अरुंधति राय |
अफज़ल गुरु की सुनवाई पर दिसंबर 2006 में एक किताब आई थी ”13 दिसंबर- दि स्ट्रेंज केस ऑफ दि अटैक ऑन दि इंडियन पार्लियामेंट: ए रीडर”। इस पुस्तक को पेंगुइन ने छापा था जिसमें अरुंधति रॉय, नंदिता हक्सर, प्रफुल्ल बिदवई आदि कई लोगों के लेख थे। अब अफज़ल को फांसी हो जाने के बाद इस किताब का नया संस्करण आया है जिसका नाम है ”दि हैंगिंग ऑफ अफज़ल गुरु एंड दि स्ट्रेंज केस ऑफ दि अटैक ऑन दि इंडियन पार्लियामेंट”, जिसकी नई भूमिका अरुंधति ने लिखी है। प्रस्तुत है वह भूमिका। अनुवाद किया है जितेन्द्र कुमार ने।
नई दिल्ली की जेल में ग्यारह साल के बाद, जिसमें से ज्यादातर वक्त एकांत में कालकोठरी में मृत्युदंड की प्रतीक्षा में बीता था, फरवरी की एक साफ-सुथरी सुबह, अफज़ल गुरु को फांसी पर लटका दिया गया। भारत के एक पूर्व सॉलिसिटर जनरल व सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता ने इसे हड़बड़ी में छुपाकर लिया गया फैसला बताया है; फांसी दिए जाने का यह ऐसा फैसला, जिसकी वैधता पर गंभीर प्रश्न चिह्न लग गए हैं।
जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने तीन उम्र कैद और दो मृत्युदंड की सजा तजबीज की हो और जिसे लोकतांत्रिक सरकार ने फांसी पर लटकाया हो, उस प्रक्रिया पर वैधानिक प्रश्न कैसे लगाया जा सकता है? क्योंकि फांसी पर लटकाए जाने के सिर्फ दस महीने पहले अप्रैल 2012 में सुप्रीम कोर्ट में वैसे कैदियों की याचिका पर कई बैठकों में सुनवाई पूरी हुई थी जिसमें कैदियों को बहुत ज्यादा समय तक जेल में रखा गया है। उन कई मुकदमों में एक मुकदमा अफज़ल गुरु का भी था जिसमें सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। लेकिन अफज़ल गुरु को फैसला सुनाए जाने से पहले ही फांसी दे दी गई है।
सरकार ने अफज़ल के परिवार को उनका शरीर सौंपने से मना कर दिया है। उनके शरीर को अंतिम रस्म किए बगैर जम्मू–कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के संस्थापक मकबूल भट्ट, जो कश्मीर की आज़ादी के सबसे बड़े आइकन थे, की कब्र के बगल में दफ़ना दिया गया। और इस तरह तिहाड़ जेल की चहारदीवारी के भीतर ही दूसरे कश्मीरी की लाश अंतिम रस्म अदा किए जाने की प्रतीक्षा कर रही है। उधर कश्मीर में मज़ार–ए–शोहदा के कब्रिस्तान में एक कब्र लाश के इंतजार में खाली पड़ी है। जो लोग कश्मीर को जानते–समझते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि कैसे कल्पित, भूमिगत आदमकद कोटरों ने अतीत में कितने चरमपंथी हमलों को जन्म दिया है।
दिसंबर 2006 में छपी मूल पुस्तक |
हिन्दुस्तान में, ‘कानून का राज कायम होने’ का ढिंढोरा पीटे जाने का जश्न थम गया है, सड़कों और गलियों में गुंडों द्वारा फांसी पर चढ़ाए जाने की खुशी में मिठाई बंटनी बंद हो गई है (आप कितनी देर बिना चाय ब्रेक के मुर्दे के पोस्टर को फूंक सकते हैं?), कुछ लोगों को फांसी की सज़ा दिए जाने पर आपत्ति जताने और अफज़ल गुरु के मामले में निष्पक्ष सुनवाई (फेयर ट्रायल) हुई या नहीं, कहने की छूट दे दी गई। वह बेहतर और सामयिक भी था, एक बार फिर हमने ज़मीरसे लबालब जनतंत्र देखा।
बस उन बहसों को नहीं देख सके जो छह साल पहले ही चार साल देर से शुरू हुई थीं। सबसे पहले यह किताब 2006 के दिसंबर में छपी थी जिसके पहले भाग के लेखों में विस्तार से सुनवाई के बारे में चर्चा हुई है। इसमें कानूनी विफलता, ट्रायल कोर्ट में उन्हें वकील नहीं मिलने की बात, कैसे सूत्रों की तह तक नहीं जाया गया और उस समय मीडिया ने कितनी घातक भूमिका निभायी, सब कुछ है।
इस नए संस्करण के दूसरे खंड में फांसी दिए जाने के बाद लिखे गए लेखों और विश्लेषणों का एक संकलन है। पहले संस्करण के प्राक्कथन में कहा गया है- ‘इसलिए इस पुस्तक से एक आशा जगती है’, जबकि यह संस्करण गुस्से में प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रतिहिंसक समय में, अधीरता से कोई भी यह पूछ सकता है: विवरणों और कानूनी बारीकियों को छोड़िए, क्या वह दोषी था या वह दोषी नहीं था? क्या भारत सरकार ने एक निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया है?
नया संस्करण |
जो भी व्यक्ति इस किताब को पढ़ने का कष्ट करेगा, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि अफज़ल गुरु के ऊपर जो आरोप लगाए गए थे, उसके लिए वह दोषी साबित नहीं हुआ था– भारतीय संसद पर हमला रचने का षडयंत्रकारी या फिर जिसे फैशन में ‘भारतीय लोकतंत्र पर हमला‘ भी कहा जाता है (जिसे मीडिया लगातार गलत तरीके से अपराधी ठहराता रहा है जबकि अभियोजन पक्ष द्वारा उस पर हमला करने का आरोप नहीं लगा है और न ही उन्हें किसी का हत्यारा कहा गया है। उसके ऊपर हमलावरों का सहयोगी होने का आरोप था)। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपराध के लिए उन्हें दोषी पाया और उन्हें फांसी की सज़ा दी। अपने इस विवादास्पद फैसले में, जिसमें ‘समाज के सामूहिक विवेक को तुष्ट करने के लिए’ किसी को फांसी पर लटका दिए जाने की बात कही गई है, उनके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था, केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे।
आतंकवाद विशेषज्ञ और अन्य विश्लेषक गौरव के साथ बता रहे हैं कि ऐसे मामलों में ‘पूरा सच‘ हमेशा ही मायावी होता है। संसद पर हमले के मामले में तो बिल्कुल यही दिखता है। इसमें हम ‘सच‘ तक नहीं पहुंच पाए हैं। तार्किक रूप से, न्यायिक सिद्धांत के अनुसार ‘उचित संदेह‘ की बात उठनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक आदमी को जिसका अपराध महज ‘उचित संदेह से परे’ स्थापित नहीं हो पाया, फांसी पर लटका दिया गया।
चलिए हम मान लेते हैं कि भारतीय संसद पर हमला हमारे लोकतंत्र पर हमला है। तो क्या 1983 में तीन हज़ार ‘अवैध बांग्लादेशियों का नेली नरसंहार क्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? या 1984 में दिल्ली की सड़कों पर तीन हज़ार से अधिक सिखों का नरसंहार क्या था? 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था क्या? 1993 में मुंबई में शिवसैनिकों के नेतृत्व में हज़ारों मुसलमानों की हत्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? गुजरात में 2002 में हुए हज़ारों मुसलमानों का नरसंहार क्या था? वहां प्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य, दोनों प्रकार के सबूत हैं जिसमें बड़े पैमाने पर हुए नरसंहारों में हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं के तार जुड़े हैं। लेकिन ग्यारह साल में क्या हमने कभी इसकी कल्पना तक की है कि उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है, फांसी पर चढ़ाने की बात को तो छोड़ ही दीजिए। खैर छोड़िए इसे। इसके विपरीत, उनमें से एक को– जो कभी किसी सार्वजनिक पद पर नहीं रहे– और जिनके मरने के बाद पूरी मुंबई को बंधक बना दिया था, उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। जबकि दूसरा व्यक्ति अगले आम चुनाव में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है।
इस ठंड, बुज़दिली भरे रास्ते में, खाली, अतिरंजित इशारों की नकली प्रक्रिया के तहत भारतीय मार्का फासीवाद हमारे ऊपर आ खड़ा हुआ है।
श्रीनगर के मज़ार–ए–शोहदा में, अफज़ल की समाधि के पत्थर (जिसे पुलिस ने हटा दिया था और बाद में जनता के आक्रोश की वजह से फिर से रखने के लिए बाध्य हुई) पर लिखा है:
‘देश का शहीद, शहीद मोहम्मद अफज़ल, शहादत की तिथि 9 फरवरी 2013, शनिवार। इनका नश्वर शरीर भारत सरकार की हिरासत में है और अपने वतन वापसी का इंतज़ार कर रहा है।‘
हम क्या कर रहे हैं, यह जानते हुए भी अफज़ल गुरु को एक पारंपरिक योद्धा के रूप में वर्णन करना काफी कठिन होगा। उनकी शहादत कश्मीरी युवकों के अनुभवों से आती है जिसके गवाह दसियों हज़ार साधारण युवा कश्मीरी रहे हैं। उन्हें तरह–तरह की यातनाएं दी जाती हैं, उन्हें जलाया जाता है, पीटा जाता है, बिजली के झटके दिए जाते हैं , ब्लैकमेल किया जाता है और अंत में मार दिया जाता है।( उन्हें क्या–क्या यातनाएं दी गईं उसका विवरण आप परिशिष्ट तीन में पढ़ सकते हैं)। जब अफज़ल गुरु को अतिगोपनीय तरीके से फांसी पर लटका दिया गया, उन्हें फांसी पर लटकाए जाने की प्रक्रिया को बार–बार प्रहसन के रूप में पर्दे पर दिखाया गया, जब पर्दा नीचे सरका और रोशनी आई तो दर्शकों ने उस प्रहसन की तारीफ की। समीक्षाएं मिश्रित थीं लेकिन जो कृत्य किया गया था, वह सचमुच ही बहुत घटिया था।
‘पूरा‘ सच यह है कि अब अफज़ल गुरु मर चुका है और अब शायद हम कभी नहीं जान पाएंगे कि भारतीय संसद पर हमला किसने किया था। भारतीय जनता पार्टी से उसका भयानक चुनावी नारा लूट लिया गया है: ‘देश अभी शर्मिंदा है, अफज़ल अभी भी जि़ंदा है‘ । अब भाजपा को एक नया नारा तलाशना होगा।
गिरफ्तारी से बहुत पहले अफज़ल गुरु एक इंसान के रूप में पूरी तरह टूट चुका था। अब जब कि वह मर चुका है, उनकी सड़ी लाश पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की जा रही है। लोगों के गुस्से को भड़काया जा रहा है। कुछ समय के बाद हमें उनकी चिट्ठियां मिलेंगी, जो उसने कभी लिखी नहीं, कोई किताब मिलेगी, जो उसने लिखी नहीं। साथ ही, कुछ ऐसी बातें भी सुनने को मिलेंगी जो उन्होंने कभी कही नहीं। यह बदसूरत खेल बदस्तूर जारी रहेगा लेकिन इससे कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि जिस तरह वह जीता था और जिस तरह वह मरा, वह कश्मीरी स्मृति में लोकप्रिय रहेगा, एक नायक के रूप में, मकबूल भट्ट के कंधे से कंधा मिलाकर और उसकी मिली–जुली आभा से हिल–मिल कर।
हम बाकी लोगों के लिए, उनकी कहानी तो बस ये है कि भारतीय लोकतंत्र पर वास्तविक हमला कश्मीर में सैनिकों केबल पर भारतीय साम्राज्य का है।
मोहम्मद अफज़ल गुरु, शांति से रहें।
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Arundhati roy Ji,Aur Jitendra kumar Bahut hi Achhi Batey Padneko mily Padkar Dil Hil Gayaa Ye Kaisi Rajniti Chalti hai Hamarey Mulk mai?Nirdosh Bekasuro ko bina judgement ke bi Faasi de di jaati hai,Aur jo Sachha Gunahgaar hota hai woh moj se Jita hai In zalimo ne Apni kurshi Bachane ke liye kitne bekasuro ko mout ke ghaat Uttara hogaa to kiya ye Aatakvaadi banney par logo ko Majbur Nahi Kartey,mai Ek Inshaniyat ki bina par par pucha hu ki kiya Musalmano ke liye Aur Digar ke liye kaanoon ke Roop Alagalag hotey Hai ?kiya Sach mai ham Azad hai Kiya loktantr ka ye cahera ginona Aur Nafratwala nahi hai?Khair Afzalguru to bichara mar Gayaa lekin Sekdo Guru Banakar gayaa ye hamarey politiciono ki den hai ab bhugto barsotak Aur Nafrat ki Aagmai Jaltey Raho Magar Yaad Rakhna Marhum Afzalguru ko to ye Duniya se Shanti mil gayi Magar unhey Mout tak Kabi Shanti Nahi milegi Afzalguru ko Jannat nasib ho,Aameen
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