हाल में ही संपन्न हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राज्य में अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया। इस चुनाव में भाजपा ने राज्य में कुल पड़े वोट का लगभग 52 फीसद हासिल किया और कांग्रेस को सत्ताईस फीसद के आसपास वोट मिले। आम आदमी पार्टी की राज्य विधानसभा चुनाव में यह पहली एंट्री थी लेकिन उसे लगभग 12 फीसद वोट हासिल हुए।
बेशक, इस चुनावी जीत को देश के मीडिया द्वारा जहां नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर गुजरात की जनता का जनादेश कहा गया, वहीँ दूसरी तरफ राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा की प्रासंगिकता को भी सवालों के घेरे में रखा गया। कुछ मीडिया चैनलों ने इस जीत बहाने नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चुनावी कौशल की कुछ ऐसी प्रायोजित गाथा गायी जिससे ‘चारण’ भक्ति के नये कीर्तिमान बनते हुए दिखायी दिये। यह बात अलग है कि इसी समय संपन्न हुए दिल्ली एमसीडी और हिमाचल विधानसभा चुनावों में भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
इस आलेख का विषय भाजपा की गुजरात में बम्पर जीत के कारणों का विवेचन करना नहीं है बल्कि कांग्रेस पार्टी के बुरी तरह हार जाने के कुछ बुनियादी कारणों की पड़ताल करना है। इस आलेख के लेखक ने स्वयं गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान लम्बा वक्त वहां बिताया है और कांग्रेस के प्रत्येक क्रियाकलाप पर निगाह रखी है। लेखक का यह मानना है कि भाजपा की इस जीत के पीछे कोई चमत्कार नहीं बल्कि कांग्रेस की राज्य इकाई द्वारा ठीक से चुनाव नहीं लड़ा जाना है।
गुजरात चुनाव एक तरह का सत्ता को दिया गया ‘वाकओवर’ था। ऐसा कहने का कारण निम्नलिखित है-
- गुजरात राज्य कांग्रेस कमेटी पूरे विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व की पॉलिटिक्स को नकारने का साहस नहीं कर पायी जबकि भाजपा ने चुनाव की घोषणा के बहुत पहले ही इस चुनाव को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुहाने पर लाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। भाजपा ने अपने इस प्रयास में कोई प्रतिरोध कभी महसूस ही नहीं किया।
- गुजरात राज्य कांग्रेस कमेटी ने पूरे चुनाव को Constructive Politics का नाम देकर ‘कांग्रेस का काम बोलता है’ जैसा चुनावी कैम्पेन लांच किया था। इस कैम्पेन ने राज्य सरकार की ज्ञात नाकामियों पर हमलावर होने के बजाय आज से 25 साल पहले कांग्रेस पार्टी के किये गए कामों के नाम पर वोट मांगा। यह रणनीति अपने आप में हास्यास्पद थी और इसने राज्य की भाजपा सरकार की घोर असफलताओं पर राजनैतिक विपक्ष के बतौर हमलावर होने के बजाय एक सेफ रास्ता दिया। यह कैम्पेन एक भयानक रणनीतिक गलती थी। कांग्रेस के नेता यह भूल गए थे कि देश की जनता को भूलने की बीमारी है।
- इस बात में कोई संदेह नहीं है कि गुजरात की राज्य सरकार के ज्यादातर नेता और स्थानीय नेतृत्व जनता की निगाह में न केवल घोर भ्रष्ट बल्कि नाकारा हैं। भाजपा को पूरा वोट मोदी और उनकी गुजरात अस्मिता के प्रतिनिधि होने के नाम पर मिलता है। बहुत चालाकी से भाजपा ने इस पूरे चुनाव को मोदी के चेहरे और गुजरात की अस्मिता से जोड़ दिया था। इसका फायदा यह हुआ कि एक तरफ जहां गुजरात भाजपा को अपनी असफलताओं पर आलोचनाओं से मुक्ति मिल गयी वहीँ मोदी का चेहरा गुजरात की अस्मिता और उसके प्रतिनिधि के चेहरे के बतौर स्थापित हो गया। राज्य कांग्रेस नेतृत्व ने इस ईवेंट के खिलाफ कोई प्रयास ही नहीं किया। इस छवि को ध्वस्त करना कोई मुश्किल काम नहीं था। गुजरात की भाजपा सरकार की असफलता पर बात करके इसकी कोशिश की जा सकती थी।
- गुजरात में राज्य के बड़े कांग्रेस नेताओं द्वारा और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं द्वारा भी कोई बड़ी चुनावी रैली करके राज्य सरकार और उसकी हिंदुत्व की राजनीति को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश नहीं की। इसका फायदा भाजपा को मिला।
- गुजरात में प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्षों के सक्रिय गुट हैं और पूरे गुजरात में गुटबाजी साफ देखी गयी। समय रहते केन्द्रीय नेतृत्व को इसे खत्म कराना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका नुकसान हुआ।
- राज्य की इकाई द्वारा चुनाव में घोर निरुत्साह का प्रदर्शन किया गया। भाजपा जहां आक्रामक तौर पर चुनावी रैलियां कर रही थी वही कांग्रेस का राज्य नेतृत्व उत्साहहीन था। इसका सन्देश कार्यकर्ताओं में यह गया कि पार्टी ही चुनाव लड़ने को लेकर सीरियस नहीं है। इस स्थिति ने आप पार्टी के लिए ग्राउंड स्तर पर कांग्रेस से कार्यकर्त्ता अपने पक्ष में जुटाने में मदद की।
- गुजरात की राज्य सरकार की असफलताओं पर कोई बात नहीं की जा रही थी जबकि एक विपक्ष के बतौर राज्य की भाजपा सरकार की असफलताओं पर बात करना विपक्ष का बुनियादी कर्तव्य था।
- गुजरात में राज्य कांग्रेस इकाई द्वारा राज्य के नौ फीसद मुसलमानों का विश्वास जीतने की कोई मजबूत कोशिश नहीं की गई। पार्टी को लगता था कि मुसलमान इमरान प्रतापगढ़ी की शेरो-शायरी सुनकर ही कांग्रेस को वोट कर देंगे जबकि पार्टी चाहती तो बिलकिस बानो को विधानसभा टिकट ऑफर करके अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने की कोशिश कर सकती थी और इसे हिंदुत्व के खिलाफ एक मजबूत कदम के बतौर प्रचारित कर सकती थी, लेकिन पार्टी ने राज्य की प्रो-हिंदुत्व लीडरशिप के दबाव में ऐसा कदम नहीं उठाया।
- गुजरात राज्य में लगभग 14 फीसद आदिवासी हैं और उनके लिए विधानसभा में 27 सीटे आरक्षित हैं। कांग्रेस अपने पूरे चुनाव प्रचार अवधि में आदिवासी समुदाय के बीच संगठित तरीके से यह बताने में फेल हो गई कि आरएसएस द्वारा उन्हें वनवासी कहे जाने का नुकसान क्या है और कांग्रेस पार्टी ने इस समुदाय को कैसे अधिकार देकर उनके हिस्से के जल, जंगल और जमीन पर उनकी दावेदारी को मजबूत और सुरक्षित रखा है। इसका नुकसान यह हुआ कि राज्य में आदिवासी समुदाय के हिंदुत्व फोल्ड में बह जाने के खिलाफ कोई बहस ही पैदा नहीं हो पायी।
- राज्य में स्थानीय पार्टी संगठन को सक्रियता और समर्पण के स्तर पर बार-बार जांचा जाना चाहिए था क्योंकि आम आदमी पार्टी ज्यादातर विधानसभा सीटों पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से संपर्क में थी और उन्हीं के सहारे बूथ स्तर तक अपना प्रसार देख पा रही थी। चुनाव के दौरान कांग्रेस का वोट आप को ट्रान्सफर हुआ है। यह रोका जा सकता था।
- गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस पर अपनी पहली चुनावी रैली से ही आक्रामक रहे, हालांकि इस आक्रामकता का सन्दर्भ ज्यादातर भ्रामक और उसके फैक्ट गलत थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इसका कहीं प्रभावी प्रतिकार नहीं किया।
- राज्य इकाई द्वारा विधानसभा में चुनाव लड़ रहे कई ताकतवर निर्दलीयों को अपने साथ लेने में कोई ईमानदार रूचि नहीं ली गयी। इसका नुकसान भी पार्टी को कुछ सीटों पर उठाना पड़ा।
- अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि राज्य नेतृत्व अपनी कार्यविधि से ग्राउंड कार्यकर्ताओं को यह सन्देश देने में विफल रहा कि निर्णय चाहे जो हो, चुनाव डट कर लड़ना है। इसका नतीजा यह हुआ कि हताश कार्यकर्त्ता आप पार्टी द्वारा कई स्तर पर मैनेज कर लिए गए।
कुल मिलाकर, गुजरात में भाजपा की बम्पर जीत का कारण नरेंद्र मोदी का चमत्कारिक नेतृत्व और उनकी चुनावी कुशलता कम, कांग्रेस की चुनाव लड़ने की अनिच्छा ज्यादा जिम्मेदार है। जिस तरह से कांग्रेस ने अब तक मास पॉलिटिक्स की है उसके भी दिन अब खत्म हो चुके हैं। मास पॉलिटिक्स अब कैडर पॉलिटिक्स को कभी पराजित नहीं कर सकती। आम आदमी पार्टी की गुजरात में शानदार एंट्री और वोट पाने का प्रतिशत यह बताता है कि अब मास पॉलिटिक्स के दिन खत्म हो गए हैं। हिंदुत्व के खिलाफ लम्बी रेस वही लड़ सकेगा जिसके पास ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की स्पष्ट समझ वाले कैडर होंगे। गुजरात चुनाव का कांग्रेस के लिए एक स्पष्ट सन्देश यही है कि वह मास पॉलिटिक्स के अपने सांगठनिक राजनैतिक तंत्र पर पुनः विचार करे। अन्यथा उसकी जगह आप पार्टी लेने को तैयार है।