सप्ताहांत आते-आते कुछ ऐसी ख़बरें आयी हैं जो ‘सूचनाओं के समंदर’ वाले इस युग में हंसने या रोने की आज़ादी मुहैया कराती हैं। सप्ताह की शुरुआत में जहां दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 45 करोड़ रुपये की देशभक्ति दिल्ली की जनता को मुफ्त में उपलब्ध करवायी, तो सप्ताह का अंत हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री अनामिका को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिलने के साथ हुआ। इस बीच, कुछ अखबारों के फुटनोट में ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (एआइसीटीई) के उस ‘ऐतिहासिक फैसले’ को भी जगह मिली, जिसमें इंजीनियरिंग के लिए 12वीं में गणित, भौतिकी वगैरह की अनिवार्यता खत्म कर दी गयी होने की सूचना थी।
आप चाहें तो इस ‘क्षणजीवी’ समय में पूरे 12 घंटे बाद ट्विटर जगत पर एआइसीटीई का हैशटैग ट्रेंड करने को लेकर यह आश्वस्ति अपने दिल को दे सकते हैं कि लोग 12 घंटे के शोध के बाद ही सही, इस विषय पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, हालांकि तथ्य यह है कि इस सरकार की ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ चलने वाली कई संस्थाओं की तरह एआइइसीटीई भी इस मसले पर लगातार स्टैंड बदल रही है और इसे पत्रकारिता की भाषा में कहें तो ‘न्यूज इज़ अनफोल्डिंग…’ यानी लगातार अपडेट होती खबर भी बना रही है। फिलहाल खबर है कि फैसला वापस ले लिया गया है।
एक साथ सहस्र बुद्धियों से काम कर रही एआइसीटीई ने दरअसल ‘नवाचारी शिक्षा नीति’ की दिशा में ही एक कदम बढ़ाया था जहां बिना परीक्षा पास किए आइएएस बना जा सकता है और बिना आंकड़े गिने योजनाएं बनायी जा सकती हैं, तो सहज बुद्धि कहती है कि बिना गणित पढ़े इंजीनियर भी बना जा सकता है।
वैसे देखिए, बात सही जगह से शुरू होकर कैसे भटक गयी। जैसा कि मेरे कॉमरेड मित्र कहते भी हैं कि तुम गलत जगह पर गलत आदमी हो और इसको सुनकर मैं मन ही मन ‘गील’ (खुशी का भोजपुरी पर्यायवाची; मन की इस अवस्था को व्यक्त करने के लिए खड़ी हिंदी में कोई पर्याय नहीं है) हो लेता हूं। बहरहाल, इस बात की याद कल घोषित हुए अकादमी पुरस्कारों से आयी, जिसे लेकर खासकर हिंदी के लेखन जगत में शाम से ही हर्ष की लहर (शब्दश:) दौड़ी पड़ी है।
यह निर्णय ऐतिहासिक है। हिन्दी में पहलीबार किसी महिला को कविता के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है। अनामिका जी को बहुत बधाई!
Posted by Madan Kashyap on Friday, March 12, 2021
फेसबुक पर और यहां-वहां लहालोट होते बड़े-छोटे लेखकों, कवियों और उनकी छिटपुट मानव-छवियों को देख कर मन में सवाल आया कि क्या अब तक की वाम-कांग्रेस युति की सरकारें महिला-विरोधी तो नहीं थीं? क्या वाकई यह पहली सरकार है जिसने महिलाओं (कम से कम हिंदी साहित्य में) का सही में सम्मान किया है (बीते सात साल में हिंदी की महिलाओं के नाम यह तीसरा पुरस्कार है जबकि 1955 से 2014 तक कुल तीन महिलाओं को पुरस्कार मिला था)? या फिर ऐसा है कि बीते सात दशक के दौरान कृष्णा सोबती से लेकर चित्रा मुद्गल वाया अलका सरावगी, मृदुला गर्ग और नासिरा शर्मा (सभी उपन्यासकार) हिंदी की कोई कवियत्री अकादमी पुरस्कार के लायक हुई ही नहीं? इस तीसरे विकल्प को मानना थोड़ा मुश्किल और असहज करने वाला है।
राजनीति में वह सबसे बड़ी जीत मानी जाती है, जब आपका धुर विरोधी आपकी टर्फ पर आकर खेलता और जीतता है। मोदी- शाह युति की धमक पूरे देश की राजनीति पर इसलिए है कि इन लोगों ने खेल के सारे नियम ही बदल दिए हैं। नैरेटिव का खेल खेलने वाले कांग्रेस औऱ वामपंथी अपनी ही दी हुई शिक्षा भूल कर भाजपा के टर्फ पर आकर खेल रहे हैं। वे राजनीति का दूसरा पाठ भी भूल जाते हैं कि विरोधी को होमग्राउंड का फायदा कभी नहीं उठाने देना चाहिए।
विरोधी जिसे ‘सांप्रदायिक राजनीति’ और ‘हाइपर नेशनलिज्म’ कहते हैं, वह भाजपा का होमग्राउंड है। जिस तरह नैरेटिव-सेटिंग वामपंथी हथियार है, भाजपा ने पूरे समय इन्हीं दो शस्त्रों को मांजा है। इसीलिए, प्रियंका-राहुल कितना भी मंदिर घूम लें, गंगा कूद जाएं, केजरीवाल 500 नहीं 5000 तिरंगे झंडे पूरी दिल्ली में साट दें, ममता बनर्जी चंडीपाठ करने लगें, छत्तीसगढ़ सरकार गोधन योजना अपना ले, लेकिन भाजपा से आप हिंदुत्व और राष्ट्रवाद नहीं छीन सकते। कम से कम अभी के माहौल में तो नहीं ही।
बात बोलेगी: बिजली, पानी और बजटीय मद में 45 करोड़ की देशभक्ति भी मुफ़्त, मुफ़्त, मुफ़्त!
एक बार ज़रा सोच कर देखिए- जिस भाजपा (और जिस नेतृत्व ने) ने गांधी और अंबेडकर को को-ऑप्ट कर लिया, पटेल को लगभग संघी बना दिया, सुभाष बाबू और सावरकर तो उनके थे ही, वह केजरीवाल को तिरंगा योजना, यूपी कांग्रेस को गाय बचाओ और छत्तीसगढ़ सरकार को गोधन-योजना का श्रेय लेने देगी क्या? अब इन बिंदुओं पर विचार करते हुए जो फ्रेम बनता है, उसके दायरे में ज़रा अनामिका जी को मिले अकादमी पुरस्कार को रखकर देखें और सोचें।
स्टॉकहोम-सिंड्रोम से ग्रस्त होना क्या होता है, यह समझने के लिए वर्तमान भारतीय राजनीति पर एक विहंगम दृष्टि डालिए। आप हैरत में पाएंगे कि देखते-देखते आपकी आंखों के आगे पिछले छह वर्षों में नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी के घोर विरोधी महज उनके कॉपीकैट बनकर रह गए हैं! राहुल गांधी का हरेक चुनाव से पहले मंदिर-मंदिर भटकना देखिए, प्रियंका का गंगाजी में कूदना याद कीजिए, केजरीवाल का रामराज्य वाला भाषण और कट्टर देशभक्ति वाला सिलेबस याद कीजिए।
केजरीवाल की राजनीति 360 डिग्री घूम चुकी है। वह यहीं नहीं रुके। जिस भाजपा पर ‘शिक्षा के भगवाकरण’ का आरोप लगता आय़ा है, उससे ही प्रभावित होकर केजरीवाल ने ऐलान किया है कि कांग्रेस-भाजपा ने शिक्षा का चूंकि तिया-पांचा कर दिया है, तो दिल्ली भी अब अपना शिक्षा बोर्ड बनाएगा और कट्टर देशभक्त बच्चे पैदा करेगा। जाहिर है, फिर भाजपा को इससे क्या दिक्कत होगी। लगे हाथ एआइसीटीई ने गणित-भौतिकी की अनिवार्यता इंजीनियरिंग के लिए समाप्त कर डाली क्योंकि ये दोनों विषय देशभक्ति के आड़े आते हैं।
ममता दी बंगाल में का का छीछी से पैर तोड़ने तक वाया चंडीपाठ पहुंच ही चुकी हैं। यूपी में अखिलेश यादव जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, वह किसी भी तरह युद्ध में नेतृत्वकर्ता सिपहसालार का नहीं है, बल्कि लगातार पराजयों से खीझे किसी ‘बूढ़े और ऊबे सेनानायक’ का लगता है। कुल मिलाकर यह कि कांग्रेस ने पिछले छह दशकों तक ‘तुष्टीकरण की जिस ख़तरनाक राजनीति’ को पाला-पोसा, उसका प्रायश्चित अब सभी दल और व्यक्ति ‘उग्र हिंदुत्व, कड़ा हिंदुत्व, कट्टर हिंदुत्व आदि’ की राजनीति के जरिये करते दिखते हैं।
जिसे ‘टॉक्सिक नेशनलिज्म’ और ‘हाइपर नेशनलिज्म’ कह कर बुद्धिजीवियों द्वारा दुत्कारा गया, दिल्ली में उन्हीं लोगों के सियासी पेट्रन यानी संरक्षक अब राजधानी में राष्ट्रभक्ति का ‘मूल पाठ’ पढ़ाएंगे।
सारा मामला दरअसल इसी ‘मूल पाठ’ पर टिका हुआ है। जैसे, बरसों पहले लेखक उदय प्रकाश का योगी आदित्यनाथ के हाथों ‘सम्मान’ लेना जातिवाद का ‘मूल पाठ’ है, लेकिन अनामिका जी को भाजपा सरकार में अपनी स्वायत्तता खो चुकी साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिलना उनकी योग्यता का ‘मूल पाठ’ है।
भाजपा की या उसके सहयोगियों की तिरंगा यात्रा देशभक्ति का उल्टा तर्जुमा है, तो केजरीवाल के 500 तिरंगे राष्ट्रभक्ति का ‘मूल पाठ’ हैं। इराक, यमन, सीरिया से लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक जो धमाके हुए, वह नकली इस्लाम है और तुर्की में चर्च या संग्रहालय को मस्जिद में बदल देना इस्लाम का ‘मूल पाठ’ है।
जोड़ते जाइए, बहुतेरे सिरे जुड़ेंगे। विमर्शों का ‘मूल पाठ’ रचने में आपकी भागीदारी कितनी है यह आप तय करें, लेकिन इस लेखक को बेशक यह मुगालता है कि वह तो दक्षिणपंथ का ‘मूल पाठ’ करता है…! हां, पाठ के बाहर, संदर्भ से बाहर, अनामिका जी को बधाई ज़रूर बनती है। उतनी ही, जितनी वीरप्पा मोइली को।