देश में मुद्दे और मसले इतने सारे हैं कि किसी का ध्यान महंगाई की तरफ जा ही नहीं रहा है। बे-गुन जैसी चीज 15 रुपए पाव मिल रही है और सरसों तेल व रिफाइंड ऑयल की तो बात ही मत कीजिए। हमारे सार्वजनिक विमर्श में एकाध मीम और दसेक ट्वीट को छोड़कर महंगाई है ही नहीं कहीं।
मैं भी महंगाई की बात करके नक्कू थोड़े ही बनूंगा, पर सरकार सोच रही है कि खाद्य तेलों की महंगाई कैसे कम की जाए। इसके लिए तिलहन और पाम ऑयल पर राष्ट्रीय मिशन को वनस्पति तेलों के उत्पादन पर निर्भरता कम करने के लिहाज से नीति-नियंता देख रहे हैं। यह नीति एकांगी है और महज एक ही दिशा की ओर देखती है।
आपको ‘पीली क्रांति’ की याद होगी। नब्बे के दशक की इस ‘क्रांति’ ने तिलहन की पैदावार को बढ़ाया था, हालांकि इसके बाद विभिन्न तिलहनों, मसलन मूंगफली, सरसों, सोयाबीन और राई की पैदावार में लगातार बढ़ोतरी हुई है, लेकिन तेल सरपोटने वाले देश में घरेलू मांग से यह अब भी कम है।
अब सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑयल पाम (एनएमईओ-ओपी) योजना पेश की है जिसमें पूर्वोत्तर राज्यों और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह पर खास ध्यान दिया गया है। इस योजना का मकसद खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता कम करने के लिए भारत के ताड़ तेल (पाम ऑएल) पैदावार को बढ़ाना है।
सरकार का लक्ष्य अगले पांच साल में सालाना पैदावार को 11 लाख टन और अगले दस साल में बढ़ाकर 28 लाख टन करना है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश में ताड़ तेल के रकबे को बढ़ाकर 6,50,000 हेक्टेयर किया जाएगा। अगले एक दशक में इस रकबे में 6,70,000 हेक्टेयर और जोड़ा जाएगा।
नीति-नियंताओं का आकलन है कि भारत में ताड़ तेल (पाम ऑयल) की खेती 28 लाख हेक्टेयर में की जा सकती है जिसमें से करीब नौ लाख हेक्टेयर पूर्वोत्तर में है। एनएमईओ-ओपी योजना की कुल लागत 11,040 करोड़ रुपये है जिसमें से 8,844 करोड़ रुपए केंद्र देगा और बाकी का हिस्सा राज्य सरकारें वहन करेंगी।
सरकार बेशक खाद्य तेलों का आयात कम करना चाह रही है और देश के कुल खाद्य तेल आयात में ताड़ तेल का हिस्सा 50 फीसद से अधिक है। आपने गौर किया होगा, पिछले साल भर में इस तेल की कीमत 60 फीसद तक बढ़ गयी है। 1 जून, 2021 को ताड़ तेल की कीमत 138 रुपये प्रति किलो तक हो गयी थी जो 1 जून, 2020 को 86 रुपये प्रति किलो थी। यह पिछले 11 साल में सर्वाधिक कीमत थी।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार ताड़ तेल के उत्पादक किसानों को इनपुट लागत में मदद दे रही है और यह मदद 29,000 रुपये प्रति हेक्टेयर कर दी गयी है। उपज के लिए भी खेतिहरों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ एक तय कीमत दी जाएगी।
असली चिंता यह नहीं है कि इस कृषि वानिकी की लागत क्या होगी। असली चिंता वह लागत है जो पारिस्थितिकी के नुकसान से पैदा होगी। सुमात्रा, बोर्नियो और मलय प्रायद्वीप मिसालें हैं जहां वैश्विक पाम ऑयल का 90 फीसद उत्पादित किया जाता है। इन जगहों पर इसकी व्यावसायिक खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए और स्थानीय जल संसाधनों पर इसका भारी बोझ पड़ा क्योंकि ताड़ तेल की खेती के लिए पानी की काफी जरूरत होती है।
अंग्रेजी के अखबार द इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, “इंडोनेशिया में सिर्फ 2020 में ही मुख्य रूप से तेल ताड़ के वृक्षारोपण के लिए 1,15,495 हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुकसान हुआ है। सन 2002-18 की अवधि में इंडोनेशिया में 91,54,000 हेक्टेयर प्राथमिक वन क्षेत्र का नुक्सान हुआ है। इस जंगल कटाई ने वहां की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ-साथ जल प्रदूषण को भी बढ़ाया है।”
ताड़ तेल के बागानों से सरकारी नीतियों और परंपरागत भूमि अधिकारों के बीच संघर्ष हो सकता है। अपने देश में पूर्वोत्तर के राज्य राजनैतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र हैं और पाम ऑयल की खेती की पहल से वहां तनाव पैदा हो सकता है।
दूसरी तरफ पूर्वोत्तर में पक्षियों की करीब 850 नस्लें पायी जाती हैं। पूरे पूर्वोत्तर में खट्टे फल पाये जाते हैं। औषधीय पौधे, दुर्लभ पौधे और जड़ी-बूटियां यहां कुदरती तौर पर उगती हैं। यही नहीं, पूर्वोत्तर के विभिन्न इलाकों में 51 प्रकार के वन हैं। सरकारी अध्ययनों में भी पूर्वोत्तर की समृद्ध जैव विविधता पर प्रकाश डाला है। ऐसे में पाम तेल नीति इस क्षेत्र की जैविक समृद्धि को नष्ट कर सकती है।
वैसे, पर्यावरण और जैव-विविधता की रक्षा के लिए इंडोनेशिया और श्रीलंका ने पाम ट्री पौधारोपण पर बंदिशें आयद करनी शुरू कर दी हैं। 2018 में इंडोनेशिया सरकार ने पाम ऑयल उत्पादन के लिए नये लाइसेंस जारी करने पर तीन साल की रोक लगा दी। पिछले साल श्रीलंका सरकार ने भी चरणबद्ध तरीके से ताड़ तेल के पेड़ों को उखाड़ने के आदेश जारी किए थे।
ताड़ तेल की पैदावार को भारत में बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि तथ्य यह भी है कि देश के अधिकांश परिवार रोजाना के खर्च में पारंपरिक तेलों (सरसों, नारियल, सोयाबीन, तिल) का इस्तेमाल ही करते हैं। ऐसे में ताड़ तेल पर जोर देने से वर्षा-आधारित तिलहन से ध्यान हट जाएगा। इसका असर लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की सेहत पर क्या पड़ेगा इसका गहरा अध्ययन जरूरी है।