल या सिलिंडर की जरूरत होती. सबकुछ बंद होने के कारण यह संभव नहीं था. बाद में पका हुआ भोजन पहुँचाने की बात आयी, जिसे हासिल करना और भी दुष्कर साबित हो रहा है.
जो मज़दूर अब भी फंसे हुए हैं, उनमें से कई को एक टाइम का खाना भी नहीं मिल पा रहा है. भोजन मिलने की यह आवृत्ति एक या दो दिनों की है. दोपहर के भोजन के लिए सुबह से ही लाइन में लगना होता है. कई जगहों पर इसके लिए दो से पांच किलोमीटर पैदल चलकर खाना लेना होता है. तिस पर जो मज़दूर परिवार के साथ हैं, उनके लिए यह खाना पर्याप्त नहीं हो पाता.
जिस कोविड-19 से बचाव के लिए यह तामझाम किया गया, भोजन की इस आपाधापी में संभव है कुछ मज़दूर इस महामारी के शिकार हो जाएं. अगर कोरोना से बचना चाहेंगे तो भूख मार देगी. मृत्यु का भय दोनों तरफ है.
मृत्यु के चुनाव की इसी अजीबोग़रीब स्थिति में मज़दूरों ने घर जाना चुना कि अपने गाँव-घर में संभव है वे बच जाएं. और अगर मरना ही बदा हो तो परिवार की आँखों के सामने मरें. इसी निर्णय के साथ बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों सहित मज़दूरों का काफ़िला हाइवे पर निकल पड़ा, जिसकी हृदयविदारक तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी.
मर-जीकर मज़दूर घर तो पहुँच गये पर यह उनकी मुसीबतों का समाधान नहीं था. यह एक मज़दूर की ज़िंदगी है जिसे इस व्यवस्था ने महज़ उतना ही दिया है जिससे वह ज़िंदा रहकर श्रम को चलायमान रखे. जो महानगरों में बच गये वो भूख से दो-चार हो रहे हैं. जो अपने गाँव आये हैं, काम के इंतज़ार में बैठे हैं. गाँव में काम का पहले ही अभाव था, अब एक साथ इतने हाथों के होने से मानव संसाधन ज्यादा हो गया है, काम उस अनुपात में है नहीं. विद्वान अंदेशा जता रहे हैं, सदमे से भरे मज़दूर शायद महानगरों की तरफ वापस नहीं आयें. इन सबके बीच पूंजीपतियों की पोषक सरकार है, जिसे पता है, भूख का मारा मज़दूर लौटकर काम की तलाश में वापस आएगा. जाएगा कहां? बुरा तो मानने से रहा.
निशा भारती टाटा इंस्टिट्यूट आफ सोशल साइंसेज़ (TISS) से सम्बद्ध हैं। मिथिलेश प्रियदर्शी जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी (JNU) से सम्बद्ध हैं।
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