कोरोना संक्रमण के इस विकट काल में भी जहां कुछ बड़े देशों के बड़बोले राजनेता अपनी जनता को उसके भाग्य भरोसे छोड़कर अपनी ब्राडिंग में ही व्यस्त हैं, वहीं कुछ छोटे देशों में महिला नेतृत्व अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता का उपयोग कर अपनी जनता को कोरोना संक्रमण और इसके नुकसान से बचाने का सफल उदाहरण पेश कर रहा है। लगभग एक ही समय में कोरोना संक्रमण से प्रभावित होने वाले देशों में जहां के शासक केवल मन की बात करते रहे, वहां की जनता कोरोना का कहर भुगत रही है लेकिन दूसरी तरफ जहां के शासक गम्भीर और संवेदनशील हैं वहां कोरोना संक्रमण की स्थिति नियंत्रण में है।
अध्ययन और आंकड़े बता रहे हैं कि कई देश जहां महिलाएं शासन में हैं, वहां कोरोना संक्रमण से नुकसान तो हुआ लेकिन वह अन्य देशों की तुलना में काफी कम हुआ। न्यूजीलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड, ताइवान, डेनमार्क, जर्मनी, बांग्लादेश, म्यांमा आदि देशों में न केवल मृत्युदर कम रही बल्कि आर्थिक नुकसान भी अपेक्षाकृत कम हुआ। यदि हम भारतीय उपमहाद्वीप की ही बात करें तो बांग्लादेश और म्यांमा में भारत और पाकिस्तान की तुलना में मृत्यु दर बहुत कम रही है।
कोरोना वायरस से निपटने में दक्षिण कोरिया की तैयारी और सक्रियता को दुनिया ने सराहा लेकिन यह कम लोगों को ही पता होगा कि वहां संचारी रोग नियंत्रण की प्रमुख एक महिला सुश्री जेयोंग यून क्येयोंग हैं। इन्होंने ही टेस्ट ट्रेसिंग एवं कन्टेन का फॉर्मूला अपनाया था। इस महिला अधिकारी को ही यह श्रेय जाता है कि एक समय में चीन के बाद सबसे अधिक संक्रमित लोगों की संख्या के बाद भी वहां केवल 250 लोगों की ही मौत हुई। इन्होंने स्वयं प्रेस कान्फ्रेंस कर रोजाना लोगों की हिम्मत बढ़ायी और हालात से निपटने के तरीके बताये। इसी वजह से सुश्री क्येयोंग को अब लोग दुनिया की सर्वश्रेष्ठ “वायरस शिकारी” के तौर पर जानने लगे हैं।
कोरोना संक्रमण के इस अभूतपूर्व दौर में पश्चिमी मीडिया में तो महिलाओं की नेतृत्व क्षमता पर अनेक लेख प्रकाशित हो रहे हैं, लेकिन भारत का गोदी मीडिया शुरू से ही जनता को बकवास खबरों में उलझाकर उन्हें सही सूचना से वंचित रख रहा है। वैसे देखें तो दुनिया में लगभग 7 या 8 फीसद देशों की प्रमुख महिलाएं हैं, पर कोरोना संक्रमण के इस दौर में उनकी दृष्टि, मानवीयता एवं प्रशासनिक क्षमता वास्तव में प्रेरणादायी है। यह अलग बात है कि कुछ देशों में दम्भी नेताओं की महत्वाकांक्षा की वजह से वहां की जनता बदहाल, निराश और असहाय महसूस कर रही है।
न्यूजीलैण्ड में सुश्री जेसिंदा आर्देन प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने अपनी सक्रियता से केवल 18 मौतें दर्ज कराकर बेहद कम समय में ही देश में लॉकडाउन खोल दिया है। ऐसे ही डेनमार्क की महिला प्रधानमंत्री मेटे फ्रेदेरिक्सें ने शुरू में ही सख्ती से लॉकडाउन किया और 370 मौतों के बाद कोरोना संक्रमण को लगभग नियंत्रित कर लिया है। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल नें भी अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता की वजह से कोरोना संक्रमण को नियंत्रित कर लिया है। आइसलैण्ड की प्रधानमंत्री कटरीन जकोब्सदोत्तिर ने न तो स्कूलों को बन्द किया और न ही सख्त पाबंदियां लगायीं। उन्होंने प्रत्येक नागरिक के लिए मुफ्त परीक्षण की व्यवस्था की। परिणामस्वरूप वहां केवल 1800 लोग संक्रमित हुए और मात्र 10 व्यक्तियों की मृत्यु हुई।
फिनलैण्ड में कोरोना के 4000 मामले दर्ज किये गये और 140 लोगों की मृत्यु हुई। यह संख्या प्रति दस लाख आबादी के सन्दर्भ में पड़ोसी देश स्वीडन की तुलना में 10 फीसद भी नहीं है। फिनलैण्ड की प्रधानमंत्री सेन्ना मरीन सम्भवतः दुनिया की सबसे कम उम्र की प्रधानमंत्री है जिन्होंने लोगों से सख्ती से लॉकडाउन का पालन करवाया। भारत में यहां का मीडिया सत्ता की भक्ति में इस कदर डूबा है कि उसे देश की बहुसंख्य आबादी की बदहाली नहीं दिखती। आम लोगों का ध्यान भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम, पाकिस्तान आदि का रोज़ राग अलापने वाला भारतीय मीडिया अपने पड़ोसी देशों में कोरोना संक्रमण और इससे उत्पन्न हालात को सम्हालते महिला नेतृत्व को भला कहां देख पाएगा?
अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश का नेतृत्व कर रहीं शेख हसीना के कुशल नेतृत्व ने 17 मई तक 298 मौत एवं 20,065 मामलों तक कोरोना संक्रमण को नियंत्रित रखा। ऐसे ही म्यांमा की प्रधानमंत्री आंग सां सूकी के नेतृत्व का ही कमाल है कि वहां 17 मई तक कोरोना संक्रमण के कुल 181 मामले और 6 मौतों के बाद तबाही का आंकड़ा लगभग थमा हुआ है। ऐसे ही कैरीबियाई द्वीप समूह के बहुत छोटे देश सेंट मार्टिन की महिला प्रधानमंत्री सिल्बेरिया जकोब्स ने अपने कठोर निर्णय के बावजूद जनता को ज्यादा परेशान नहीं किया। यह तो विभिन्न देशों के महिला शासकों की नेतृत्व क्षमता की बात थी, लेकिन कोरोना संक्रमण काल में महिलाओं की स्थिति कुल मिलाकर कैसी रही यह चर्चा भी जरूरी है।
बीते दो महीने के आंकड़े यदि देखें तो कोरोना संक्रमण में पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कम संक्रमित हुई हैं। बावजूद इसके उनकी परेशानियां पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा हैं। अमरीका में कोरोना से मरने वाली महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या दोगुने से ज्यादा है। ऐसे ही पश्चिमी योरोप में कोरोना से मरने वाली 31 फीसद महिलाएं हैं तो पुरुष 69 फीसद हैं। यही स्थिति चीन और भारत की भी है। भारत में कोरोना संक्रमण में स्त्री-पुरुष का आंकड़ा अनुपात 3:1 का है यानि 73 फीसद पुरुषों की तुलना में 27 फीसद महिलाओं की ही मृत्यु हुई है। लगभग यही आंकड़ा संक्रमण का भी है।
पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के कम संक्रमित होने के कारणों पर आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन के प्रोफेसर फिसिप गोल्डर कहते हैं, ‘‘महिलाओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता पुरुषों की तुलना में बेहतर होती है। कोरोना वायरस या किसी भी वायरस संक्रमण में वायरस को सक्रिय होने के लिए खास तौर पर जिस प्रोटीन की आवश्यकता होती है वह है ‘‘एक्स क्रोमोजोम’’। महिलाओं में दो एक्स क्रोमोजोम होते हैं जो उनके इम्यून सिस्टम को मजबूत रखते हैं। महिलाओं में इम्यून कोशिका के सक्रिय होने की दर पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। इसके अलावा महिलाओं का शरीर पुरुषों की तुलना में ज्यादा एन्टीबाडी उत्पन्न करता है।”
प्राकृतिक तौर पर महिलाएं पुरुषों की तुलना में भले ही ज्यादा स्वस्थ एवं मजबूत इम्यूनिटी वाली हों लेकिन सामाजिक और राजनीतिक तौर पर उन्हें दबाने और परेशान करने में पुरुष नेतृत्व एवं पुरुष वर्चस्व जरा भी पीछे नहीं है। कोरोना संक्रमण की वजह से लगभग पूरी दुनिया लॉकडाउन में है और सभी जगह आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ी हैं। लोगों के रोजगार छिन रहे हैं। वैश्विक मंदी का दौर शुरू होने वाला है। इसमें महिलाओं की स्थिति पुरुषों की तुलना में ज्यादा खराब है। अमरीका में विगत मार्च में ही करीब 10 लाख 40 हजार लोग बेरोजगार हो गये हैं। सन् 1975 के बाद अमरीका में बेरोजगारी का यह सबसे बड़ा आंकड़ा है। इसमें पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की नौकरियां ज्यादा गयी हैं। भारत में भी महिलाओं के रोजगार की स्थिति पुरुषों की तुलना में ज्यादा चिंताजनक है। वैसे भी पुरुषों को काम के बदले मिलने वाले पगार की तुलना में महिलाओं को भारत में 75 फीसद ही मिलता है जबकि अमरीका में यह 85 एवं आस्ट्रेलिया में 86 फीसद है।
महामारी या किसी भी बड़ी आपदा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति पर लन्दन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर क्लेयर वेन्हम का अध्ययन बताता है कि लगभग प्रत्येक आपदा में महिलाएं ही ज्यादा परेशानी झेलती हैं। प्रोफेसर वेन्हम ने इसके पहले जीका एवं इबोला महामारी के दौरान भी स्त्री-पुरुषों के हालात पर अध्ययन किया था। उनके अनुसार महामारी की वजह से लॉकडाउन या घरों में ही रहने की बाध्यता का खामियाजा महिलाओं को ही ज्यादा उठाना पड़ता है। इस दौरान उन पर यौन ज्यादतियां और यौन हिंसा के ज्यादा मामले होते हैं। उन्हें गर्भपात या गर्भनिरोध का विकल्प भी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता, मसलन उन्हें अनचाहे गर्भ की स्थिति से गुजरना पड़ता है। महामारी या लॉकडाउन के दौरान महिलाएं घरेलू हिंसा का भी सबसे ज्यादा शिकार होती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय आकंडा देखें तो फ्रांस में लॉकडाउन के पहले ही हफ्ते में घरेलू हिंसा के मामले एक तिहाई बढ़ गये जबकि आस्ट्रेलिया में महिलाओं पर हिंसा के मामलों में 75 फीसद की वृद्धि हुई। अमरीका में महिलाओं पर हिंसा का आंकड़ा दोगुना है जबकि भारत में विगत कुछ वर्षों से प्रमाणिक आंकड़े जारी करने ही बन्द कर दिये गये हैं। फिर भी राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट के अनुसार वर्ष 2019 की तुलना में अप्रैल 2020 में विगत एक महीने में घरेलू हिंसा, बलात्कार या बलात्कार की कोशिश, इज्जत से जीने का मामला, यौन हिंसा, यौन प्रताड़ना के मामलों में लगभग दोगुना से ज्यादा शिकायतें दर्ज हैं।
कोरोना संक्रमण काल का सबसे खौफनाक पहलू यह है कि सरकारी हठधर्मिता, राजनीतिक नेतृत्व के दंभ और कुत्सित महत्वाकांक्षा के कारण लगभग 5 से 8 करोड़ लोगों को बेहद अपमानजनक व कष्टदायी परिस्थितियों में हजारों किलोमीटर की यात्रा पैदल तय कर घर लौटना पड़ा। अचानक लगाये गये लॉकडाउन के बाद प्रवासियों में जीवन और भोजन को लेकर उत्पन्न अनिश्चय एवं आशंका ने उन्हें अपने गांव लौटने को विवश कर दिया। शहर के स्थापित मध्यवर्ग और सरकारों ने भोजन और किराये के नाम पर जब लूटना शुरू किया तो प्रवासी श्रमिकों को स्पष्ट हो गया कि गांव लौटना ही एकमात्र रास्ता है। फिर तो वे महीने भर पैदल चल कर घर लौटने लगे। इसमें महिलाओं और बच्चों की हालत को देखना अपने आप में एक यातना से गुजरना है।
सरकार, नेताओं और दलाल पत्रकारों की असहिष्णुता ने अमानवीयता के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। शासन व्यवस्था की बेशर्मी का आलम यह है कि पैदल घर लौटती महिलाएं, बच्चों व विकलांगों के साथ सरकारी आदेश पर भेदभाव, खाना नहीं देना, कहीं रुकने नहीं देने, का पालन पुलिस और अधिकारियों ने किया। तर्क यह, कि इन चलते-फिरते ‘‘कोरोना’’ से हमारे लोग न संक्रमित हो जाएं!
कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन ने संपन्न भारतीय समाज, राष्ट्र और हिन्दुत्व की औकात नाप ली है। ‘‘सबसे बड़े लोकतंत्र’’, ‘‘सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी’’, ‘‘सबसे लोकप्रिय नेता’’, ‘‘सबका साथ, सबका विकास’’ जैसे जुमलों की हकीकत खोलकर रख देने वाले इस लम्बे लॉकडाउन ने शहरी मध्यम वर्ग के स्वार्थी चरित्र को भी बेनकाब कर दिया है। मातृशक्ति, सशक्त नारी, जननी जन्मभूमि जैसे शब्दों की चाशनी में डूबे कथित हिन्दुस्थान के रामराज्य में औरतों की दुर्दशा ने स्पष्ट कर दिया है कि जुमलों के सहारे सत्ता तक पहुंचने वालों की राजनीति में प्रयुक्त एक-एक शब्द छल, कपट और झूठ के उस पासे की तरह है जिसके सहारे केवल लूट की जा सकती है।
कोरोना संक्रमण काल में दलित व मुसलिम महिलाओं, आदिवासियों एवं श्रमिक महिलाओं ने जो ऐतिहासिक दुःख झेला है वो भुलाया नहीं जा सकता। यह सबक तो महिलाएं शायद ही भूल पाएं कि स्त्रियां पुरुषवादी सत्ता और पुरुष वर्ग के लिये भोग और शोषण का साधन मात्र हैं।
लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं
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