‘भाषाई आत्मसम्मान और एक्टिविज्म’
का सवाल
जीतेंद्र रामप्रकाश
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
‘बोलना का कहिए रे भाई,
बोलत बोलत तत्त नासाई’
(मैं वाणी के बारे में क्या कहूं भाई?
वाणी की अधिकता से तो तत्व का नाश हो जाता है)
ये शब्द एक ऐसे व्यक्ति के हैं जिसे भारत में महान संत का दर्जा प्राप्त है, लेकिन यह व्यक्ति इतना विनम्र था कि इसने खुद को दास कहना ही बेहतर समझा- दास कबीर। यहां जिस संदर्भ में दास प्रयुक्त हुआ है, अंग्रेजी में उसके लिए कोई समानांतर शब्द उपलब्ध नहीं है। अंग्रेजी में ‘स्लेव’ या ‘सर्वैन्ट’ भी इसके लिए पर्याप्त नहीं हैं। दास में अंतर्निहित संकेतार्थ एक सूफियाना विनम्रता का भाव लिए हुए है। इसमें किसी के लिए उपयोगी होने, या कहें चापलूसी का भाव नहीं है। इस शब्द की सभी लक्षणाएं उन मध्यकालीन संत कवियों की देन हैं जिनकी वाणी उतनी ही पवित्र थी जितना उनका जीवन।
भाषा शब्दों से नहीं, उनकी लक्षणाओं से ताल्लुक रखती है। भाषा में अंतर्निहित ये लक्ष्यार्थ सदियों के सांस्कृतिक पोषण का परिणाम हैं। किसी भी शब्द में छिपे संकेत जनता द्वारा प्रयुक्त अर्थच्छवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए कोई भी भाषा सिर्फ संप्रेषण का माध्यम भर नहीं है, बल्कि सामूहिक चेतना का एक ऐसा आईना है जिसमें वहां की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है, जिसमें उसकी पहचान की जा सकती है। इसी बुनियादी प्रस्थापना के साथ मैं आगे और कुछ बोलने का खतरा मोल ले रहा हूं और मुझे आशा है कि इस प्रक्रिया में मैं ‘तत्व का नाश’ नहीं होने दूंगा।
भारतीय भाषाओं के संबंध में फैली अज्ञानता, उपयोगितावादी दृष्टिकोण और अपराधबोध के बारे में कोई भी रोषपूर्ण टिप्पणी करने से पहले मुझे सर्वप्रथम अपनी सीमाओं को स्वीकार कर लेना चाहिए। मैं कोई भाषाविद्, विद्वान या विशेषज्ञ नहीं हूं। लेखन में मेरा अनुभव दूसरों की ही तरह मुख्यत: ई-मेल, एसएमएस और आधिकारिक दस्तावेज तैयार करने तक ही सीमित है। मैं ज्यादातर अपनी भाषा ही बोलता हूं और मेरी कोशिश रहती है अपने सीमित भाषाई अनुभवों को उन लोगों तक पहुंचाऊं जिन्हें इनकी दरकार है। मेरे लिए भाषा का अर्थ है ‘ज़ुबान’ – जिसका प्रयोग संप्रेषण, कार्य संपादन और जीवन के लिए किया जाता है। साथ ही भाषा मेरी सांसों की ध्वनि भी है और मेरा तत्व संगीत भी!
मैं भाषा का उपयोग तो करता हूं, लेकिन शुक्र है कि मैं उपयोगितावादी नहीं हूं। मेरे संपूर्ण विकास और अस्तित्व की पहचान के लिए जिस तरह से मेरे लिए माता-पिता का प्रेम उपयोगी है, उसी तरीके से भाषा का उपयोग भी अन्त:करण में कृतज्ञता और प्रेम के भाव से विच्छिन्न नहीं है। भाषा के प्रति मेरे इस भावावेग के लिए कुछ दिनों पहले तक मेरे पास कोई पारिभाषिक शब्द नहीं था। अब, मैं उस लेखक को धन्यवाद दे सकता हूं जिसने भाषाई ‘विकासवाद’ के ऊंचे आदर्शवादी मचान पर चढ़ कर हम जैसे लोगों को ‘वर्नैक्युलर शावनिस्ट’ (क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति अंधवादी) करार दिया है। विद्वानों को बड़े-बड़े नाम देने का बहुत शौक होता है, जैसे अंग्रेजों को था! अंग्रेज बस इतना करते थे कि इन नामों को वे शब्दकोशों में जोड़ लेते थे, मसलन कैंब्रिज शब्दकोश में पियन का अर्थ दिया हुआ है भारतीय नौकर।
हमें हमारी पहचान बताने के लिए आपको साधुवाद! आप जैसे बुध्दिजीवी विद्वानों के रहते हुए आखिर हम जैसे तुच्छ लोग अपनी पहचान भी जानने की ज़ुर्रत कैसे कर सकते हैं? (हालांकि, जैसा मैंने पहले कहा, भाषा का कुल सार उसकी लक्षणाओं में है)। तो अब हुज़ूर-ए-आला की इजाज़त से मैं ‘वर्नैक्युलर शावनिस्ट’ के इस तमग़े को उसी तरह गर्व से पहनूंगा जैसा कि हम में से कई ने ‘स्यूडो सेक्युलर’ (छद्म धर्मनिरपेक्ष) के तमग़े को धारण करना चुना है। मैं खुद को संबोधित करने के लिए इसका अधिक से अधिक इस्तेमाल करूंगा, और इसके लगातार प्रयोग से आप द्वारा दिए गए अर्थ को निरर्थक बना दूंगा। हमारे सामूहिक आत्मसम्मान की भावना का अर्थ मैं इस शब्द में भर दूंगा। अगर भाषा हमारी मां है, तो हुजूर इसका ‘दास’ बनने में हमारा सौभाग्य ही होगा लेकिन एक नौकर हम कभी न होंगे। ज़रा ज़बान संभाल के हुजूर, कहीं हम आपके लफ्ज़ न झटक लें।
‘संभल के’, उसने कहा, जैसे ही हम उस भरे-पूरे बाज़ार की ध्वनियों को पीछे छोड़ते हुए बाईं ओर जाती एक ऐसी गली में घुस गए जो लगता था अपने अकेलेपन में ही सहमी जा रही हो। गली में प्रवेश करते ही हमारा स्वागत ठहरे हुए पानी के एक गङ्ढे और सीवर के उस गंदले पानी से उठते दुर्गंध के भभूके से हुआ जो घरों की गंदगी साफ कर पाइपों के कंठ में घड़घड़ाते हुए नीचे की ओर आता था। इनके अलावा गली में खेलते खुशनुमा अधनंगे बच्चों के शरीर पर हमेशा मंडराते रहने वाली उन भिनभिनाती मक्खियों ने भी हमारा आवभगत किया जो भारत में काफ्का की याद दिलाती थीं। वह महिला काफी उदार थीं। यह जानते हुए कि हम राजधानी से आए थे और हर महानगरवासी की ही भांति हम भी इस छोटे से शहर में खो जाएंगे, उन्होंने हमारे फोन के जवाब में अपनी बेटी को हमें कुछ दूर तक राह दिखाने भेज दिया था। एक और मोड़, अगली गली और उसके अंत में एक बड़े से आंगन वाला सामान्य लेकिन अनगढ़ सा घर। वहां पहुंचते ही एक महिला हमें घर के अंतिम कमरे तक ले गईं। और ये रहे!
खादी का भूरा कुर्ता और चेक की नीली लुंगी पहने, दो कंबलों को तकिया बनाकर सफेद पलस्तर छोड़ती दीवार के सहारे टिके हुए बिस्तर पर चारों ओर बिखरी किताबों के बीच वह बैठे थे, त्रिलोचन। कौन त्रिलोचन? अब, मैं बिना ‘तत्व’ खोए उनके बारे में कुछ भी कैसे बोल सकता हूं? जीता-जागता कबीर; एक ऐसा कवि जिसने बीसवीं सदी की शायद सबसे बेहतरीन कविताएं लिखी हैं; एक अमर्त्य लेखक जिसे ज्ञानपीठ पुरस्कार तक नहीं दिया गया, या एक ऐसा ग्रैंड ओल्ड मैन जिनके नाम पर सम्मानस्वरूप आपस में लड़ते-झगड़ते सभी साहित्यिक समूह एक हो जाते हैं। शायद कोई भी विवरण उनके लिए सटीक नहीं बैठता। इस ‘त्रिलोचन’ की जाने कितनी अर्थच्छवियां हैं।
कुछ ही दिनों पहले उन्हें सवेरे अचानक अस्पताल ले जाना पड़ा था। अब वे इस एकाकी कमरे में अपनी दुनिया में खोए हुए आराम कर रहे हैं। घर की बहू उषा जी हम लोगों के लिए कुछ नाश्ता और शरबत ले आईं। मैंने त्रिलोचन जी के स्वास्थ्य के बारे में कुछ उत्सुकता दिखाई, लेकिन उन्होेंने मेरे सवाल को अनसुना करते हुए अपनी बीमारी के बारे में कुछ भी नहीं बताया। कई बार मेरी ओर देखने के बाद उन्होंने अपनी लंबी चुप्पी तोड़ी। और उन्होंने क्या-क्या बोलना चुना? अन्य लेखकों के बारे में कुछ बातें, पेड़ों, भाषाओं और बोलियों के बारे में कुछ बातें आदि; इनमें से कुछ ऐसी भाषाएं थीं जिनके नाम मैंने पहले कभी नहीं सुने थे; जो शायद हमारी धरती और इस ग्रह के अन्य हिस्सों पर भी मौजूद हैं।
पर्यावरणविद् चेतावनी देते हैं, ‘हमारा खूबसूरत ग्रह खत्म हो रहा है।’ जंगलों, पहाड़ों, रेगिस्तानों, सागरों और दुनिया के अन्य सुदूर हिस्सों में हमारे वैज्ञानिक और पर्यावरणवादी आंदोलनकारी संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि, हम में से कई इनकी पूरी तरह प्रशंसा नहीं करते हैं, लेकिन कुछ सचेतन लोग लगातार लड़ाई छेड़े हुए हैं, जो शायद एक हारी हुई लड़ाई है। मिनट दर मिनट तिल-तिल कर हमारी धरती मर रही है…वर्षा के जंगलों को नष्ट किया जा रहा है, हवा में ज़हर घुलता जा रहा है, जल प्रदूषित हो रहा है। दुर्लभ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं…कई चीजें हमारे बोलते-बोलते दुर्लभ हो रही हैं…पौधे, पशु, पक्षी और कीड़े-मकोड़े आदि। जो इनके लिए लड़ रहे हैं, उन्हें शुभकामनाएं।
इसके अलावा एक और ऐसी चीज है जिसकी मौत हो रही है, बहुत शांति से। आकलन के मुताबिक हमारी धरती पर करीब 5500 से 6500 के बीच भाषाएं और बोलियां हैं। इनमें से कई लुप्त हो रही हैं, चूंकि इन्हें बोलने वाले अपने बाद की पीढ़ी को सिखाना ज़रूरी नहीं समझते। हर पखवाड़े दुनिया के किसी कोने में एक भाषा मरती है, अपने अंतिम बोलने वाले की मौत के साथ। इसके बाद कुछ नहीं बचता। न कोई गीत, न ध्वनि, न कथाएं। इसी दर से चलता रहा तो आकलन है कि इस सदी के अंत तक दुनिया की 97 फीसदी भाषाएं समाप्त हो जाएंगी।
एक भाषा की मौत हो ही जाती है तो क्या? हम हमेशा उस भाषा को सीख सकते हैं जो बची हुई है। आखिरकार, सारा मामला जिसकी लाठी उसकी भैंस का ही है! क्यों?
इससे क्या फर्क पड़ता है कि जंगलों में बाघ समाप्त हो रहे हैं…..कि किसी सुदूर वर्षा के जंगल में एक फूल की पंखुड़ियां हमेशा के लिए झड़ जाएं…..या कि एक छोटा-सा कीड़ा सहारा के रेतीले ढूहों में अंतिम बार दफन हो जाए? हमें तो फिल्में देखने और किस्तें चुकाने से ही फुर्सत नहीं है!
‘यह बहस अब समाप्त हो चुकी है’, ऐसा कहते हैं हमारे अंग्रेज़ीदां बुध्दिजीवी, और ऐसा कहते हुए वे हमें अंधवादी और स्तालिनवादी ठहरा देते हैं। मैं उनकी इस बात से सहमत हूं कि ‘अंग्रेजी के बारे में सारी बहस समाप्त हो चुकी है, या हो जानी चाहिए।’ वे कहते हैं कि अंग्रेजी के आर्थिक फायदे हैं, इसलिए हमें इसे सीखना चाहिए। ठीक! यह संपर्क का एक माध्यम है और वैश्विक भाषा है। ठीक! हिंग्लिश को हमें स्वीकार करना होगा इसलिए अंग्रेजी शिक्षण और ज्ञान आवश्यक है। ठीक है, मैं आपसे बिल्कुल सहमत हूं। भारतीय भाषाओं के बारे में जो लोग चीखते-चिल्लाते रहते हैं वे महज कमजोर दृष्टि वाले भावनात्मक लोग हैं जो विकास में बाधक हैं। गलत!
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में अंग्रेजी अवसरों को भुनाने वाली भाषा बन चुकी है और इसकी आवश्यकता स्वयं सिध्द है। लेकिन गंभीर समस्याएं तब खड़ी हो जाती हैं जब इस आवश्यकता को कोड़ा बना कर भारतीय भाषाओं के प्रेमियों पर फटकारा जाता है। इससे भी बुरा तब होता है जब अपनी मातृभाषा में दक्ष नहीं होने के बचाव में इसे इस्तेमाल किया जाता है, अपनी भाषा से संबध्द हीन ग्रंथि को इस आवश्यकता की चादर से ढंकने की कोशिश की जाती है। यह तर्क गलत तो नहीं है- यह सिर्फ सीमित तर्क है और इसे कहने का तरीका बहुत भद्दा है। ‘साहबों’ की भांति अक्खड़पन दिखाते हुए ये अंग्रेज़ीदां लोग अपनी सीमित दृष्टि, अपनी रणनीति का दोहरापन और अपने त्रुटिपूर्ण विश्लेषण के छिछलेपन को छुपाने के लिए ऐसा धुआं पैदा करते हैं जो लंबे समय के लिए खतरनाक साबित हो सकता है और हमारी संस्कृति की खुदकुशी के लिए पूर्वपीठिका तैयार करता है!
यह बहस भले खत्म हो चुकी हो, संघर्ष जारी है। अंग्रेजी के बारे में बहस जहां खत्म होती है, जैसा कि होना चाहिए, भारतीय भाषाओं के बारे में संघर्ष वहीं से शुरू होता है। ऐसा ही होना भी चाहिए। यह एक ऐसा संघर्ष है जहां उपयोगितावादी अंग्रेज़ीदां लोगों के साथ हम कोई संभावना नहीं देखते, लेकिन अंग्रेज़ी का एक सामान्य प्रेमी खुद-ब-खुद हमारे साथ है। आखिर एलेन गिन्सबर्ग ने अपनी अंग्रेज़ी भाषा को समृध्द करने के लिए क्या त्रिलोचन से वैदिक काव्यात्मक तत्वों को सीखने में काफी वक्त नहीं गुज़ारा?
भाषाएं किसी प्रयोगशाला के यांत्रिक कार्य या मौखिक परंपरा का हिस्सा नहीं हो सकतीं जिन्हें हम अपनी भावनात्मक पहचान के लिए बचाते फिरें। ये संचार का माध्यम हैं और इनका एक सत्व है। लेकिन कैसा संचार और कैसा सत्व? भाषा कुछ ध्वनियों का समुच्चय ही नहीं है जो बाजार के विनिमय में योगदान दे। यह उपभोग की वस्तु मात्र नहीं है। यह सजीव है। भाषाएं जीती हैं, श्वास लेती हैं, गाती और नाचती हैं, सपने देखती हैं तो प्रार्थना में सिर भी नवाती हैं। भाषाएं, जुंग के शब्दों में कहें तो ‘सामूहिक अर्धचेतन’ का संरक्षण करती हैं। भाषाओं में हमारे मिथक, मुहावरे और हमारी सामूहिक स्मृति संरक्षित है। ये हमारी संस्कृति को धारण करने वाला पात्र और अस्मिता की वाहक हैं। भाषा में सिर्फ परंपरागत कला की वसीयत और उनके संदर्भ ही नहीं होते, बल्कि व्यक्ति द्वारा अर्जित मूल्य और विश्वदृष्टिकोण भी विद्यमान है। वेदों से लेकर मध्यकालीन संत कवियों तथा दरगाहों पर श्रोताओं के दिलों में गूंजती कव्वालों की आवाज़ों से होते हुए 21वीं सदी के एक निरक्षर किसान तक- भाषाएं हमारे बनते-बिगड़ते दार्शनिक दृष्टिकोण की अर्थच्छायाओं को साथ लेकर चलती हैं जो सदियों तक हमें रास्ता दिखाती हैं। वे स्वप्न में मुझे अपने बेनाम और चेहराविहीन पुरखों को देखने की दृष्टि प्रदान करती हैं जिनमें वे मुझसे बातें करते हैं। किसी की मातृभाषा सिर्फ मुनाफे और नुकसान, प्रेम और गौरव का ही मामला नहीं है बल्कि आत्मबोध का भी मसला है। यह आत्म और उसे मिले उत्तराधिकार के बीच एक अपरिहार्य अंतर्फलक है। यह मेरी व्यक्तिगत और सामूहिक पहचान का मामला है। और हुजूर, उस पहचान को मैं एक बर्गर के साथ खा नहीं जा सकता। और इसके लिए मैं कोई माफी नहीं मांगूंगा…।
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