देशान्‍तर: थाई छात्रों का तीन उंगली का सलाम और एक सवाल- हमें राजा क्‍यों चाहिए?

आंदोलन पूर्ण तौर पर छात्रों के द्वारा लीड किया जा रहा है, उसमें राजनीति की नयी भाषा है, समझ है और समाज में मौजूदा राजनैतिक और वर्ग के भेदों से आगे बढ़कर वह तीन साफ़ मांगों से प्रेरित है।

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गाहे-बगाहे: हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह…

बनारस हमेशा से ऐसा ही था। दोहरे चरित्रों वाला और अनेक अंतर्विरोधों के साथ गुत्थम-गुत्था। केवल हम बाद में उसे जानने लगे। और लम्बे समय बाद इसलिए जानने की जरूरत पड़ी क्योंकि हम अपना बनारस लेकर किसी और शहर में चले गये थे और यहां का बनारस अपनी गति से चलता रहा। क्या हम अपडेट नहीं थे?

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दक्षिणावर्त: बीजेपी आइटी सेल, नैरेटिव निर्माण और लेफ्ट का सरलीकरण

यदि भारत के सवा अरब मनुष्यों में से कोई भी अपनी आइडी से कुछ भी भाजपा के पक्ष में, वामपंथ के खिलाफ लिखता है, तो वह आइटी सेल का नहीं होता। इसी तरह भाजपा का विरोध करने वाला हरेक व्यक्ति ‘लिब्रांडू’, ‘वामी-कौमी’ या ‘सिकुलर’ नहीं होता।

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पंचतत्‍व: सुशांत पर छाती पीटने वाला समाज अपने पानी में घुले संखिया पर सोया है

पिछले पांच साल में आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों की संख्या में करीब डेढ़ सौ फीसद की बढ़ोतरी हुई, पर इस पर न तो टीवी पर डिबेट है न सोशल मीडिया पर हैशटैग

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आर्टिकल 19: सरकार को डिजिटल से दिक्‍कत है, मने टीवी चैनल अब अप्रासंगिक हो चुके हैं

टीवी चैनलों के प्रासंगिकता खो देने की बात हवा में नहीं है। खुद मोदी सरकार ने अदालत में सील ठप्पे के साथ ये हलफनामा दिया है कि ये सब तो हमारे काबू में हैं, लेकिन डिजिटल मीडिया वाले नहीं आ रहे। आप उन पर लगाम कसिए।

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तिर्यक आसन: ठगी को भी रोजगार का दर्जा दिया जाए!

साधो, अपनी सरकार से नाराज होने वालों को मनाने के लिए नरेंद्र मोदी की जबान के जखीरे में रामबाण हथियार हैं। जिनका वार न जाए खाली। इसलिए प्रधानमंत्री कड़वी दवा देने से हिचकते नहीं हैं।

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बात बोलेगी: झूठ की कोई इंतिहा नहीं…

भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला संसदीय सत्र है जहां प्रश्नकाल नहीं है। यानी मौखिक रूप से कोई प्रश्न और बहस नहीं होगी। आप चाहें तो लिखित में दिये गये जवाबों से सच और झूठ का विच्छेदन करते रहिए, पर उससे कुछ हासिल नहीं होगा।

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पॉलिटिकली Incorrect: जस्टिस काटजू तक पहुंचती आहटें, जिन्‍हें हम अनसुना किये बैठे हैं!

जस्टिस काटजू की हर बात में विवाद खोजने वाले भारत के कार्पोरेट मीडिया, वैकल्पिक मीडिया और लिबरल खेमे तक ने इस बयान को तवज्जो देना भी गवारा नहीं समझा। उन्होंने भी एक शब्द नहीं कहा, जो इससे मिलती-जुलती बातें वर्षों से करते आ रहे हैं।

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तन मन जन: कोविड संक्रमण के पलटवार का दौर और बढ़ता खतरा

रोजाना ऐसे मामले दुनिया भर में प्रकाश में आ रहे हैं जिन्‍हें नजरअन्दाज करना भयंकर भूल होगी। मेरे स्वयं की निगरानी में ऐसे तीन मामले उपचार के लिए आ चुके हैं जिन्हें होमियोपैथिक उपचार से लाभ मिला और फिलहाल वे ठीक हैं।

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गाहे-बगाहे: सूरत में कटे-फटे नोट बिना बट्टे के चल जाते हैं!

चाहे नोट दो ही टुकड़ों में क्यों न फट चुका हो लेकिन हर कोई बेझिझक उसे स्वीकारता है जबकि मुम्बई और दिल्ली जैसे शहरों में जरा सा मुड़ा-तुड़ा नोट चलाना भी बिना चार बात सुने असंभव है. भारतीय करेंसी का इतना सहज स्वीकार, उस शहर में जहां हज़ार के नोटों की उपस्थिति स्वाभाविक रूप से अधिक हो सकती है, सचमुच एक आश्चर्य ही था.

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