भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के खतरे और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की विपन्नता ने आम लोगों के जीवन के साथ बहुत खिलवाड़ किया है। सन् 1991 में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के बाद महंगी निजी स्वास्थ्य व्यवस्था एवं अपनी दक्षता और क्षमता के बावजूद खोखली होती सरकारी (सार्वजनिक) स्वास्थ्य व्यवस्था को देश के हर तबके ने अच्छी तरह देख और समझ लिया है। विगत तीस वर्षों से देश में चल रही निजी स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत इस कोरोना काल में आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों ने भी अच्छी तरह जान ली है। सरकारी या सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के खस्ता हाल ने भी लोगों को समझा दिया है कि इसके सहारे जीवन की रक्षा सम्भव नहीं। फिर भी भारत की मौजूदा सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों में यहां के लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को और ज्यादा मजबूत बनाया जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो कोरोना की दूसरी लहर में जैसे लाशें बिछी थीं वैसे ही जनसंहार की तरह लोग बीमारियों और इलाज के बिना मरेंगे और हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे!
मैं सन् 1985 से ही जनस्वास्थ्य विषय पर सक्रिम काम कर रहा हूँ। सन् 1991 में उत्तरकाशी (उत्तराखण्ड) में भूकम्प, 1994 में सूरत (गुजरात) में प्लेग महामारी, 1987 में मस्तिष्क ज्वर, 1991 में बिहार में कालाज़ार, 2010 में बर्ड फ़्लु आदि में देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर कार्य किया। इन महामारियों में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की खस्ता हालत और दवा तथा इलाज के अभाव में दम तोड़ते लोगों को देखकर विचलित हुआ और एक सक्रिय चिकित्सक होते हुए भी खुद को असहाय महसूस किया। लगभग हर महामारी में बड़े पैमाने पर लोगों की मौत ने खुद को यह सोचने पर विवश कर दिया कि संविधान में आर्टिकल 21 की स्पष्ट व्याख्या के बावजूद भी व्यक्ति दवा और इलाज के बिना मर रहा है और सरकार तथा समाज के चेहरे पर शिकन तक नहीं है। हम जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता अब महसूस कर रहे हैं कि देश के नागरिकों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य गारन्टी की मांग को पुरजोर उठाने की बेहद जरूरत है।
तन मन जन: स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है, सरकार को बार-बार यह याद क्यों दिलाना पड़ता है?
वैश्विक स्तर पर देखें तो स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की प्रक्रिया संयुक्त राज्य अमरीका से शुरू हुई थी, लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासन में स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण के चंगुल से निकालकर वहां भी योरोप की तरह ‘‘राज्य स्वास्थ्य सेवा’’ की शुरूआत की गयी। उल्लेखनीय है कि विकसित देशों ने अभी से दो दशक पहले ही यह निर्णय कर लिया था कि स्वास्थ्य सेवाएं निजी कम्पनियों को देने के बजाय सरकार के द्वारा चलायी जाएंगी। भारत में इसके उलट स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। निजीकरण के मामले में यहां की लगभग सभी सरकारें एक मत रखती हैं। कांग्रेस के शासन में जो निजीकरण शुरू हुआ वह अब भाजपा के शासन में और पुरजोर तरीके से लागू किया जा रहा है। आज स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भारत निजीकरण का सबसे बड़ा समर्थक देश है। यहां की अधिकांश जनता इस बात को समझ नहीं पा रही कि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण उन्हें कंगाल बनाकर छोड़ेगा। बढ़ते रोगों की चुनौतियों और महंगे इलाज के प्रचलित होने के साथ साथ बीमारी की हालत में आम आदमी अब निजी अस्पतालों में जाकर इलाज कराने के लिए मजबूर है।
स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की हकीकत इस कोरोना काल में खुलकर सामने आ गयी है। अस्पताल क्या सरकार तो लगभग सभी सरकारी उपक्रम निजी कम्पनियों को बेच रही है। आज जब लोगों को चिकित्सा सुविधा की जरूरत है तो कहीं कोई निजी कम्पनी दिखायी नहीं दे रही। सवाल यह उठ रहा है कि निजीकरण के अंधे दौर में सरकार देश की मुनाफे वाली कम्पनियों को नीलाम कर किसका हित साध रही है? हैरानी की बात तो यह है कि वर्ष 2020-21 के बजट में केवल 1.6 फीसद (67,489 करोड़ रुपये) ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने का प्रावधान किया गया है जो अन्य देशों की तुलना में नगण्य है। जाहिर है कि सरकार लोगों के जीवन और सेहत से ज्यादा कम्पनियों के मुनाफे का खयाल रख रही है। कोरोना काल में स्वास्थ्य सेवाओं के सरकारीकरण की मांग भी उठी लेकिन इस पर न तो सरकार और न ही किसी राजनीतिक दल ने रुचि दिखायी।
तन मन जन: जन-स्वास्थ्य की कब्र पर खड़ी कॉरपोरेट स्वास्थ्य व्यवस्था और कोविड
आजादी के बाद देश में राष्ट्रीयकरण (सरकारीकरण) की बयार चली और कई बड़े उपक्रम को सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। सार्वजनिक सेवा के कई बड़े उद्यम राष्ट्रीयकरण के बाद राष्ट्र की सार्वजनिक सम्पत्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुए। दवा निर्माण, स्टील, खाद्य एवं रसायन, इन्श्योरेन्स, बैंक, रक्षा उपकरण निर्माण, स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा आदि क्षेत्र के संस्थानों में राष्ट्रीयकरण के बाद विकास की एक नयी राह दिखी थी। मगर महज चालीस वर्षों में ही उसी राजनीतिक दल के नेताओं ने उदारीकरण के तहत निजीकरण को स्वीकार कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं वैश्विक पूंजी की चमक में देश की नवरत्न कम्पनियों को बेचने का निर्णय ले लिया। देखते-देखते सरकारी कम्पनियां नीलाम होने लगीं। कारण बताया गया कि सरकारी कम्पनियों में समुचित मुनाफा व विकास नहीं हो रहा। वास्तव में ऐसा नहीं था। यह सब खेल बड़ी पूंजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में चल रहा था। नब्बे के दशक में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ देश में आन्दोलन भी खड़े हुए। मौजूदा शासक दल के आनुषंगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच तथा अन्य सामाजिक संगठनों जैसे आजादी बचाओ आन्दोलन, भारत जन आन्दोलन, समाजवादी जन परिषद आदि के विरोध के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में आते ही निजीकरण व उदारीकरण को और तेजी से लागू करना शुरू कर दिया।
मोदी सरकार और स्वास्थ्य का अमेरिकी मॉडल
स्वदेशी व देशभक्ति की बात करने वाली पार्टी भाजपा के शासन में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और निजी क्षेत्र के अस्पतालों की स्थिति अब जगजाहिर हो चुकी है। वर्ष 2020 में महामारी कोरोना के तेजी से फैलने के बाद देश ने सरकारी अस्पतालों की स्थिति भी देखी और निजी अस्पतालों का भी जायजा लिया। गरीब सरकारी अस्पतालों में इलाज के समुचित प्रबन्ध नहीं होने की वजह से मरे तो अमीर निजी अस्पतालों में मनमानी फीस और महंगे इलाज का खर्च नहीं उठा पाने तथा गलत इलाज की वजह से मरे। दोनों ही क्षेत्र के अस्पताल अपनी विसंगतियों से आम और खास लोगों की जान के दुश्मन बने। देश ने स्पष्ट अनुभव किया कि महामारी की स्थिति में सरकारी व्यवस्था ही अन्ततः लोगों की जान बचा सकती है बशर्ते कि उन्हें सरकार पूरी इच्छाशक्ति एवं शिद्दत से पोषित करे। कोरोनाकाल में निजी अस्पतालों ने यह दिखा दिया कि वे केवल पांचसितारा आवास एवं भोजन तो उपलब्ध करा सकते हैं लेकिन जन स्वास्थ्य के मसले का समाधान नहीं दे सकते। स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध करने में सरकारी/सार्वजानिक क्षेत्र के अस्पतालों की सीमाएं हैं तो निजी क्षेत्र के अस्पतालों की अपनी शर्तें! बड़े पूंजी निवेश के बाद खुले पांच सितारा अस्पताल आपको होटल जैसी सुख सुविधाएं तो दे सकते हैं लेकिन जनस्वास्थ्य की रक्षा और उत्तम इलाज का प्रबंध सरकारी सार्वजनिक अस्पताल में ही हो सकता है।
तन मन जन: कोरोना की तीसरी लहर के लिए कितना तैयार हैं हम?
वैश्वीकरण के रंग में रंग चुकी दुनिया के बीच भारत के सामने निजीकरण से इतर नागरिकों के स्वास्थ्यरक्षा के क्या बेहतर विकल्प हो सकते हैं? निजीकरण के विकल्प के रूप में दुनिया में सार्वजनिक चर्चित क्यूबा का स्वास्थ्य मॉडल है। क्यूबा का स्वास्थ्य मॉडल वास्तव में कम्यूनिटी ओरिएन्टेड प्राइमरी केयर (सीओपीसी) की तरह है। यह एक तरह की गम्भीर प्राथमिक उपचार व्यवस्था है। इसमें बीमारी को विकसित होने से पहले ही प्राथमिक स्तर पर रोकथाम एवं उपचार कर रोगी को स्वस्थ कर दिया जाता है। यह मॉडल चिकित्सा बीमा व्यवस्था से बिलकुल अलग रोग न होने यानि ‘‘प्रिवेंटिव हेल्थ’’ की अवधारणा पर आधारित है। क्यूबा के स्वास्थ्य मॉडल में यह व्यवस्था है कि नागरिकों को समुचित पौष्टिक भोजन एवं रोग से बचाव के हर सम्भव उपाय बिना किसी परेशानी के मिलते रहें। यहां हर मुहल्ले में एक सरकारी डॉक्टर, नर्स, कम्पाउंडर तथा आवश्यक दवाएं आदि उपलब्ध हैं। सुबह से दोपहर तक ये चिकित्सक मोहल्ला क्लीनिक में उपचार करते हैं फिर ये लोगों के घर जाकर बुजुर्गों व असक्षम बीमारों का इलाज करते हैं। क्यूबा में सरकार यह सुनिश्चित करती है कि डॉक्टर हर गांव/शहर के मुहल्ले में ही लोगों के बीच रहें ताकि उनकी स्वास्थ्य व उपचार सम्बन्धी वक्त पर पूरी कर दी जाएं।
तन मन जन: कोरोना ने प्राइवेट बनाम सरकारी व्यवस्था का अंतर तो समझा दिया है, पर आगे?
क्यूबा में चिकित्सा के उच्चतर अध्ययन (एम.डी. एवं एम.एस.) की पढ़ाई पूरी तरह से मुफ्त है। यहां भारत में निजी मेडिकल कॉलेजों से एम.डी. या एम.एस. की पढ़ाई के लिए एक रोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं। क्यूबा में यदि आप डॉक्टर बनना चाहते हैं तो पढ़ाई, भोजन, छात्रावास की सुविधा सब कुछ मुफ्त है। इस व्यवस्था में वहां गरीब घरों से भी प्रतिभाशाली छात्र डॉक्टर बनते हैं। चूंकि क्यूबा में कम्युनिटी ओरिएन्टेड प्राइमरी केयर व्यवस्था है इसलिए यहां लगभग 80-85 फीसद बीमारियों का इलाज शुरूआती दौर में ही हो जाता है। इसकी वजह से यहां सुपरस्पेशिलिटी अस्पतालों और इमरजेन्सी सेवाओं पर उतना दबाव नहीं रहता। इससे सरकार को स्वास्थ्य सेवाएं संचालित करने में भी सहूलियत रहती है। क्यूबा स्वास्थ्य मॉडल की एक और खासियत यह है कि यहां के प्राइमरी केयर में डॉक्टरों की बेहतर उपलब्धता बनाये रखने के लिए 65 फीसद डॉक्टरों की उच्च शिक्षा और ट्रेनिंग फैमिली मेडिसिन और एक सामान्य फिजीशियन के तौर पर दी जाती है।
क्यूबा मॉडल में आम लोगों के पौष्टिक भोजन के लिए भी सरकार ने व्यवस्था की है। वहां हर मोहल्ले में कोटा आधारित राशन के साथ फल-सब्जी भी सस्ते दर पर उपलब्ध कराया जाता है। इसकी वजह से वहां के आम लोगों के शरीर में इम्यूनिटी का स्तर बेहतर बना हुआ है और वे लोग अपेक्षाकृत कम बीमार पड़ते हैं। इलाज की कीमत कम रहे इसके लिए क्यूबा में जेनेरिक दवाओं का प्रचलन ही आम है। क्यूबा की सरकार ने दवा विकास परियोजना के अन्तर्गत नयी दवाओं को विकसित करने के लिए स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की एक बड़ी इकाई स्थापित की है। क्यूबा में इलाज के लिए प्रयुक्त दवाओं में 98 फीसद दवाओं का उत्पादन सरकार स्वयं करती है। यही वजह है कि वहां इलाज बेहद सस्ता है। क्यूबा में बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी बेहतर ध्यान दिया जा रहा है जिसकी वजह से सामान्य बीमारियों के अलावा कैंसर तथा एचआइवी/एड्स जैसी बीमारी का भी इलाज वहां सुलभ है। अपने बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं एवं उच्चस्तरीय स्वास्थ्य प्रबन्धन की वजह से क्यूबा ने माँ से बच्चे में स्थानान्तरित होने वाले एड्स तथा सिफलिस रोग को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है। दुनिया की स्थिति देखें तो अभी विकसित देश भी ऐसा नहीं कर पाए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार क्यूबा में जन्म के दौरान शिशु की मृत्यु दर चार प्रति एक हजार है जो दुनिया में सबसे कम है। ऐसे ही क्यूबा में लोगों की औसत आयु 77 वर्ष है जो दुनिया में शीर्षतम स्तर पर है।
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क्यूबा में डॉक्टरों की आय वैसे तो बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन सरकार उनके लिए काफी सुविधाएं और व्यवस्था करती है जो वहां के डॉक्टरों द्वारा स्वीकार्य है। क्यूबा के स्वास्थ्य मॉडल की यह खासियत है कि यहां चिकित्सा सेवा है, व्यवसाय नहीं। इस समझ को विकसित करने के लिए क्यूबा में शिक्षा के प्राथमिक स्तर से ही नैतिक एवं व्यावहारिक शिक्षा का प्रावधान है। वर्ष 2020 के दौरान देश में फैले कोरोना वायरस संक्रमण के दौर को देखें तो यह अब हर आम और खास व्यक्ति समझ रहा है कि समुचित जन स्वास्थ्य नीति के अभाव में देश में लोगों ने पैसे पानी की तरह बहा दिये फिर भी निजी अस्पतालों का पेट नहीं भरा और 15-20 लाख रुपये प्रति व्यक्ति खर्च कर भी लोग अपने परिजनों को बचा नहीं पाए। महज स्पष्ट नीति के अभाव और सरकारी लापरवाही के कारण देश में कई हजार करोड़ रुपये यों ही बरबाद हो गए और हम अपने नागरिकों के लिए जरूरी दवाएं तथा आक्सीजन तक का भी इन्तजाम नहीं कर पाए।
क्यूबा के इस बहुचर्चित स्वास्थ्य मॉडल के बहाने मैं देश के नागरिकों से अपील करना चाहता हूं कि वे संविधान में वर्णित अपने मौलिक नागरिक अधिकारों के तहत सरकार को मुफ्त गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए बाध्य करें। नासमझी और मूर्खता के मुद्दों को छोड़कर देश की आम जनता सरकार और राजनीतिक दलों को मनुष्यों के बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा की सुनिश्चितता के लिए मजबूर करे नहीं तो एक साधारण बुखार भी आपको लाखों खर्च कराकर आपके जीवन की लीला समाप्त कर देगा और आप मूक दर्शक बने रहेंगे। जागिए, अभी भी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है। आपकी समझदारी से स्थिति सुधारी जा सकती है।