लॉकडाउन में कोयला-चालित संयंत्रों ने जहां-तहां फेंका कचरा, साल भर में घटे 17 हादसे


एक ताज़ा रिपोर्ट से पता चला है कि अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच देश के सात राज्यों में फ्लाई ऐश या थर्मल पावर प्लांट्स में बनी कोयले की राख से संबंधित कम से कम 17 उल्लेखनीय दुर्घटनाएं हुई हैं और इन राज्यों में इससे जुड़ा प्रदूषण भी ख़ासा बढ़ गया।

‘कोल ऐश इन इंडिया- वॉल्यूम 2: ऐन एनवायरमेंटल सोशल एंड लीगल कम्पेंडियम ऑफ़ कोल ऐश मिस मैनेजमेंट इन इंडिया 2020-21’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट की मानें तो बिजली कंपनियों ने कोविड-19 के कारण लागू हुए लॉकडाउन को अपने पावर प्लांट में जमा हुई कोल फ्लाई ऐश को जहां-तहां फेंकने के मौके के तौर पर इस्तेमाल किया और यह एक बड़ी वजह बना प्रदूषण बढ़ने का।

यह रिपोर्ट वर्ष 2020 में जारी की गई उस रिपोर्ट श्रृंखला की अगली कड़ी है, जिसमें वर्ष 2010 से 2020 के बीच भारत भर में फ्लाई ऐश से संबंधित 76 दुर्घटनाओं को दर्ज किया गया था और भारत में फ्लाई ऐश के प्रबंधन तथा इस राख के कारण इंसान की सेहत और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का जायज़ा लिया गया था।

हेल्दी एनर्जी इनीशिएटिव इंडिया और लीगल इनीशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरमेंट लाइफ द्वारा जारी की गई एक नई रिपोर्ट में कोल फ्लाई ऐश से संबंधित दुर्घटनाओं की मीडिया में आई खबरों का विश्लेषण किया और पाया कि यह घटनाएं भारत के 7 राज्यों- मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में हुई है। ऐश पाँड के विखंडन के कारण होने वाले वायु प्रदूषण, कोल फ्लाई ऐश को नदियों, अन्य जल धाराओं तथा तालाबों एवं पोखरों में फेंके जाने की घटनाएं सबसे प्रमुख हैं, जिससे इशारा मिलता है कि भारत में कुल फ्लाई ऐश के प्रबंधन की स्थिति किस कदर खराब है। इनमें से ज्यादातर स्थान ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं जहां कोल फ्लाई ऐश का निस्तारण एक हर समय बनी रहने वाली समस्या है और लीकेज तथा दुर्घटनाएं होना तो आम बात है।

हेल्दी एनर्जी इनीशिएटिव इंडिया की पूजा कुमार ने कहा, “दिल्ली जैसे बड़े शहर में, जहां कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन के दौरान लोग साफ हवा और नीले आसमान का लुत्फ ले रहे हैं, वहीं हमने छत्तीसगढ़ के कोरबा और उत्तरी चेन्नई के एन्नोर और सेप्पक्कम जैसे क्षेत्रों को भी देखा जा सकता है जहां फ्लाईऐश के खराब प्रबंधन से संबंधित अनेक घटनाएं और दुर्घटनाएं सामने आई हैं। हमने यह भी पाया कि कोयला उत्पादन के लिहाज से प्रमुख क्षेत्रों में रहने वाले लोगों ने यह बताया है कि अनेक बिजली कंपनियों ने कोविड-19 लॉकडाउन को अपने यहां से निकलने वाले कचरे को जल धाराओं, गांवों तथा राष्ट्रीय राजमार्गों के आसपास बेतरतीब ढंग से फेंकने के मौके के तौर पर इस्तेमाल किया है। इसकी वजह से पर्यावरण और जन स्वास्थ्य को कभी ना भरा जाने वाला नुकसान हुआ है।”

छत्तीसगढ़ के कोरबा की सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी चौहान कहती हैं, “पिछले एक साल के दौरान कोरबा में कोल फ्लाई ऐश प्रदूषण का अभूतपूर्व स्तर देखा गया है। हम यहां पिछले कई दशकों से रह रहे हैं लेकिन ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा गया। बिजली कंपनियों ने कोविड-19 के कारण लागू हुए लॉकडाउन को कोल फ्लाई ऐश को जहां-तहां फेंकने के मौके के तौर पर इस्तेमाल किया है। पूरे हाईवे और रिंग रोड के किनारे और गांव में हर तरफ फ्लाई ऐश के ढेर देखे जा सकते हैं। सर्दियों के खत्म होने के बाद हम देख रहे हैं कि पूरा का पूरा शहर फ्लाई ऐश से ढक गया है और हम सांस के साथ यह राख भी अपने शरीर में ले रहे हैं। तमाम शिकायतों के बावजूद इन दोषी कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है।”

रिपोर्ट से पता चलता है कि अब मीडिया का रुख फ्लाई ऐश के कारण पर्यावरण और समुदायों पर पड़ने वाले पर्यावरणीय तथा सामुदायिक प्रभाव को गहन कवरेज देने की तरफ बढ़ा है। यह पाया गया है कि वर्ष 2020-21 में कोल फ्लाई ऐश को लेकर मीडिया की रिपोर्टिंग उद्योगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले विकास के मंतव्य के बजाय लोगों तथा जैव विविधता पर फ्लाई एस के कारण पड़ने वाले प्रभावों पर केंद्रित हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक:

मुख्य विश्वविद्यालयों तथा थिंकटैंक द्वारा प्रकाशित किए गए शोध अध्ययनों और रिपोर्ट की मीडिया द्वारा की गई कवरेज से कोल फ्लाई ऐश के प्रभावों को समझने के लिए एक विस्तृत नजरिया मिलता है। इसके अलावा कोयला आधारित उद्योगों के आसपास रहने वाले ऐसे लोगों की संघर्ष गाथा की कवरेज को भी प्रमुखता मिली है जो दूषित हो चुके स्थलों का उपचार, उनकी सफाई, प्रदूषण में कमी लाए जाने और प्रदूषण के कारण हुई जनहानि और रोजी-रोटी को हुए नुकसान की भरपाई की मांग कर रहे हैं।

अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लीगल इनीशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरमेंट से जुड़े एडवोकेट ऋत्विक दत्ता कहते हैं, “कोयले की राख लोगों तथा पर्यावरण की सेहत को पैदा होने वाला ऐसा खतरा है जिसकी सबसे ज्यादा अनदेखी की गई है। भारत का नियामक तंत्र हर गुजरते साल के साथ गंभीर होती जा रही इस समस्या से निपटने में नाकाम साबित हुआ है। वहीं बिजली कंपनियों के लापरवाही पूर्ण रवैये के कारण पैदा होने वाले जहरीले प्रदूषण के लिए उन्हें आपराधिक तौर पर जिम्मेदार ठहराए जाने के लिए अदालतों के आदेश का अब भी इंतजार हो रहा है।”

इस रिपोर्ट में गहन विधिक तथा नीतिगत विश्लेषण किया गया है। साथ ही साथ कोल फ्लाई ऐश के मुद्दे पर पर्यावरण संबंधी उल्लंघन को लेकर अदालतों द्वारा क्षतिपूर्ति का आदेश देने के उभरते हुए रुझान के क्रियान्वयन में खामियों की भी पहचान की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है:

फ्लाई ऐश संबंधी नियमों का उल्लंघन करने वाले परियोजना संचालकों के दायित्व को लेकर विधिक स्थिति बिल्कुल साफ है। वह निश्चित रूप से क्षतिपूर्ति और पुनर्बहाली का खर्च उठाने के जिम्मेदार हैं। इस स्पष्ट विधिक व्यवस्था के बावजूद अदालतें और ट्रिब्यूनल पर्यावरण संबंधी नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ बिरले ही जिम्मेदारी तय करती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ज्यादातर मामलों में नियमों के उल्लंघन के कारण हुए नुकसान और भरपाई की लागत की गणना की जिम्मेदारी तृतीय पक्ष पर छोड़ दी जाती है जिसे उल्लंघनकारी पक्ष खुद ही चुनता है। मिसाल के तौर पर जब सासन पावर प्लांट में फ्लाई ऐश से संबंधित नियमों का उल्लंघन हुआ तब मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सासन पावर लिमिटेड, सिंगरौली को निर्देश दिया कि वह फ्लाई ऐश को लो लाइंग एरिया के बाहर, उद्योग परिसर और उसके आसपास के क्षेत्रों, खेतों, गांवों तथा रिहंद जलकुंड समेत विभिन्न प्राकृतिक जल राशियों के अंदर और उसके आसपास के इलाकों में बहाये जाने के कारण पर्यावरण को हुए नुकसान का आकलन करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किसी संस्थान को चुने। चूंकि नियमों का उल्लंघन करने वाला खुद यह तय करता है कि उसके कारण हुए नुकसान का आकलन कौन सी एजेंसी करेगी। ऐसे में सही आकलन होने की गुंजाइश ही नहीं बनती।


Climateकहानी के सौजन्य से


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