गाहे-बगाहे: सूरत में कटे-फटे नोट बिना बट्टे के चल जाते हैं!


हमारी यात्रा का पहला पड़ाव सूरत था. सूरत एक तरह से मनोज मौर्या का गांव ही लगा क्योंकि वे वहां कुछ जगहों पर अति-परिचित व्यक्ति हैं. खासकर स्वामीनारायण गुरुकुल में वे अक्सर आते-जाते रहे हैं और वहां के बड़े स्वामी और अनेक छोटे स्वामियों से उनकी बहुत गहरी मैत्री दिखी. सभी का उनके ऊपर अपार स्नेह था. इसका एक असर हम सभी के प्रति उनके स्नेहिल व्यवहार में भी दिखा. एक बार अकेले ही मैं खाने गया. सब लोग या तो शहर में गये थे या बाहर घूम रहे थे. एक छात्र मुझे सार्वजनिक लंगर में ले गया. अभी मैं जूते ही निकाल रहा था कि तीन-चार छात्र चिल्लाते हुए तेजी से आये और किचन के पास वाले जेवणघर में ले गये.

सूरत हम आधी रात में पहुंचे. तब तक इंतजार करके स्वामी विश्वरूप सो चुके थे, लेकिन उन्होंने प्रबंधकर्ता को ताकीद कर रखा था कि हम लोगों के लिए सारी व्यवस्था कर दे. 12.20 पर हमारी गाड़ी बेड़ रोड स्थित स्वामीनारायण गुरुकुल के प्रांगण में पहुंची. मेन गेट के बायीं ओर एक मंदिर में कीर्तन चल रहा था, लेकिन बाकी सब मृदु नीरवता में डूबा था. बत्तियां रतीली थीं और चाँद अपनी उपस्थिति का आभास करा रहा था. चूंकि अभी यह पहला ही पड़ाव था और यात्रा का मकसद शूटिंग करना था इसलिए संजय गोहिल और मनोज मौर्या बहुत उत्साह से रिकार्डिंग करने लगे.

थोड़ी ही देर में हमें सात नंबर की चाबी मिली और ऊपर हम कमरा ढूंढकर खोलने ही वाले थे कि एक व्यक्ति आया और उसने कहा कि यह कमरा किसी और के लिए एलाट है. उसने मनोज से मेजबान स्वामी का नाम पूछा और कुछ ही देर बाद कमरा नंबर 1, 3 और 5 की चाबियाँ दे दीं. हम सभी अपने अपने कमरे में गये.

सुबह मेरी नींद साढ़े पांच बजे खुल गयी. तुरंत ही तैयार होकर मैं बाहर आया तो पता लगा कि मनोज, सुरजीत और संजय भाई प्रार्थना सभा में रिकार्डिंग कर रहे हैं. इसके बाद गुरुकुल के तलघर में बैठ कर ध्यान लगाया गया. वह जगह एक कृत्रिम सुगंध के छिड़काव के बावजूद अजीब सी सीलनभरी गंध से भरी थी लेकिन वहां दस मिनट बैठकर बहुत ही अच्छा लगता था. मनोज इस पूरे प्रांगण में एक चपल किशोर जैसे थे और बाकी सभी लोग उनकी ऊर्जा के वशीभूत काम कर रहे थे. सात बजे तक यह सब चला और उसके बाद हमने नाश्ता किया.

अब बारी सूरत शहर की थी. यात्रा की शुरुआत में सूरत शहर में हमारा कोई कनेक्ट नहीं था. गुरुकुल एक पड़ाव था लेकिन शहर में पहुँचते ही दूसरे दिन कई लोगों से बात करने का सन्दर्भ बन गया. दूसरे दिन हम शरद गाँधी के पास गये जो हीरा व्यापार पर आधारित एक रंगीन साप्ताहिक अखबार निकालते हैं. अखबार भारी ग्लेज़ पेपर पर रंग-बिरंगी तस्वीरों से सजा एक प्रचार पम्फलेट जैसा था और उसमें पढ़ने के लिए कुछ खास नहीं था. इसके अतिरिक्त शरद गाँधी कुछ किताबों के लेखक भी हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात थी उनका और उनके भाई द्वारा विकसित एक ऐसी भाषा जिसमें शरद बिना कुछ बोले इशारा करते थे और उनके भाई उसे हूबहू कागज पर लिख देते. जांचने के लिए मनोज ने एक कागज पर कुछ लिखकर शरद को दिखाया और उनके भाई ने एकदम सटीक लिखकर सुनाया. हमारे लिए यह दिलचस्प था. ज्ञात हुआ कि दोनों भाई कई देशों में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं और उन्हें अनेक पुरस्कार और गिनीज बुक में भी स्थान मिल चुका है. वहां से अगला रुकाव हीरा व्यवसायी गोबिंद ढोलकिया के यहां था जो लंच पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे.

गोबिंद ढोलकिया आज सूरत शहर के सबसे बड़े हीरा निर्यातकों में से एक माने जाते हैं जिनका कारोबार कई देशों में फैला है. आज उनका सालाना कारोबार 6000 करोड़ का है. उन्होंने यह सब चालीस साल में संभव बनाया. एक गरीब किसान के बेटे गोबिंद ने सातवीं कक्षा तक पढाई करने के बाद सूरत शहर की राह ली और हीरा व्यवसाय में एक कटर के रूप में काम करने लगे. बाद में तीन सहकर्मियों ने मिलकर दो दो हज़ार रुपये लगाकर एक कंपनी शुरू की और धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे. आज एसआरके अर्थात श्री राम कृष्ण एक्सपोर्ट का अपना एक विशाल साम्राज्य है जिसके प्रांगण में घुसते ही उसकी समृद्धि और चाक-चौबंद व्यवस्था का अहसास होता है.

हम ग्राउंड फ्लोर पर स्थित गोबिंद ढोलकिया के पुस्तकालय और संग्रहालय को देखने लगे. सैकड़ों पुरस्कारों की ट्राफियां सजी थीं और एक से एक कीमती पुस्तकें वहां पर थीं. उसके तुरंत बाद हम मिनी थियेटर में जा बैठे जहां ढोलकिया के ऊपर बनाया गया एक डाक्यु-ड्रामा दिखाया जाने लगा. निर्माता ने मेहनत की थी और इसीलिए सबकुछ प्रायोजित होने के बावजूद रोचक लग रहा था. अभी वह आधा भी ख़त्म नहीं हुआ था कि ऑफिशियल ने आकर सूचित किया भाईजी अर्थात गोबिंद ढोलकिया आ गये.

हम तुरंत निकले. साठ-पैंसठ के लपेटे में पहुंचे ढोलकिया काफी चुस्त-दुरुस्त थे. उन्होंने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और तुरंत लंच पर ले गये. लंच उनकी कंपनी के कॉमन किचन में था जहां ढोलकिया हमेशा अपने कर्मचारियों के साथ खाते हैं. पूरी व्यवस्था अत्यंत साफ़-सुथरी थी और किसी फाइव स्टार रेस्तरां जैसी थी. बहुत आत्मीय ढंग से खाना पीना हुआ और साथ-साथ मनोज-ढोलकिया संवाद भी चलता रहा, जो ज़ाहिर है फिल्म tomorrow8pm की बुनियादी अवधारणा समय, जीवन और पैसे की अहमियत और अंतर्संबंधों को लेकर था.

मुझको अब तक लगने लगा था कि सब कुछ स्वाभाविक नहीं है. शरद गाँधी ने जिस तरह गोबिंद ढोलकिया से सारी बातें फिक्स कर रखी थीं, उससे लगता था कि वे हमारी रोड ट्रिप के महत्त्व को समझते थे और ढोलकिया को उसका हिस्सा बनाकर उनके ऊपर प्रभाव बढ़ाना चाहते थे. आखिर उनके साप्ताहिक पत्र के लिए विज्ञापन तो चाहिए ही था. इसका अहसास मुझे इसलिए भी हुआ कि जो शरद और उनके सहयोगी मनीष अपने दफ्तर में टीम के साथ गर्मजोशी से मिले थे वे ही अब अजनबियों जैसे रूखा-सूखा व्यवहार करने लगे थे. ज़ाहिर है अब उनका टारगेट बदल चुका था. बहरहाल!

गोबिंद ढोलकिया के हॉलनुमा दफ्तर में मनोज ने उनसे लम्बी बातचीत की और दूसरे कमरे में मौसमी का जूस पीकर आगे फैक्टरी देखने और शूट करने का तय हुआ. लेकिन संगीतकार रोहित शर्मा को वापस मुंबई जाना था और उन्हें स्टेशन सी ऑफ़ करने मुझे जाना था. उनका सामान गुरुकुल के कमरे में था और वहां से स्टेशन 16-17 किलोमीटर था. हम स्टेशन के काफी करीब थे. सवा तीन बज गये थे. तलघर स्थित पार्किंग में गाड़ियाँ थीं. यहां आकर पता चला कि अब तक टीम का अभिन्न हिस्सा बन चुके ड्रायवरों ने अभी तक खाना ही नहीं खाया था. हीरे की चमक में सर्वहाराओं की भूख एक फीके तथ्य की तरह थी. ड्रायवर अनिल मिश्रा भूखे थे और उन्हें तुरंत खाने की जरूरत थी लेकिन पौन घंटे में रोहित की गाड़ी छूटने वाली थी लिहाज़ा तुरंत ही हम निकल पड़े. पंद्रह मिनट में गुरुकुल आये और रोहित ने अपना सामान उठाया. मिश्रा की राय थी कि रोहित को ऑटो पर बिठा दिया जाय लेकिन समय कम होने और ऑटो वालों की अनिच्छा के कारण उसने आगे की राह थामी. तय पाया गया कि मिश्रा को रास्ते में खाना खाना चाहिए.

पांच बजे के आसपास मनोज आदि गुरुकुल आये और प्रेस कांफरेंस हुई. पत्रकारों के जाने के बाद वे लोग फिर सूरत के लिए निकल पड़े. माधवन, रमेश, सौरभ आदि गुरुकुल में ही रहे. शाम को गुरुकुल के मुख्य द्वार के सामने एक छोटा सा बाज़ार लगता है जिसमें गुटखा-तम्बाकू से लेकर आइसक्रीम और दूसरी अनेक चीजें बिकती हैं. गुरुकुल में आने वाले लोग मुख्य उपभोक्ता होते हैं. सूरत में मनोज, संजय और सुरजीत ने शरद गाँधी की अगुवाई में एक अन्य बड़े हीरा व्यापारी लव जी बाश्शा से मुलाकात की और उनके बादशाही नाश्ते का लाभ उठाया. फिर उन लोगों ने लव जी बाश्शा और ईश्वर ढोलकिया से साक्षात्कार रिकार्ड किया. वे दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति दक्षेस ठक्कर से मिलने गये. ठक्कर बड़े विद्वान हैं और उनकी चालीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. दिलचस्प यह था कि 35 साल से डॉ. ठक्कर ने सिनेमा नहीं देखा है, लेकिन सतीश कौशिक, केतन मेहता और अनेक बड़े फिल्मकारों से उनकी गहरी दोस्ती है.

तय था कि आज शाम हम बड़ोदरा के लिए निकल पड़ेंगे, लेकिन गुरुकुल में लोग पैकिंग करके इंतजार करते रहे और सूरत गये लोग रात में बारह बजे आये. उसके बाद तय हुआ कि सुबह बड़े स्वामी से पीपल के पौधे में मिट्टी डलवाकर आगे की यात्रा की जाएगी. रात में कुछ बूंदाबाँदी हुई और मौसम में एक नरमी बस गयी.

सुबह तक शरद गाँधी ने सूरत के एसपी राकेश अस्थाना से मुलाकात का समय ले लिया था. मनोज आदि सुबह का नज़ारा रिकार्ड करने बाहर निकले और नौ बजे तक वापस आये. तुरंत ही तैयार होकर हम एसपी ऑफिस के लिए निकल पड़े जो सूरत के दूसरे कोने पर था. शरद गाँधी और मनीष टीम का इंतजार कर रहे थे. इंट्री करके सभी अन्दर गये. शरद और मनीष आदि टीम के अन्य सदस्यों से पूर्ववत अजनबी ही बने रहे. उनकी निगाहें मानो सामने देखते हुए भी किसी और को देख रही थीं. कैमरा आदि तैयार था. इन्टरव्यू के बाद अस्थाना द्वारा फ्लैग ऑफ़ किया जाना था. ऐसा शरद गाँधी द्वारा नियत था. आधे घंटे के इंतज़ार के बाद अन्दर से बुलावा आया और शरद के साथ मनोज मौर्य भीतर गये. कैमरा ले जाने को मना कर दिया गया. फिर से बीस-पचीस मिनट का इंतज़ार था. अंत में केवल स्टिल फोटो लेने की इज़ाज़त मिली और टीम के लोगों के साथ एसपी राकेश अस्थाना ने एक तस्वीर खिंचवायी.

नीचे आने पर शरद गाँधी को तीन सैंड क्लॉक लौटाये गये क्योंकि कल उनको दिये गये सैंड क्लॉक लव जी बाश्शा और दक्षेस ठक्कर को इसलिए उधार लेकर दिये गये क्योंकि पर्याप्त संख्या में सैंड क्लॉक गाड़ी में रखने में चूक हो गयी थी. इसके लिए गुरुकुल लौटना असंभव था. कई बार हाथ हिलाकर उन लोगों ने टीम को विदा कहा और इस बार अजनबियत की चट्टान को उन्होंने थोडा खिसकाया था. अब गुरुकुल पहुंचना था ताकि आगे के लिए जल्दी निकला जा सके.

तापी नदी से घिरे सूरत शहर के सूर्यपुरी होने का मिथक बहुत क्षीण रूप से प्रचलित है और इस प्रकार इसका संबध कर्ण से जुड़ता है. बौद्ध काल में सूरत का महत्त्व बहुत अधिक था और मध्यकाल में यह पश्चिमी भारत का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह था. अकबर के राज्यकाल में सूरत एक ऐसा केंद्र था जहां से हर साल दो जहाजों में हजयात्री मक्का जाया करते थे. अरब सागर में किसी भी जहाज को लूट लेने और डुबा देने वाले बर्बर पुर्तगालियों ने अकबर के दो जहाजों को करताज (पारपत्र) मुक्त कर दिया था. इरफ़ान हबीब द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘अकबर और उसका राज्य’ के एक अध्याय में अकबर की समुद्र नीति पर लिखा गया है और उसमें दिये तथ्य के मुताबिक पुर्तगाली अरब सागर और कालीमिर्च को अपनी बपौती समझते थे, लेकिन भारत के तत्कालीन सम्राट अकबर से झगडा मोल नहीं ले सकते थे. उन्होंने अकबर से समझौता कर लिया. अकबर समुद्र के क्षेत्र में अपने प्रभुत्व को लेकर कोई खास उत्साही नहीं थे क्योंकि गुजरात और दूसरे सीमावर्ती राजा अपने-अपने ढंग से मौके का फायदा उठाते थे और भारत के प्रति उनका रवैया ढुलमुल था. उनमें से प्रायः लोग पुर्तगालियों से मिले हुए थे और गुपचुप संधियों और समझौतों के अनुसार अपनी भूमिका तय करते थे.

बीसवीं सदी में सूरत सूती कपड़ों, पोलिस्टर और हीरा व्यवसाय का सबसे बड़ा केंद्र बन गया. पश्चिम रेलवे पर स्थित सूरत गुजरात में अहमदाबाद के बाद सबसे बड़ा नगर है और मुंबई से उसकी दूरी महज 280 किलोमीटर है. आज का सूरत विशाल भवनों, अट्टालिकाओं और चौड़ी सड़कों से भरा पूरा शहर है और देश के अनेक हिस्सों से आये हुए लोग यहां रोजी-रोटी कमा रहे हैं. सूरत में कई बड़े फायनेंसर हैं जिनका अकूत पैसा मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री में लगा हुआ है.

लेकिन सूरत का भी हर शहर की तरह दो रूप है. एक तरफ समृद्धि और अमीरी है तो दूसरी ओर मेहनत करने वालों की विशाल आबादी जो सुबह से शाम तक मेहनत करके अपनी दाल-रोटी का जुगाड़ करती है. एक बात ने मुझको विस्मय से भर दिया कि सूरत में कटे-फटे नोट बिना बट्टे और मीन-मेख के चल जाते हैं. चाहे नोट दो ही टुकड़ों में क्यों न फट चुका हो लेकिन हर कोई बेझिझक उसे स्वीकारता है जबकि मुम्बई और दिल्ली जैसे शहरों में जरा सा मुड़ा-तुड़ा नोट चलाना भी बिना चार बात सुने असंभव है. भारतीय करेंसी का इतना सहज स्वीकार, उस शहर में जहां हज़ार के नोटों की उपस्थिति स्वाभाविक रूप से अधिक हो सकती है, सचमुच एक आश्चर्य ही था. दिल्ली जैसे शहर में तो आज से पंद्रह साल पहले मेरे एक मित्र ने अपने सरकारी बैंक के खाते में जब दस-दस के नोटों की एक गड्डी कैशियर को थमायी तो उसने लेने से ही मना कर दिया था.

एक बज कर दस मिनट पर जब हम गुरुकुल से चलने को तैयार हुए तो स्वामी विश्वरूप ने लंच करने का आग्रह किया. इसके साथ ही बड़े स्वामी ने दो कार्टूनों में रस्क और बिस्कुट रखवा दिये. उन्होंने बड़े ही अनौपचारिक ढंग से पीपल के पौधे में मिट्टी डाली और थोड़े पानी से सींच दिया. पैंसठ-सत्तर के लपेटे में पहुँचे बड़े स्वामी बहुत हंसमुख और मित्रवत्सल दिखे. मनोज जहां-तहां अंग्रेजी बोलते और बाकी स्वामी भी ऐसा ही कर डालते, लेकिन बड़े स्वामी समझ में आने वाली गुजराती में अपने विचार बड़ी बेबाकी से रखते. उनकी बातों से उनके अध्येता होने का पता चलता था और लोकाचार के अनेक किस्से उनके उदाहरणों में आते थे.

अंततः गाड़ियाँ स्टार्ट हुईं. बड़े स्वामी ने फ्लैग ऑफ़ किया. वे वापस अपने कक्ष में जाने लगे. उन्हें कागज या किसी और वस्तु का कोई टुकड़ा दिखा होगा. सबसे बेखबर उन्होंने उसे पैर से ऐसे मारा गोया फुटबाल पर किक मार रहे हों. हम गुरुकुल से बाहर निकले और बायें की जगह दायें मुड़ गये. आगे एक ही किलोमीटर चले होंगे कि एक व्यक्ति ने बताया आगे तापी नदी है. आखिर मुड़कर फिर वापस होना पड़ा. भटकाव शुरू हो चुका था क्योंकि इस यात्रा का महान उद्देश्य एक ऐसा भटकाव था जो आज के भारत तक हमें अनायास ही ले जा सके.

बाय बाय सूरत!



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