सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म ट्विटर पर किसी आलोचक ने ट्वीट किया था: “2014 में जिसके पास हर समस्या का हल था वही आदमी आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया है।“ इस ट्वीट में सिर्फ़ एक बदलाव- देश की जगह पार्टी- कर दिया जाए तो मेरी आगे की बात साफ़ हो जाएगी।
खबरों की खेती करने वाले ‘गोदी मीडिया’ के शहर दिल्ली में ऑक्सिजन का संकट जैसे-जैसे कम हो रहा है और पत्रकारों को भी फ़्रंटलाइन वर्कर मानते हुए टीके लगना शुरू हो गए हैं, भाजपा के आइटी सेल और संघ सहित आनुषंगिक संगठन आक्रामक तरीक़े से प्रधानमंत्री की छवि बचाने के अभियान में जुट गए हैं। नागरिकों की जान बचाने का काम जिस भी गति से, जिन भी मोर्चों पर और चाहे जैसा भी चल रहा हो, दुनिया भर से उठ रही इस माँग को पूरी तरह से ख़ारिज करते हुए कि नरेंद्र मोदी कोरोना महामारी से मची तबाही में अपनी गलती को स्वीकार करें, उच्चस्तरीय मुहिम शुरू कर दी गई है कि मोदी और पार्टी की साख को और गिरने से कैसे रोका जाए।
पार्टी नेताओं की समझ में आ गया है कि ऑक्सिजन की कमी सिर्फ़ जनता के स्तर तक ही सीमित नहीं है, वह सरकार की साँसों पर भी असर डालने लगी है। जैसे-जैसे सरकार अपने फेफड़ों में कमजोरी महसूस करने लगेगी, ‘संघ’ठनात्मक ऑक्सिजन की ज़रूरत भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। अगर इस समय संघर्ष व्यक्तियों को बचाने से अधिक पार्टी और उसके मार्फ़त हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की रक्षा करने का बन गया हो तो आश्चर्य नहीं। शीर्ष स्तर पर शायद महसूस होने लगा है कि अभी जो कुछ चल रहा है उससे पार्टी और सरकार के प्रति ‘निगेटिविटी अनलिमिटेड’ हो चली है। संघ की ‘कोविड रिस्पांस टीम’ ने लोगों का मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से ‘पाज़िटिविटी अनलिमिटेड’ के नाम से कार्यक्रम किया है। अभी साफ नहीं है कि संघ और पार्टी के संकट की जड़ ‘लोगों का मनोबल‘ बढ़ाने के अलावा भी कुछ हो सकती है।
दुनिया जानती है कि प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी यूएसपी (यूनिक सेलिंग पाइंट) देश की जनता के साथ पार्टी और संघ से अलग अपने ही वाणी-व्यक्तित्व के दम पर स्थापित सीधा संवाद रहा है। इस समय वह सम्मोहन दरक रहा है। आज उनकी उसी जनता को हिंदू-मुस्लिम भेदभाव के बगैर अपनी जान देना पड़ रही है।
कट्टरपंथी हिंदुत्व की वकालत करने वालों के लिए मौजूदा क्षण तकलीफ़ के हो सकते हैं कि पवित्र रमज़ान के दौरान मुस्लिम अल्पसंख्यक क्यों तो अपने रोज़े तोड़कर प्लाज़्मा दान कर रहे थे और क्यों अभी भी हिंदू लाशों को अपने कंधे और चिताओं को अग्नि प्रदान कर रहे हैं। पाकिस्तान के साथ हुए कई संघर्षों के दौरान भी जो क़ौम तमाम कोशिशों के बावजूद अपनी देशभक्ति नहीं साबित कर पायी, कोरोना की निर्ममता ने उसे वह अवसर प्रदान कर दिया। पहले बंगाल के चुनाव के नतीजों ने साबित किया कि सत्ता का हस्तांतरण साम्प्रदायिक विभाजन के मार्फ़त नहीं हो सकता और अब बिना कोई जात पूछे हो रही मौतों ने उस पर अपनी मोहर लगा दी।
हो यह गया है कि सत्ता और पार्टी के साथ-साथ धर्म-आधारित राष्ट्र की स्थापना का पूरा विचार ही ख़तरे में पड़ता दिखाई दे रहा है। सरकार की अक्षमता से उत्पन्न हुए संकट से देश एक न एक दिन अवश्य बाहर निकल आएगा। इसके कारण उत्पन्न हुए आर्थिक बोझ से भी निपट लिया जाएगा (क्योंकि इतनी मौतों के बाद भी मुंबई के शेयर बाज़ार की सेहत पर ज़रा भी असर नहीं पड़ रहा है), पर राजा और प्रजा के बीच उत्पन्न हुआ विश्वास का संकट उन रंगीन सपनों में ख़लल डाल सकता है जो नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट के बीच राजपथ पर आकार ले रहे हैं। सारी परेशानी बस इसी बात की है।
देश के शीर्ष नेतृत्व को लेकर व्याप्त चिंता का अनुमान मेडिकल जर्नल ‘लांसेट’ में छपे सम्पादकीय पर पिछले दिनों सेवानिवृत हुए मध्यप्रदेश काडर के एक अध्ययनशील आइएएस अधिकारी की सोशल पोस्ट से लगाया जा सकता है:
“हम एक असाधारण समय में जी रहे हैं। यहां बाज़ार एक व्यक्ति के प्रति कुछ लोगों की मनस्तापी घृणा को एक महामारी के आक्रोश में मिलाकर अपने मुनाफ़े की काकटेल बनाने में हिचकेगा नहीं। सबब यही है कि सावधान रहें- स्वयं के स्वास्थ्य के लिए भी और ऐसी ‘वैज्ञानिक भविष्यवाणियों’ को परास्त करने के लिए भी। यह लांसेट की ‘विशफुल थिंकिंग’ भी हो सकती है या कुछ शक्तियों का टारगेट भी।“
अधिकारी ने साफ़ शब्दों में नहीं बताया है कि टिप्पणी में उल्लिखित ‘एक व्यक्ति‘ कौन है पर अनुमान लगाना भी कठिन नहीं। आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि हमारे कई मित्रों ने ‘वाह उस्ताद’ की मुद्रा में टिप्पणी को ‘अद्भुत’, ‘सटीक विश्लेषण’ और ‘यक़ीन करने योग्य‘ का प्रमाणपत्र देने में जरा भी कंजूसी नहीं की। ऐसी टिप्पणियों, आइटी सेल द्वारा आक्रामक तरीक़ों से चलाई जा रही मुहिम और सच को झुठलाते गोदी मीडिया के प्रचार के बीच ही गिनी जा चुकी और बिना गिनी लाशों के बोझ से धंसती शीर्ष पुरुषों की प्रतिमाओं को फिर से शिखर पर स्थापित करने के क्रूर प्रयासों के रहस्य छुपे हुए हैं।
भारत की कोविड-19 इमरजेंसी: The Lancet का ताज़ा संपादकीय
लोगों की जान बचे या न बचे, प्रचार युद्ध प्रारम्भ हो गया है कि महामारी को लेकर देश और दुनिया में जितना भी ‘दुष्प्रचार’ चल रहा है, उसका उद्देश्य केवल एक व्यक्ति के प्रति ‘घृणा’ और ईर्ष्या का भाव है। नौकरशाहों, व्यापार-धंधों में लगे उद्योगपतियों, दल और विचारधारा विशेष के प्रति सम्बद्धताएं रखने वाले संगठनों, परिस्थितियों के मुताबिक़ अपने को ढाल लेने वाले निहित स्वार्थों और सदैव सेवा में हाज़िर गोदी मीडिया की मदद से जो कुछ भी प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है उसका सार केवल एक पंक्ति का है। वह यह कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश के आर्थिक विकास से ईर्ष्या रखने वाली विदेशी शक्तियां देश को बदनाम करने के षड्यंत्र में जुटी हुई हैं। समय की माँग है कि इस षड्यंत्र को ध्वस्त करके संकट की घड़ी में सभी नागरिक प्रधानमंत्री के पीछे खड़े हो जाएं।
कहना मुश्किल है कि नदियों और जलाशयों में तैरती अनगिनत लाशों के अंतिम संस्कार के बीच इस प्रचार मुहिम से प्रधानमंत्री की छवि को देश और दुनिया में लाभ पहुँचेगा या और ज़्यादा नुक़सान हो जाएगा। कोरोना की त्रासदी के बीच इससे ज़्यादा तकलीफ़ की बात और क्या हो सकती है कि सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े चारणों की तात्कालिक चिंता, मौतों पर नियंत्रण की कम और प्रधानमंत्री की गिरती साख को थामे रखने की ज़्यादा है। इस सिलसिले में चरित्र अभिनेता अनुपम खेर ने गलती से या जान-बूझकर जिस सच का सामना कर लिया है उसे भी समझ लेने की ज़रूरत है।
बग़ैर इस बहस में गए कि अनुपम खेर ने मोदी की वापसी को लेकर पिछले दिनों क्या कह दिया था, हाल में जो कुछ कहा है उसका ‘सारांश’ यह है कि ‘’कोरोना संकट में सरकार ‘फ़िसल’ गई है और उसे ज़िम्मेदार ठहराना महत्वपूर्ण है। यह समय उनके लिए इस बात को समझने का है कि छवि बनाने के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ है। केवल संवेदनहीन व्यक्ति ही ऐसे हालात से अप्रभावित हो सकता है।‘’