पाणिनि आनंद |
बंबई में एक घर है. घर क्या बंगला है. बंगला, जहाँ इमारत की एक-एक ईंट पर खून की छीटें हैं- ट्रेड यूनियनों, प्रगतिशीलों, पंजाबियों, मुस्लिम, मारवाड़ी, द्रविड़ों, उत्तर भारतीय- खासकर बिहारी, पूर्वोत्तर, और न जाने कौन-कौन से लोगों के खून के छींटे. इस घर में एक माफिया रहता था. उसके तन पर भगवा और आंखों में खून होता था. अपनी वहशत को छिपाने के लिए वो काला चश्मा पहनता था. वो राजनीति के उस धड़े और विचारधारा वालों का पितामह है जो अपराध-हिंसा-दलाली-डकैती-हिंदुत्व-कट्टरपंथ-दबंगई-लूटमार-सामूहिक हिंसा-दंगों-विध्वंसक गतिविधियों-अंडरवर्ल्ड-तानाशाह जैसी कई छवियों को एक रुद्राक्ष की माला की तरह पिरोकर पहनता है. इसी से प्रेरित दिखता है बाबरी विध्वंस, इसी से प्रेरित दिखता है गुजरात का नरसंहार और इसी से प्रेरित दिखती है क्षेत्रवाद की हिंसक मानसिकता जो अपने ही देश के संविधान पर खंजर रखकर बैठ जाती है और निर्धन-गरीब, दिहाड़ी पर जीने वाले खोमचेवालों, पानवालों से लेकर टैक्सी और ऑटो ड्राइवरों तक हिंसा करती है, लोकतंत्र की हत्या करती है.
बंबई की चिपचिपी आबोहवा में प्याली में चाय और गिलास में गुनगुनी बीयर पीने वाले इस स्वनामधन्य शेर को शेर इसलिए कहा जाता था क्योंकि वो किसी को भी खाने के लिए आकुल रहता था. किसी का भी शिकार, किसी की भी हत्या, कहीं पर भी हिंसा. उसका एक जंगल था. उस जंगल का एक दायरा. इमारतों, सड़कों और रेल की पटरियों के दरमियान पसरे इस जंगल में उसने अपने इलाके की निशानदेही के लिए कुत्ते पाल रखे थे. ये कुत्ते उसके खि़लाफ खड़ी होती हर आवाज़ को पहचानकर उसे बताते थे, वो उन्हें हमले का आदेश देता था और विरोधी खत्म. इस शेर को कभी भी इसलिए शेर नहीं कहा जा सकता कि उसे किसी का डर नहीं था. दरअसल, वो निहायत ही डरपोक और कमज़ोर दिल था. यहाँ तक कि घर से भी नहीं निकलता था क्योंकि किसी बाभन ने कह दिया था कि सड़क दुर्घटना से उसे क्षति हो सकती है. इसीलिए उसने हमेशा खुद को कई परतों की सुरक्षा में घेरे रखा. खुद के बेताज बादशाह होने का दावा करने वाले इस मिट्टी के शेर ने हमेशा निरीह, कमज़ोर और बेज़ुबान लोगों को निशाना बनाया. अफ़सोस कि उसकी थाती ऐसे हाथों में है जो खुद हाथ मिलाने को तैयार नहीं. उनमें से एक लगभग पागल है, किसी को भी काटने के लिए दौड़ता है. दूसरा गुर्राता है पर दांत नहीं हैं. केवल आंत है जिसे भरना और खाली करना ही उसे आता है. इससे आगे न राजनीति की समझ है और न देश की.
पिछले दिनों शेर की खाल में रहनेवाला यह मिट्टी का माधो खामोश हो गया. किस दिन हुआ, किसी को पता नहीं. घोषणा हुई शनिवार को. अगले दिन इतवार था. भीड़ जुटी, पर डर के मारे. क्योंकि लोग न तो 1993 को भूले थे और न ही 2002 को. भिंडी बाज़ार से लेकर पुराने बंबई तक की मारकाट और लूट-डकैती लोगों की आंखों के आगे अब भी ज़िंदा है. ये छवियां मुंबई के आतंकी हमलों से भी गहरी हैं क्योंकि आतंकी हमले करने वाला दोबारा नज़र नहीं आता पर इस दरिंदे के लोग उन्हीं लोगों के बीच रहते हैं, उन्हीं जंगलों में, रोज़ लोगों को अपनी आंखें और ताकत दिखाते हुए. इसलिए शहर भय से भरा था. खामोश. कुछ ग़म में रोए, कुछ खुशी में. लोकतंत्र की पिछले पांच दशकों से निरंतर हत्या करता आ रहा यह मिट्टी का शेर एक तिरंगे में लपेट दिया गया और एक बड़े सार्वजनिक मैदान पर इसकी अंत्येष्टि कर दी गई. यहाँ भी वो चश्मा पहनकर आया था. नज़र मिलाने की हिम्मत जो नहीं थी.
यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ चार दशकों से हिंसा और अपराध को राजनीति और धर्म से जोड़कर लगातार सविंधान की मूल भावना का चीर-हरण करने वाला अचानक से महान हो गया. गोया कि उनसे ज़्यादा आदर्श, दानवीर, तपस्वी, संत, शांत, भातृवत, परोपकारी, समाज और संस्कृति का पोषक दूसरा और कोई नहीं है. देश को तो उन्होंने जो दिया है, मैं चाहता हूं कि धरती के शेष इतिहास में दूसरा और कोई न दे. चैनल वाले बिछे जा रहे थे. विशेषज्ञ अपने बाप से ज़्यादा इनका मातम मना रहे थे. कहा गया, आज़ादी के बाद से ऐसी भीड़ किसी की अंत्येष्टि का नहीं रही. अरे, भीड़ से किसी मृत्यु की क्षति नहीं मापी जा सकती. चौराहे पर जूतों को डोरी से पिरो-पिरोकर लोगों के पैरों में पहनाने वाला अपनी सारी ज़िंदगी जिस मेहनत और ईमानदारी से काटता है और आखिर में मर जाता है, दवा के अभाव में, पैसे और रोटी के अभाव में, कंधों और अर्थी के अभाव में, लेकिन ताउम्र चमड़े का काम करने के बावजूद किसी का गला नहीं काटता— वहां महानता पैदा होती है और उसका मरना वास्तव में एक बड़ी क्षति होती है. क्योंकि वो लड़ता है उधड़े हुए जूते की ग़रीबी से, वो लड़ता है जूतों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार से और वो लड़ता है ईमानदारी के धागे से बंधे एक पेट, एक देह और एक पेशे को बचाने के लिए. रविवार को मुंबई में जो हुआ, महानता का अगर वही मायने है तो यह देश निरबंसियों का हो. हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ एक ओर आम आदमी संविधान को अपनी ताकत समझकर जी रहा है और दूसरी ओर सत्ता और उसके शेर की खाल वाले दलाल संविधान और लोकतंत्र को अपनी रखैल बनाकर रखे हुए हैं.
इस चरमपंथी के चार दशक तक चले नंगे नाच के बारे में और उसकी अंत्येष्टि को मिलते राजकीय सम्मान के बारे में सोचता हूं तो पेज-थ्री पिक्चर का एक डायलॉग याद आता है- जिसकी चलती है, उसकी गांड़पर मोमबत्ती जलती है.
दो चरमपंथी और हैं.
पहला और इस लेख के क्रम में दूसरा है कसाब. पाकिस्तान के एक निहायत ग़रीब घर का युवा जिसकी ग़रीबी उसे चरमपंथियों के दड़बे तक खींच लाई और नापाक इरादे, हिमाक़त बंबई तक. हाथ में बंदूक और मकसद सिर्फ मौत बांटना. मौत का खेल खेलता कसाब घायल हुआ और पकड़ा गया. बाकी के नौ और साथी तीन दिनों तक जारी संघर्ष में मारे गए. उनकी लाशों को ग़ुमनाम जगहों पर दफ़्न कर दिया गया. 10वां ज़िंदा था. उसपर मुक़दमा चला और सज़ा-ए-मौत सुनाई गई. इसमें कोई शक नहीं कि गुनहगार को सज़ा दी जानी चाहिए पर मौत की सज़ा एक हत्या है और किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी पैरवी नहीं की जा सकती. चाहे वो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के लिए हो या अफ़ज़ल और कसाब के लिए. कसाब गुनहगार है क्योंकि उसने हत्याएं कीं और इसके बदले में अगर हम भी हत्या करने लगें तो हम भी उसी स्तर पर उतर आते हैं, जहाँ वो है, उसका अपराध है. हिंसा मानसिकता है, जीवन नहीं इसलिए इसकी सज़ा भी मानसिकता को देनी चाहिए, जीवन को नहीं. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाला देश अमरीका की तर्ज पर मौत की सज़ा को सही मानता है जबकि दुनिया के दो-तिहाई देश इसके ख़िलाफ़ हैं. जेल और न्याय प्रक्रिया बदला लेने के लिए नहीं होते, सुधारने के लिए होते हैं. अगर कोई सुधर नहीं रहा तो जीवन भर जेल में रखिए पर खून का बदला खून- कैसे सही ठहराया जा सकता है भला. फिर ये देश तो गांधी को नोट, वोट और कोट- तीनों पर चिपकाकर चलता है.
हाँ, एक बात और- अगर मौत के बाद मृतक की तारीफ़ करना हमारी सांस्कृतिक परिपाटी का हिस्सा है और इसीलिए बाला साहेब के लिए ऐसा किया गया तो मेरा अनुरोध है कि अधिवक्ता निकम, पाटिल साहेब और अर्नव गोस्वामी आगे लिखे शब्दों को अपने हस्ताक्षर सहित तमाम अखबारों में छपवा दें.- यह कि “श्री अजमल कसाब एक महान व्यक्ति थे. व्यक्तिगत रूप से उनमें वो सारे गुण थे जो एक आदर्श पुरुष में होने चाहिए. वो शांत और मिलनसार थे पर साथ-साथ युवा-तेज और ऊर्जा से भरे हुए थे. हालांकि उन्होंने अपनी पहचान हिंसा के ज़रिए अर्जित की पर इसके लिए उन्होंने अल्लाह से माफ़ी भी मांगी. कम उम्र में ही उन्होंने बहुत नाम कमाया. उन्होंने जेल में रहते हुए न तो कभी अनुशासन भंग किया और न ही कभी प्रशासन को परेशान किया. यह एक तरह से देश के कई कुख्यात माफिया, अपराधियों के लिए एक मिसाल है. उनकी तस्वीर हर जेल में लगाई जाएगी और जेलों में उनके स्मारक बनाए जाएंगे. वो न तो बाला साहेब की तरह शराब पीते थे और न ही महंगे कपड़े पहनते थे. बल्कि जीवनशैली के मामले में निहायत गांधीवादी थे. सादगी और सहजता से भरे हुए…. वगैरह वगैरह.”
कसाब के फांसी पर लटका दिए जाने भर से क्या मुंबई हमले के पीड़ितों को न्याय मिल गया. उनका क्या, जिनके ज़िम्मे देश की सुरक्षा थी. जिन्हें खुफ़िया जानकारियों का विभाग सौंपा गया है, जिन्हें सुरक्षा की गारंटी के लिए पगारें मिलती हैं. ये 10 लोग ही तो थे न, सुनामी तो नहीं थे. फिर क्यों व्यवसायिक राजधानी की पूरी सुरक्षा व्यवस्था धरी की धरी रह गई. और क्या चरमपंथी हमलों की कथा कसाब से शुरू होकर कसाब पर खत्म होती है. अपने साथियों के साथ उस दौरान वो भी मारा जाता तो क्या आज मुर्गे और बकरों को फांसी देकर जश्न मना रहे होते ऑपरेशन एक्स के कर्णधार. क्या इसराइल परस्ती और अमरीका परस्ती इन हमलों की वजह नहीं है. क्या हमारी खुद की कमज़ोरियां और खोखली दावेदारियां इसकी वजह नहीं हैं. चरमपंथ से निपटने के लिए हमने क्या किया है. जिस ओर हम बढ़ रहे हैं, उससे चरमपंथ घटेगा या बढ़ेगा. अफ़सोस कि बहस न इन सवालों पर है और न ही भारत जैसे लोकतंत्र में फांसी की सज़ा के औचित्य पर.
अब मिलिए तीसरे चरमपंथी से.
ये चरमपंथियों की टुटपुंजिया जमात में से आते हैं. ये उनमें हैं जो राजघाट भी जाते हैं और गांधी-स्टाइल वस्त्र भी धारण करते हैं. वैसे गांधी केवल स्थान विशेष पर ही कपड़े लपेटते थे और ये सिर से लेकर पैर तक लैंम्पपोस्ट की तरह सफेद झकाझक नज़र आते हैं. इनके गांव में साक्षात्कार करने गए पत्रकार बेहिसाब दारू सिगरेट पीते हैं लेकिन अगर यही काम इनके गांव का कोई आदमी करे तो उसे मंदिर के आगे एक खंभे से बांधकर मारते हैं. इस तालेबानी तरीके से उन्होंने गांव की सूरत बदल दी है, ऐसा उनका दावा है. इन्हें वीर्य संचयन और ब्रह्मचर्य पर अगाध विश्वास है और इसीलिए ये विकी डोनर की शूटिंग सेट वाले घर को अपना दिल्ली कार्यालय बनाते हैं. इन्होंने भ्रष्ट लोगों के लिए माफी से कम कोई सज़ा नहीं हो- जैसा नारा दिया है. कसाब की फांसी ये सार्वजनिक रूप से चाहते थे. बामियान के तालेबान बने ये चरमपंथी बुज़ुर्ग ऐसा सोचते हैं कि जो ये सोचते हैं, दरअसल वही सही सोच है, उसके अलावा सारे रास्ते ग़लत हैं. जबकि हक़ीकत यह है कि इनकी स्थिति एक अधकचरी, कुंठित और प्रचार-लोलूप व्यक्ति से अधिक और कुछ नहीं है. वैसे, एक बात ग़ौर करने वाली है कि खाप पंचायतों में फ़तवे जारी करनेवाले भी अधिकतर बुज़ुर्ग ही होते हैं और वे भी श्वेत वस्त्रधारी- पगड़ी से धोती तक. इन हजारे साहेब ने सेना में रहते हुए भी बंदूक नहीं उठाई. एक जीप की स्टेरिंग इनके हाथ थी, वो भी न संभली. अब देश संभालने की लड़ाई लड़ रहे हैं. कसाब को सार्वजनिक फांसी देने के तर्क के साथ इनका असली चरमपंथी चेहरा फिर से सामने आ गया है. कई लोग अभी भी आंखें बंद किए इनको कोई बापू, महात्मा और गांधी के रूप में देख रहे होंगे.
लोकतंत्र के इस टी-थ्री टर्मिनल पर फिलहाल पिछले एक सप्ताह के ये तीन पात्र ही. बाकी उड़ानें अगली कड़ियों में अन्य चरमपंथियों के साथ. नमस्कार.
साभार: किंडल मैगज़ीन
Read more
aap iske alawaa kuch behtar likh sakte hain kya…….?
एक सटीक विश्लेषण