लॉकडाउन के तले सरकार ने मजदूरों को उनकी औकात दिखाने का काम किया है


एक प्रसिद्ध दार्शनिक अवधारणा यह है कि किसी सवाल को तैयार करने का तरीका ही यह तय करता है कि उसका जवाब संभव होगा या नहीं. मात्र चार घंटे के नोटिस पर मनमाने तरीके से सख्त लॉकडाउन लागू करने के अपने रवैये के तहत सरकार गरीबों एवं अचानक से बेरोजगार हो गये लोगों की तकलीफों को कम करने के लिए कई कठोर कदम उठा सकती थी. व्यापक अनिवार्यता मांग पैदा करने की थी, जिसके लिए घाटे के वित्तपोषण (तकरीबन दो लाख करोड़ के आदेश) के जरिये नकद हस्तांतरण के रूप में होने वाली आय से पहले व्यय करने की जरूरत होती है. यह मांग एक ऐसी उत्पादन प्रणाली में, जिसका उसकी क्षमता से कम इस्तेमाल हुआ और जो इस लॉकडाउन में कोमा में पहुंच गयी है, अधिक उत्पादन को प्रेरित कर सकती थी. सौभाग्य से, एक विस्तारित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिये संचालित खाद्यान्न के बड़े भंडार की उपलब्धता इसे कम मुद्रास्फीति वाला बना सकती थी.

स्वास्थ्य संबंधी देखभाल, शिक्षा एवं आवास के क्षेत्र में विकेन्द्रीकृत श्रम पर आधारित सार्वजनिक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करते हुए सक्रिय पंचायतों और ग्राम सभाओं के जरिये उत्पादक रोजगार में श्रमिकों को समायोजित किया जा सकता था. केरल ने कोविड–19 के खिलाफ अपनी सफल लड़ाई के जरिये हमें यह दिखाया है कि यह सब कैसे किया जा सकता है. पक्षपातपूर्ण रवैये से तस्वीर को धुंधला नहीं करना चाहिए और इसका वाजिब श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए, भले ही इसी राजनीतिक दल ने पश्चिम बंगाल में तीन दशकों तक बेहद अप्रभावी तरीके से शासन किया है. ए

छोटे जल प्रबंधन एवं स्थानीय भंडारण के जरिये हमारे स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और छोटे किसानों की खेती को मजबूती देते हुए उत्पादक रोजगार प्रदान करके भारत के आर्थिक प्रदर्शन को काफी बेहतर किया जा सकता है. इसमें अधिनायकवाद और एक किस्म से एकालाप नहीं, बल्कि केंद्र-राज्य समझौते के जरिये ग्राम पंचायत स्तर तक सत्ता के विकेंद्रीकरण को शामिल करना है ताकि ग्राम सभाओं को अपने प्रदर्शन के मामले में प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिल सके और उन्हें अगले दौर के वित्तपोषण के दौरान पुरस्कृत या दंडित किया जा सके. तब विकास एक जोरदार रोजगार नीति का नतीजा होता, न कि इसके उलट रोजगार नीति विकास की एक उग्र प्रक्रिया की परिणति होती.

तो ऐसे कदम क्यों नहीं उठाये गये? क्यों इस पर चर्चा तक नहीं की गयी? इसका जवाब तलाशने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है. दरअसल, राजनीतिक अर्थव्यवस्था में यह विषय बार–बार सामने आता है कि बेरोजगारी कैसे श्रमिकों को हद में रखती है. माल्थस और रिकार्डो जैसे उन्नीसवीं सदी के अर्थशास्त्र के महान ज्ञाताओं ने लगभग थर्मोस्टैटिक नियंत्रण का सुझाव दिया! उनका मानना था कि निर्वाह से ऊपर की मजदूरी जनसंख्या की उच्च वृद्धि का कारण बनेगी. यह वृद्धि जल्द ही खाद्यान्न उत्पादन से आगे निकल जायेगी और निर्वाह के लिए मजदूरी को दोबारा नीचे ले आयेगी. मार्क्स ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे पूंजीवाद के तहत श्रम की बचत तकनीक निर्वाह स्तर पर मजदूरी को कम रखने के लिए बेरोजगार श्रमिकों की एक आरक्षित सेना बनाना जारी रखेगी. पूंजीवादी विकास ने इस रास्ते को नहीं अपनाया. खासकर, बीसवीं सदी के दौरान उन्नत पूंजीवादी देशों में श्रम उत्पादकता के साथ मजदूरी बढ़ी. यह एक अलग बात है कि बढ़ते वेतन के साथ पूर्ण रोजगार की स्थिति उसी अनुशासन को नष्ट कर देती है, जिसे पूंजीपति अपने श्रमिकों पर थोपते हैं.

विकासशील देशों में चीजें दूसरी तरह से चल रही हैं. औद्योगीकरण ने एक विशाल अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है, जो कि सिर्फ मजदूरों की एक आरक्षित सेना भर नहीं है. भारत में औद्योगीकरण के सत्तर वर्षों के बावजूद, लगभग 92 फीसदी श्रम शक्ति अब भी अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है. वे संगठित पूंजीवादी उद्योग के हाशिये पर मौजूद हैं, जहां प्रतिघंटे बेहद कम आमदनी, काम की लंबी अवधि, सामाजिक सुरक्षा नदारद और अक्सर आजीविका के लिए अकेले काम करने के बजाय पूरे परिवार के साथ स्व-नियोजित हैं. बेहतर तरीके से वित्तपोषित शैक्षिक अनुसंधान, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ), विश्व बैंक के साथ-साथ औद्योगिक घरानों द्वारा पोषित मीडिया- ये सभी मिलकर बाजार समर्थक सुधारों, निजीकरण और श्रम बाजार के लचीलेपन के लिए एक सुर में राग अलापते हैं. इस किस्म का एकतरफा सुधार राज्य की तटस्थ भूमिका, जो कि एक निष्पक्ष अंपायर की तरह विनियमन कर सकती है, को प्रभावित करती है. यह एक लोकतांत्रिक राज्य का सार है जो न केवल श्रमिकों बल्कि पूंजीपतियों की ज्यादतियों को भी नियंत्रित करता है. इसके बजाय महामारी की आड़ में केवल श्रमिकों पर एकतरफा अनुशासन थोपना एक नियम सा बन गया है.

पश्चिम के औद्योगिकीकरण के इतिहास के कई महत्वपूर्ण हिस्से हैं, जिन्हें याद रखने की जरूरत है. कृषि से औद्योगिक लोकतंत्र तक श्रम के हस्तांतरण की लंबी और यातनापूर्ण प्रक्रिया के दौरान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के लिए शायद ही कोई जगह थी. इस काम में ब्रिटेन को लगभग 120 साल लगे, अमेरिका को 90 और जर्मनी जैसे देशों को 60 साल से कम नहीं लगे. पहले के औद्योगिक देशों के पास सस्ते कच्चे माल का अधिग्रहण करने के लिए उपनिवेश भी थे और वे अपने उत्पादों को बंधक बने औपनिवेशिक बाजारों में बेचते थे. यह रास्ता देर से औद्योगीकृत होने वाले भारत जैसे देश के लिए उपलब्ध नहीं है. यदि हम उस रास्ते पर चलना चाहते हैं, तो हमें अपनी भूमि, जल, जंगल, पहाड़ और समुद्र के तटों के आंतरिक उपनिवेशीकरण की ओर तेजी से मुड़ना होगा और इस क्रम में सबसे गरीब आदिवासी, वनवासी, दलित आदि तबकों में से कई की आजीविका नष्ट हो जाएगी.

कम से कम 1990 के दशक के उदारीकरण के समय से,  हमारे उदारीकरण का नेतृत्व व्यापारिक निगमों के हाथों में है, न कि सरकार के. सरकार ने तेजी से इन निगमों के एक प्रमोटर की भूमिका निभायी है. लॉकडाउन की आड़ में सरकार अपने कॉरपोरेट समर्थक तर्कों को और भी बेरहमी से लागू कर रही है. वह अब दोनों पक्षों की ज्यादतियों को नियंत्रित करने वाले एक तटस्थ रेफरी के रूप में कार्य करने का दिखावा भी नहीं करती है. श्रम सुरक्षा कानूनों को समाप्त करके सत्ता के पदानुक्रम में श्रम को उसकी जगह दिखा दी गयी है. छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों को उनकी जमीन का निजी उद्योग और खनन के लिए आसान हस्तांतरण के जरिये मौद्रिकरण करने का खतरा दिखा कर उसे और भी अनिश्चित महसूस कराया जा रहा है. रिजर्व में रखे लाखों टन खाद्यान्न को सड़ने और चूहों को खाने दिया जायेगा, लेकिन उसे बेरोजगारों को मुफ्त में नहीं दिया जायेगा. बेरोजगारों को अपने घुटनों पर रखा जायेगा और ‘नियुक्ति के लिए अयोग्य’ करार देकर उन्हें विनम्रतापूर्वक मरने के लिए तैयार किया जायेगा.

लॉकडाउन का उद्देश्य भले ही महामारी से निपटने के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा प्रणाली तैयार करना था,  लेकिन यहां तक कि निजी अस्पतालों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं के अस्थायी राष्ट्रीयकरण को नीतिगत एजेंडे से बाहर रखा गया है और निश्चित रूप से बेहद असमानता पर आधारित इस समाज में धन पर कर लगाने के बारे में कोई चर्चा नहीं है. लिहाज़ा पूर्ण रोजगार की एक नीति के सभी विचारों को नीतिगत चर्चा से दूर रखा जाता है और बेरोजगारी एवं विनाश को बढ़ने दिया जाता है. यह कदम मजदूरी को लेकर मोलभाव करने की मजदूरों की शक्ति को कमजोर करने की नीयत से सिर्फ मजदूरों की एक आरक्षित सेना नहीं बनाये रख रहा है, बल्कि मज़दूरों की उनकी औकात भी दिखाता है. इस बीच हम, साधन–संपन्न लोग, खुद को इस बात की तसल्ली दे सकते हैं कि “वितरित किये जाने से पहले अधिक धन का सृजन किया जाना चाहिए।” यही वजह है कि पांच ट्रिलियन वाला सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) हमारा लक्ष्य है,  लेकिन पूर्ण रोजगार नहीं.    


लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व एमेरिटस प्रोफेसर हैं। यह लेख इंडियन एक्‍सप्रेस में 7 जुलाई को प्रकाशित हुआ था। कवर तस्वीर ब्लूमबर्ग से साभार प्रकाशित है।


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