विश्व पर्यावरण दिवस [5 जून 2025] के बहाने हम इस बार उत्तराखंड सहित देश के लगभग सभी पर्वतीय प्रदेशों में पर्यावरण की स्थिति की चर्चा कर रहे हैं। हमें मालूम है कि विश्व पर्यावरण दिवस दुनिया के पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय दिवस है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के नेतृत्व में यह दिवस पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने का सबसे बड़ा वैश्विक मंच बन गया है। इसे दुनिया भर में लाखों लोग और सैकड़ों देश मनाते हैं। वर्ष 2025 विश्व पर्यावरण दिवस के समारोह के आयोजन की मेजबानी इस वर्ष कोरिया गणराज्य कर रहा है। इसका थीम है “वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना।” पृथ्वी को प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त करना सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में उपभोग को कम करना, पहाड़, समुद्र और महासागरों की सुरक्षा तथा पारिस्थितिकी तंत्र की मरम्मत और जैव विविधता को बनाए रखना शामिल है।
उत्तराखंड एवं अन्य पर्वतीय प्रदेशों में प्लास्टिक प्रदूषण की वजह से पर्यावरण की दुर्गति की बात करें तो विगत वर्षों के आंकड़े डरावने लगते हैं। उत्तराखंड में प्रदूषण फैलाने वाले तत्व में मल्टीलेयर प्लास्टिक प्रमुख हैं, जिसमें स्नैक्स के पैकेट, पानी की बोतलें आदि शामिल हैं। कोरोना महामारी के दौरान के वर्षों में जब लॉकडाउन लगाया गया था तब वर्ष 2021-22 में उत्तराखण्ड में लगभग 25 हजार टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हुआ था। वर्ष 2023 में यह आंकड़ा 45 हजार टन को पार कर चुका था। उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक प्रदूषण में यह वृद्धि पर्यावरणविदों के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के लिए चिंता का विषय है। पहाड़ों में प्लास्टिक प्रदूषण को मानव जीवन एवं हिमालय पारिस्थितिकी तथा जैव विविधता के लिए बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है।

विडंबना यह है कि उत्तराखंड में वर्ष 2018 से प्लास्टिक पूरी तरह प्रतिबंधित है। राज्य भर में प्लास्टिक की थैलियों में सामान लेने देने वाले दुकानदारों और ग्राहकों पर छापामारी की कार्रवाई की जाती रही है, लेकिन इस प्रतिबंध का कोई ख़ास असर तो दिखाई नहीं दिया। लोग पूछते हैं कि प्लास्टिक का विकल्प क्या है? क्या प्लास्टिक प्रदूषण के लिए सिर्फ़ दुकानों पर बिकने वाली प्लास्टिक थैलियां ही जिम्मेवार हैं। प्लास्टिक पैकेजिंग करने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां क्या अपने प्लास्टिक कचरे का ईमानदारी से निस्तारण करती हैं?
हरिद्वार, नैनीताल, देहरादून, बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि स्थान पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील हैं। इन जगहों पर प्लास्टिक प्रदूषण की स्थिति बहुत चिंताजनक पाई गई है। प्लास्टिक को पर्वतीय परिपेक्ष्य में भी देखने की भी ज़रूरत है। प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट-2016 के “एक्सटेंडेड प्रोडूसर रिस्पांसिबिलिटी” नियम के तहत कंपनियों पर ज़िम्मेदारी होती है कि वे अपने द्वारा पैदा किए गए कचरे का निस्तारण करें लेकिन उत्तराखंड सहित किसी भी पर्वतीय प्रदेश में ऐसा होता नहीं दिख रहा है।
उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वैज्ञानिकों के मुताबिक़ यदि हम प्लास्टिक का ऐसे ही अंधाधुंध इस्तेमाल करते रहे तो अगले 20 वर्षों में प्लास्टिक कचरा बढ़कर दोगुना हो जाएगा। प्लास्टिक कचरे के मामले में उत्तराखंड की राजधानी देहरादून पहले नंबर पर है। दूसरे स्थान पर हरिद्वार आता है। वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक प्रदूषण को लेकर जो चिंता जतायी जा रही है उसके मद्देनज़र पहाड़ों और औ उसके आसपास के इलाकों को प्लास्टिक मुक्त करने की सख़्त जरूरत है।
भले ही प्लास्टिक ने हमारी ज़िंदगी आसान कर दी हो लेकिन स्वास्थ्य और पर्यावरण को प्लास्टिक से होते नुक़सान के रूप में दुनिया को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है। अभी हाल के एक वैश्विक अध्ययन से पता चला है कि प्लास्टिक में उपयोग होने वाले कुछ केमिकल मनुष्य और जीव जन्तुओं के सेहत पर भारी पड़ रहे हैं।
अध्ययन के अनुसार वर्ष 2018 में दुनिया भर में दिल की बीमारी से हुई 3,56,000 से ज़्यादा मौतों का संबंध प्लास्टिक उत्पादों में इस्तेमाल होने वाले एक विशेष रसायन “डाई-2ऐथाइलहेक्सिल फ़्थेलेट” (डीईएचपी) से था। यह रसायन प्लास्टिक को लचीला बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यह तो मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर ख़तरा है। चिंता की बात यह है कि इस मामले में भारत की स्थिति सबसे ज़्यादा ख़राब है। यहां हृदय रोग से होने वाली 1,03,587 मौतों के लिए कहीं न कहीं यह केमिकल जिम्मेवार है। इस अध्ययन का नेतृत्व न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी लैंगोन हेल्थ के वैज्ञानिकों ने किया है। इस अध्ययन के नतीजे एक विश्व प्रसिद्ध जर्नल “लैंसेट ई बायोमेडिसिन” में प्रकाशित हुए हैं।
उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक में उपयोग होने वाले इन केमिकल्स को फ़ेथेलेट्स कहा जाता है। ये प्लास्टिक के डब्बों, कॉस्मेटिक उत्पादों, डिटर्जेंट सालवेंट, कीटनाशकों, पाइपों और मेडिकल उपकरणों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। ये केमिकल सूक्ष्म कणों में बदल कर हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और शोधकर्ताओं के मुताबिक़ ये मोटापा, डायबिटीज, कैंसर तथा प्रजनन से जुड़ी समस्याओं को बढ़ा देते हैं।
प्लास्टिक प्रदूषण से जुड़ा एक डरावना सच आपके सामने रख रहा हूं। वर्ष 2022 के दौरान दुनिया भर में जितना प्लास्टिक तैयार हुआ उसमें 10 फ़ीसद से भी कम रिसाइकल मैटीरियल से बनाया गया था। आंकड़ों पर नज़र डालें तो सन् 2022 में चालीस करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ लेकिन उसमें से महज़ 3.8 करोड़ टन यानी 9.5 फ़ीसद ही रिसाइकल करके बनाया गया, जबकि बाकी 36.2 करोड़ टन प्लास्टिक में से 98 फीसद का उत्पादन जीवाश्म ईंधन (मुख्य रूप से कोयला और तेल) से किया गया। यह जानकारी प्लास्टिक के जीवन चक्र पर किए गए पहले व्यापक वैश्विक अध्ययन से सामने आई है।
भारत के पारिस्थितिकी संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में प्लास्टिक प्रदूषण का संकट दिन प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा है। नाज़ुक और संवेदी पहाड़ों पर 80 फ़ीसद से अधिक प्लास्टिक कचरा सिंगल यूज खाद्य और पेय पैकिंग से उत्पन्न हो रहा है। चिंताजनक यह है कि इस कचरे में 70 फीसद तो वह प्लास्टिक है जिसे न तो रीसायकल किया जा सकता है और न ही इसका कोई बाज़ार मूल्य है। कुल कचरे में पीईटी जैसे रिसाइकल योग्य प्लास्टिक की मात्रा मात्र 18.5 फ़ीसद है।
द हिमालयन क्लीनअप (टीएचसी) 2024 रिपोर्ट ने 2018 से जम्मू और कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश का व्यापक प्लास्टिक कचरा और ब्रांड ऑडिट के दौरान यह निष्कर्ष दिया है। रिपोर्ट में पाया गया है कि अधिकांश प्रदूषण फैलाने वाले ब्रांड्स जैसे इंस्टेंट नूडल्स और ऊर्जा पेय पदार्थों की पैकिंग कचरे में अहम भूमिका निभा रहे हैं। सन् 2024 से नेपाल और भूटान भी इस अभियान में भागीदारी कर रहा है। अभियान में नौ पर्वतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 450 से ज़्यादा जगहों पर सफाई और कचरा ऑडिट किया गया।151 स्थानों पर ब्रांड और प्लास्टिक ऑडिट किया गया।
THC-2024-report
उत्तराखंड सहित सिक्किम, दार्जिलिंग और लद्दाख जैसे पहाड़ी इलाकों में कचरे की भारी मात्रा को देखते हुए टीएचसी की रिपोर्ट में यह भी संकेत दिया है कि कंपनियों की ओर से रीसाइकिलिंग का प्रचार केवल एक भ्रम है क्योंकि अधिकांश प्लास्टिक कचरे को रिसाइकल नहीं किया जा सकता। टीएचसी रिपोर्ट के मुताबिक़ सिक्किम सबसे सक्रिय राज्य है जहां 86 साइट से कुल 53814 (यानी 44 फ़ीसद) कचरे के टुकड़े इकट्ठा किए गए। इनमें से 46908 (यानि 87 फ़ीसद) प्लास्टिक था और उसमें भी (79 फ़ीसद) ऐसा प्लास्टिक था जिसे रिसाइकल नहीं किया जा सकता। चौंकाने वाली बात यह है कि तक़रीबन 92 फ़ीसद प्लास्टिक कचरा केवल खाद्य पैकेजिंग से आया और 6.3 फ़ीसद कचरा स्मोकिंग और गुटका उत्पाद का था। उत्तराखंड में आठ ऑडिट साइट में 5937 कचरे के टुकड़े मिले। इनमें 4554 (यानि 81.1 फ़ीसद) प्लास्टिक था। इस प्लास्टिक का 67 फ़ीसद हिस्सा रिसाइकल नहीं किया जा सकता था। चौंकाने वाली बात यह रही कि 96.6 फ़ीसद प्लास्टिक खाद्य पैकेजिंग से संबंधित था। इस फ़ूड पैकेजिंग कचरे में सबसे ज़्यादा फ़ूड रैपर फिर बेवरेज की बोतलें और इसके बाद जूस बॉक्स व प्लॉस्टिक बैग शामिल थे।
समाज में पर्यावरण संरक्षण की समझ पैदा करने की आवश्यकता है। प्लास्टिक का उपयोग तो सरकार ने ही शुरू किया था। अब यही प्लास्टिक मानव जीवन के लिए ख़तरा बन गया है। संवेदनशील पहाड़ों में प्लास्टिक के जमा होते ढेर जानलेवा हैं। यह वन्य जीवों और वनस्पति तथा पर्यावरण के लिए ख़तरा है। इस ख़तरे के प्रति नई पीढ़ी को जागरूक करना होगा। ईकोसिस्टम को जानने और इसके संरक्षण के लिए इसे पाठ्यक्रम में शामिल करना तथा साथ-साथ इससे आम नागरिकों को भी जोड़ना होगा, जिससे लोगों में सही जानकारी और जागरूकता से प्रकृति को बचाने की उत्सुकता पैदा हो। अगर पहाड़ और वहां के पर्यावरण को बचाने की पहल तेज नहीं हुई तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर वन्य जीव और मानव नहीं, केवल कंक्रीट के घर और प्लास्टिक ही रह जाएंगे।
लेखक एक होमियोपैथिक चिकित्सक एवं जनस्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं तथा ‘युवा संवाद’ मासिक पत्रिका के संपादक हैं। ईमेल : docarun2@gmail.com