देशान्‍तर: थाई छात्रों का तीन उंगली का सलाम और एक सवाल- हमें राजा क्‍यों चाहिए?


इस जून-जुलाई से थाईलैंड के कॉलेज और हाईस्कूल के छात्र सडकों पर हैं। वे पूर्व जनरल और प्रधानमंत्री प्रयुत चान ओचा के इस्तीफ़े की मांग कर रहे हैं। हंगर गेम्स और हैरी पॉटर के पात्रों से प्रभावित तीन उँगलियों का सैल्‍यूट (three fingers salute), या फिर जादू की छड़ी (magic wand), उजली पट्टी (white ribbon) का इस्तेमाल छात्र मिलिट्री और राजा की तानाशाही के खिलाफ कर रहे हैं और एक सही जनतंत्र की मांग को हवा दे रहे हैं। तमाम खतरों के बावजूद पहली बार खुल कर राजा की भूमिका और जरूरत के बारे में वे बात कर रहे हैं। #WhyDoWeneedAKing जैसे अहम सवाल उठा रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि नया संविधान बने और चुनाव हो ताकि एक जनतांत्रिक सरकार का गठन हो। इस हफ्ते देशांतर में थाईलैंड में चल रहे आंदोलन को समझने की कोशिश।     

संपादक

1932 में संवैधानिक राजतंत्र बनने के बाद से थाईलैंड में अब तक 19 बार तख़्तापलट हो चुका है और 20 संविधान बन चुके हैं। इन 88 वर्षों में 60 साल सेना का शासन रहा है। जनतंत्र और सेना के बीच आँखमिचौली का खेल यहां आम है। दोनों की खींचतान के बीच यहां के राजा ने एक राजनैतिक और आर्थिक साम्राज्य खड़ा किया है। इस दौर में सबसे अहम भूमिका राजा भूमिबल ने अपने 70 साल (1946-2016) के शासन में निभायी– द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कम्युनिज्म के खिलाफ बने गुटों में अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी बनकर; 70 के दशक में संसदीय जनतंत्र के आगमन और 90 में दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में उदारीकरण की नीति के बाद आये तेज बदलाव; आर्थिक मंदी (1997-1998) और दोबारा 2001 में थाकसिन सिनवात्रा के शासनकाल में हुए कई महत्वपूर्ण बदलाव; 2006 के तख्तापलट के बाद घोर अस्थिरता के बीच रेड शर्ट, येलो शर्ट और सेना के बीच हिंसक मुठभेड़ और 2014 में एक बार फिर तख्तापलट। इस दौरान थाईलैंड वैश्विक स्तर पर एक राजनैतिक और आर्थिक रूप से मजबूत देश बन कर उभरा, लेकिन एक जनतांत्रिक देश बनाने का संघर्ष लगातार चलता रहा है।

थाकसिन सिनवात्रा का काल

Former Thai Prime Minister Thaksin Shinawatra with his youngest daughter. Photo: Handout

मौजूदा प्रदर्शन भले ही वहां के मिलिट्री शासन के खिलाफ हो, लेकिन इसे पूरा समझने के लिए थोड़ा और पीछे चलते हैं। दरअसल, 1997-1998 में आयी भयानक आर्थिक मंदी ने थाईलैंड को अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं से भारी ऋण लेने को मजबूर किया और साथ ही IMF की सुधारवादी नीतियों को भी लागू करने पर विवश किया। नवउदारवादी नीतियों के कारण पहले ही देश में गैरबराबरी बढ़ रही थी। आर्थिक मंदी के बाद भारी संख्या में गाँव की ओर से शहरों में पलायन की दर और तेज हुई। वैसे में 2001 में थाई रक थाई पार्टी के नेतृत्व में थाकसिन सिनवात्रा की सरकार बनी।

एक पूर्व पुलिस अधिकारी और सफल व्यावसायी थाकसिन ने प्रधानमंत्री बनने के कुछ वर्षों के भीतर ही न सिर्फ IMF का कर्ज़ लौटाया बल्कि उनके निर्देशों के विपरीत देश में सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा, गरीबी उन्मूलन के लिए कई कार्यक्रम, किसानों के ऋण वापसी पर स्थगन, हरेक गाँव को अपने विकास की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए 10 लाख भात की राशि मुहैया कराना आदि शामिल रहा। इस कारण से उनकी लोकप्रियता शहरी इलाकों को छोड़ ग्रामीण इलाकों और नि‍चले वर्ग में काफी बढ़ी। 

एक तरफ उनकी लोकप्रियता बढ़ी तो दूसरी ओर उन्होंने राजनैतिक सत्ता का उपयोग अपने राजनैतिक सहयोगियों और अपने व्यापार को आर्थिक लाभ पहुँचाने के लिए किया। इस कारण से उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और 2006 में जब उन्होंने शिन कॉर्पोरेशन को बेचा और कानून बदल कर उसके मुनाफे पर टैक्स बचाया तो विपक्ष को एक शानदार मौका मिला उनके खिलाफ अभियान चलाने का।  उनकी लोकप्रियता के कारण चुनावों में हराना मुश्किल था, तो विपक्ष ने सेना का सहारा लिया और तख़्तापलट किया

उसके बाद सिनवात्रा के समर्थक रेड शर्ट्स ने भयानक विरोध किया और जगह-जगह हुए हिंसक प्रदर्शनों में कई लोगों की जान गयी और भारी क्षति का सामना करना पड़ा। 2011 में दोबारा थाकसिन की बहन इन्लुक सिनवात्रा के नेतृत्व में फेउ थाई पार्टी की सरकार बनी लेकिन वह भी विवादों में घिरी रही और एक बार फिर 2014 ने सेना ने तख़्तापलट कर जनरल प्रयुत चान ओचा की सरकार बनायी

2014 से आगे

Thai army chief and junta head General Prayuth Chan-ocha. Photo: EPA/NARONG SANGNAK

कई दशकों में थाईलैंड के दूसरे तख्तापलट के बाद सत्ता पर कब्जा करने के तुरंत बाद प्रयुत ओचा ने 2014 में देश के संविधान को रद्द कर दिया और सेना के माध्यम से एक नया चार्टर तैयार किया जिसने राजा और सेना की शक्तियों में वृद्धि की। इस चार्टर को अप्रैल 2017 में नये राजा वजीरालॉन्गकोर्न के सिंहासन पर बैठने के महीनों बाद पुष्टि मिली।

इस नये चार्टर में राजा की विदेश यात्रा के दौरान अनिवार्य तौर पर एक नियोजक को नियुक्त करने की आवश्यकता को हटा दिया गया और सेना को 250 सदस्यीय सीनेट नियुक्त करने की अनुमति दी, जो कि नया प्रधानमंत्री चयन कर सकता था। दोनों प्रावधान महत्वपूर्ण हैं क्योंकि नये राजा ज्‍यादा वक़्त थाईलैंड के बाहर यूरोप में बिताते हैं और इसके माध्यम से उन्होंने अपनी पकड़ सत्ता पर बना रखी है। 2014 से ही विपक्षी दलों का लगातार प्रदर्शन जारी रहा है और उस कारण से एक नया संविधान भी बना और 2019 मार्च में चुनाव हुए, हालाँकि सेना समर्थित पार्टी पलांग प्रचारत दूसरे स्थान पर आयी लेकिन फिर भी जनरल प्रयुत प्रधानमंत्री बने रहे,  सेना बहुल सीनेट और छोटे दलों के समर्थन के साथ। विपक्षी फ्यूचर फॉरवर्ड पार्टी जो काफी लोकप्रिय थी उसे चुनाव नहीं लड़ने दिया गया और चुनावों के बाद भी सेना और राजा का प्रभुत्व उसी तरह कायम है। 

इन सभी घटनाओं और राजनैतिक अस्थिरता के मद्देनज़र अभी होने वाले प्रदर्शनों को राजनैतिक विश्लेषक एक और कड़ी मान सकते हैं। अगर ध्यान से देखें तो हाल में हो रहे प्रदर्शन कई मायने में पुरानी राजनीति से बढ़कर एक नयी राजनीति का आगाज़ हैं। जनतंत्र की लड़ाई पहले राजनैतिक दल अपने-अपने नेताओं और राजनैतिक कार्यक्रम और मुद्दों पर लड़ रहे थे। अभी के प्रदर्शन बिना किसी एक या चुनिंदा नेताओं के और एक ग्रुप के द्वारा लीड किये जा रहे हैं। आंदोलन पूर्ण तौर पर छात्रों के द्वारा लीड किया जा रहा है, उसमें राजनीति की नयी भाषा है, समझ है और समाज में मौजूदा राजनैतिक और वर्ग के भेदों से आगे बढ़कर वह तीन साफ़ मांगों से प्रेरित है।

पहला, मौजूदा सरकार इस्तीफा दे। दूसरा, नया संविधान बने और तीसरा, उसके तहत एक नयी चुनी हुई जनतांत्रिक सरकार बहाल हो। इसके साथ राजनैतिक बंदियों की रिहाई और राजा की भूमिका पर एक प्रश्नचिन्ह भी है।  

#WhyDoWeNeedAKing और उसके आगे नयी जनतांत्रिक व्यवस्था?

#WhyDoWeNeedAKing यानी हमें राजा क्‍यों चाहिए के मसले पर आंदोलन में अब भी सहमति नहीं है लेकिन जो लक्ष्मण रेखा थी, युवा छात्रों ने उसे पार कर दी है और राजा की भूमिका और अस्तित्व पर खुलकर चर्चा हो रही है। कारण साफ़ है क्योंकि थाई समाज में राजा की पूजनीय भूमिका कई तरीके से स्थापित की गयी है और राजकीय व्यवस्था की निंदा के खिलाफ अवमानना का कड़ा कानून होने के कारण दबी जबान में ही कोई कुछ उसके बारे में बोलता है। सेना ने भी इस अवमानना के कानून का प्रयोग राजनैतिक विपक्ष, नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों आदि को बंदी और चुप कराने के लिए किया है। मौजूदा प्रदर्शनों में भी कई गिरफ्तारियाँ हुई हैं, इसके बावजूद 19 सितम्बर को सबसे बड़ा प्रदर्शन हुआ और भारी संख्या में छात्रों के अलावा सिविल सोसाइटी, ट्रेड यूनियन और अन्य संगठनों ने हिस्सा लिया।    

सरकार ने फिलहाल मई 2010 और पूर्व की तरह अभी तक मिलिट्री और पुलिस हिंसा का सहारा नहीं लिया है, लेकिन देखना होगा कि कब तक सरकार चुप रहती है। युवाओं के इस आंदोलन ने न सिर्फ अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया है, बल्कि हांगकांग और ताइवान में जनतंत्र के लिए हो रहे प्रदर्शनों से संपर्क स्थापित कर रणनीतिक राजनैतिक सूझबूझ भी दिखायी है, जिसे कुछ लोग नये जनपक्षीय मिल्क टी अलायन्स का उदय भी मान रहे हैं

इस तरह के नेताविहीन आंदोलन दुनिया के कई हिस्सों में बीते कुछ समय में देखे गये हैं, जैसे अल्जीरिया, लेबनान आदि देशों में, जिसकी चर्चा देशांतर के पहले कॉलम में मैंने की है। बदलाव की चाह में उठ रहे ऐसे प्रदर्शन राजनैतिक दलों और जनतांत्रिक राज्यों की भूमिका पर सवाल कर रहे हैं। वे जनतंत्र को नकार नहीं रहे हैं, लेकिन जिस तरह से जनतांत्रिक व्यवस्थाओं को ख़ास राजनैतिक वर्ग और पूँजीपति साम्राज्यवादी ताकतों ने कब्जा लिया है वैसे में वे नयी संभावनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में सोचने को मजबूर कर रहे हैं ताकि सही मायने में जनता का जनतंत्र स्थापित हो सके।   


मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्‍वय (NAPM) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं


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मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समनवय के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं (https://www.umass.edu/resistancestudies/node/799)

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