विष्णु जी की अनुमति के बाद मैंने उनका पत्र और अपना जवाब जनपथ पर डाल दिया, लेकिन ऐसा लगता है कि बहस को अपने विवादास्पद राजनीतिक स्टैंड के संदर्भ में आगे बढ़ाने से कहीं ज्यादा विष्णु जी को ब्लॉग की दुनिया में अपना नाम चर्चित करवाने की इच्छा पैदा हो गई है। मैंने बहस के लिहाज़ से उनसे पत्र ब्लॉग पर डालने की अनुमति मांगी थी, अब वे हर मेल को ब्लॉग पर डालने का आग्रह कर रहे हैं, जिसका इस बहस के केंद्रबिंदु से कोई लेना-देना भी नहीं। बहरहाल, मेरे जवाब के बाद जो कुछ भी मेरा पत्र व्यवहार उनसे हुआ, सब जस का तस मय समय और तारीख नीचे चेपे दे रहा हूं।
”बहस मेरे और आपके बीच ही रहे”
(इस पत्र में विष्णु जी चाहते हैं कि बहस मोहल्ला पर न जाए और मेरे व उनके बीच ही रहे)
from:
Vishnu Khare vishnukhare@gmail.com
to:
Abhishek Srivastava <guru.abhishek@gmail.com>
date:
Mon, Apr 16, 2012 at 4:00 PM
यदि मोहल्ला को छोड़ कर आप अपनी मूल टिप्पणी, मेरी प्रतिक्रिया और आपका यह प्रत्युत्तर किसी भी ब्लॉग पर लगा/लगवा सकें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं. बल्कि जब खुद आपका भी ब्लॉग है तो उसी पर लगाएं. वहाँ से फिर आपकी मर्जी कि जो चाहे ले ले. इसीलिए मैंने आपको मोहल्ला पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं भेजी थी.
इसीलिए मैंने उसे आपसे निजी रखने को भी कहा था कि फिलहाल बहस मेरे और आपके बीच ही रहे. शायद आपको हिंदी से किसी और ने लिखा भी नहीं है. फिर भी, मुक्तिबोध-वाला एक मेहतर तो चाहिए और गलतबयानियाँ बेचुनौती नहीं चली जाने देना चाहिए.
मुझे इस पत्र-व्यवहार पर अन्य प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
हाँ, मुझे यह समझ में नहीं आया कि आप आइ.आइ.सी. में किस वक़्त मेरे घबराए चेहरे की बात कर रहे हैं. घबरा जाने वाले लोग ऐसे पत्र नहीं लिखा करते.
विष्णु खरे
”सौ फूल खिलने दीजिए, विष्णु जी”
from:
Abhishek Srivastava guru.abhishek@gmail.com
to:
Vishnu Khare <vishnukhare@gmail.com>
date:
Mon, Apr 16, 2012 at 4:18 PM
मैं आपका पत्र और अपना प्रत्युत्तर अपने ही ब्लॉग पर डालूंगा, लेकिन यदि अविनाश वहां से उठा कर अपने यहां चिपका देते हैं (जैसा कि उनकी आदत है), तो इसका मैं कुछ नहीं कर सकता। बहरहाल, अगर आपको लगता है कि मैं मोहल्ले से कोई ताल्लुक रखता हूं तो बता दूं कि ऐसा कतई नहीं है। वह अविनाश की अपनी साइट है।
मेहतर ज़रूर हो, आपकी इस बात से मैं इत्तेफ़ाक़ रखता हूं लेकिन मेहतर एक ही हो ज़रूरी नहीं। सौ फूल खिलने दीजिए, सौ माली पैदा होने दीजिए, हज़ार मेहतर आ जाएं तो बेहतर।
राजकमल वाले कार्यक्रम में मेरी मुलाकात आपसे हुई थी। उससे ठीक पहले मैं आपसे नामदेव ढसाल के कविता संग्रह लोकार्पण में प्रगति मैदान में मिला था। मैं, रामशरण, जोशी, पाणिनी आनंद, रोहित प्रकाश, हेमंत जोशी सब एक साथ खड़े थे रसरंजन के सेशन में, तब आपकी एंट्री हुई और मैंने कुछ देर तक आपको परेशान किया इस बात को लेकर कि आप शिवसेना की राजनीति करने वाले एक कवि के मंच पर क्यों गए। आपका चेहरा जैसा भी रहा हो, लेकिन आप जल्दी में कट लेना चाह रहे थे। आपका आखिरी वही चेहरा मुझे याद है। मैं उसको घबराया समझ बैठा रहा होऊंगा गलती से। ”खुदमुख्तार” होने की बड़ी दिक्कतें भी तो हैं, क्या किया जाए।
वैसे सूचना दे दूं कि मेरी मूल टिप्पणी (कविता समेत) सबसे पहले मैंने अपने जनपथ (www.junputh.com) पर ही लगाई थी। वहां से मोहल्ला और अन्य जगहों पर इसे उठा लिया गया। आपने शायद मोहल्ला पर ही पहले पढ़ा…
अभिषेक
”नाम्या सबको चूत्या बनाता फिरता है” (इसलिए उसके शिवसैनिक होने पर एतराज नहीं)
(नामदेव ढसाल के कविता संग्रह लोकार्पण में शामिल होने पर विष्णु जी की दलील: ”मराठी में कौन नहीं जानता कि नामदेव शिव-सेना आर.एस.एस. से सम्बद्ध है. लेकिन सब हँसते हैं. कहते हैं नाम्या का कुछ भरोसा नहीं है वो सबको चूत्या बनाता फिरता है, हरेक से सम्बद्ध है और हरेक के विरुद्ध है”. इसका मतलब ये हुआ कि लोगों के मुताबिक नामदेव ढसाल का कोई राजनीतिक स्टैंड नहीं है। दूसरे, विष्णु जी कहते हैं कि महाराष्ट्र में उन्हें ”मानद मराठीवाला” समझा जाता है। यानी लोगों की समझ और उनके बीच गढ़ी हुई छवि के आधार पर वह शिवसेना के एक कवि की पुस्तक का लोकार्पण करते हैं। ध्यान दीजिएगा: मंगलेश जी भी उस कार्यक्रम में शामिल थे और पिछले दिनों राकेश सिन्हा के इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के कार्यक्रम में मंच पर पाए गए थे। क्या ये दलील कन्विंस करती है?)
from:
Vishnu Khare vishnukhare@gmail.com
to:
Abhishek Srivastava <guru.abhishek@gmail.com>
date:
Mon, Apr 16, 2012 at 7:33 PM
नामदेव ढसाल मराठी कविता के सर्वकालिक बड़े कवियों में है. आज उसका महत्व अपने समय के तुकाराम से कम नहीं, जबकि तुका ने अंततः ईश्वर-भक्ति के ज़रिये कुछ सहना ही सिखाया. सवर्णों ने आज तुका को पूर्णतः को-ऑप्ट कर लिया है. नामदेव ढसाल की क्रांतिकारी दलित कविता ने सारी भारतीय भाषाओँ की आधुनिक दलित कविता को जन्म दिया. उसने सारे दलित ही नहीं, सवर्ण साहित्य को प्रभावित किया और कर रहा है. यह उसका एक अमर योगदान है.
नामदेव ने कोई छः वर्ष पहले एक विश्व साहित्य सम्मेलन किया था जिसमें शायद मुंबई के एक दलित-मराठा माफिया का पैसा भी लगा था. मुझे उसने उसमें तब दिल्ली से “बाइ एअर” और “फाइव-स्टार” बुलाया था. मैंने सार्वजनिक रूप से इनकार किया. अभी इस साल शायद वह उसे दुहराना चाहता है लेकिन अब दिलीप चित्रे नहीं हैं जिन्होंने पिछली बार सब कुछ किया था और अंग्रेजी में अनिवार्य पत्र-व्यवहार भी. इस बार उसने मेरे-उसके मित्र और अनुवादक-कवि-आलोचक चंद्रकांत पाटील की मदद चाही. चंद्रकांत ने उससे कहा कि विष्णु (मैं) मुंबई में ही है, तू उसकी मदद ले. नामदेव बोला कि अरे विष्णु से मैं बात नहीं करूंगा वह कभी करेगा नहीं. जबकि दिल्ली पुस्तक मेले में उसके संग्रह के विमोचन से पहले मंच पर मुझे मुम्बई से उसका अरेतुरे वाला फोन आया था. मराठी में कौन नहीं जानता कि नामदेव शिव-सेना आर.एस.एस. से सम्बद्ध है. लेकिन सब हँसते हैं. कहते हैं नाम्या का कुछ भरोसा नहीं है वो सबको चूत्या बनाता फिरता है, हरेक से सम्बद्ध है और हरेक के विरुद्ध है.
इस टोन और इस भाषा को मराठी में अरेतुरे की भाषा कहते हैं और ये पक्के मराठी मित्रों के बीच चलती है. मुझे महाराष्ट्र और मराठी साहित्य में मानद मराठीवाला समझा जाता है क्योंकि मैं उसे बोल-पढ़ और थोड़ा लिख भी लेता हूँ.
अब जिन्हें इस तरह का कुछ पता नहीं है उनसे ज़िन्दगी में पहली मुलाक़ात में, वह भी हिंदी के एक प्रकाशक की शराब-पार्टी में, जिसमें मैं निमंत्रण के बाद ही पहली बार (अजय कुमार जी के साथ) इसलिए आया कि कुंवर नारायण को विमोचन-पूर्व शमशेर-अंक दे सकूं और नीलेश रघुवंशी का कविता-संग्रह और पहला उपन्यास ले सकूं, ऐसे विषय पर क्या बात करूँ? आप ज़रा अशोक महेश्वरी से पूछिए कि विष्णु खरे पिछली बार राजकमल के ऐसे आयोजन में कब आया था?
मैं मानता हूँ कि अलाहाबाद में पाकिस्तान और पार्टीशन थेओरी का प्रतिपादन करने वाले अल्लामा इकबाल का फिरन निरपराध मुस्लिम-हिन्दुओं के खून से रंगा हुआ है. फिर भी हम उन्हें बड़ा शायर मानते और भारत के अनऑफिशियल, जन-गण-मन से कहीं अधिक लोकप्रिय, राष्ट्र-गीत “सारे जहां से अच्छा” को गाते हैं या नहीं?
आप चाहें तो इसे भी अपने ब्लॉग पर अपने इस नए पत्र के साथ लगा दें.
विष्णु खरे
”ये रहा लिंक”
On 16 April 2012 22:45, Abhishek Srivastava <guru.abhishek@gmail.com> wrote:
Abhishek Srivastava ने आपको एक ब्लॉग का लिंक भेजा है:
ब्लॉग: जनपथ
भेजें: जाहिल इज़रायल विरोधियों को नहीं दिखता ईरान का फासीवाद : विष्णु खरे
लिंक: http://www.junputh.com/2012/04/blog-post.html
”कृपया शेष पत्राचार ब्लॉग पर लगा दें”
On Tue, Apr 17, 2012 at 4:32 PM, Vishnu Khare <vishnukhare@gmail.com> wrote:
अब कृपया हम दोनों के बीच का शेष पत्राचार भी लगा दें. इच्छा न हो तो सूचित करें.
विष्णु खरे
from:
Abhishek Srivastava guru.abhishek@gmail.com
to:
Vishnu Khare <vishnukhare@gmail.com>
date:
Tue, Apr 17, 2012 at 4:37 PM
जी बिल्कुल… रात में लगाऊंगा और आपको सूचित कर दूंगा.. 12 बजे के आसपास…
अभिषेक .
और अंत में, रात 8:48 बजे विष्णु खरे का मेल आया जिसका विषय लिखा था murdering sanskrit और मैसेज कुछ यूं था गोया विष्णु जी खुद को सिंह बता रहे हों जो मूर्खों को अपना आहार बना लेता है:
मात्र पाणिनि नाम रख लेने से कोई मूर्ख संस्कृत का ज्ञाता नहीं हो जाता. किसी सिंह का आहार अवश्य बन सकता है.
खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति
विष्णु खरे का इशारा पाणिनी आनंद की वेबसाइट www.pratirodh.com की तरफ था जिस पर उन्होंने विष्णु जी और मेरी जवाबी चिट्ठी निम्न शीर्षक से लगाई है
यह मेल उन्होंने मुझे कॉपी किया है और पाणिनी को भेजा है।
खरवा सबको चूत्या बनाता फिरता है, इसलिए उसके लेफ्टिस्ट होने पर मुझे कोई एतराज़ नहीं…! उसके बारे में एक बुज़ुर्ग लेखक बोलता है : वो ऐसा शै है- जो किस को काटा नहीं और जो किस्को काटा नहीं….!!
एरर करेक्शन : जो किसको काटा नहीं और जो किसको चाटा नहीं…!
काटने और चाटने के महारथियों की कला के सामने तो 'नामदेव' बच्चा है.
Why this all discussion, just to prove yourselves bigger or best whatever. I couldn't understand why this "Vishnu" or Abhishek are fighting on baseless issue, Peoples knows the contribution of both in lieu of societal change. so kindly if you both are serious then kindly try to divert your sharp thinking towards some change in the life of commons.
With thanks
प्रिय अभिषेक जी
आपके ब्लाॅग पर ग्रास की कविता के बहाने चल रही बहस को पढ़ा। पढ़ कर अच्छा लगा कि यह बहस सार्वजनिक होने से पता चलता है कि ऐसे नामी गिरामी लेखक पुरोधा दरअसल क्या सोचते हैं। एक बार लिख जाने के बाद यह उसे नकार नहीं सकते। यह सच है कि किसी आदमी को समझने के लिए जरूरी है कि उसे नकाब दर नकाब उठा कर देखा जाए। (याद करिये-हरेक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी. किसी को जानना हो तो कई बार देखो)। यह अलग बात है विष्णु खरे जैसे पुरोधाओं को हम लोगों ने एक दो नहीं सैकड़ों बार देख लिया है। मुझे लगता है कि ये लोग अपना सर्वोत्तम लिख चुके हैं और इन्हंे किसी म्यूजि+यम की वस्तु हो जाना चाहिए। नहीं तो मोहभंग इतना अधिक होता है कि हमें नए सिरे से सबकुछ नकारने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझता।
जहां तक राजनीतिक सोच का सवाल है इज+राइल के विरोध की बात करने वालों को जाहिल बताने वाले दरअसल अपने ठस दिमाग का परिचय देते हैं। दरअसल अब इनकी सोच का प्रवाह रुक सा गया है। और ठहरे हुए जल में सड़ांध आ ही जाती है। इन्हंे अमरीकी-इज+रायली साम्राज्यवाद और ईरान के फासीवाद में फर्क करना नहीं आता। यहीं पर ग्रास की बात ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है कि अब वक्त आ गया है कि सच कहा जाए।
अभिषेक बातंे बहुत सी हैं। पर प्रतिक्रिया की अपनी सीमा है। कभी विस्तार से लिखूंगी। हां चलते-चलते एक बात और। हालांकि मैं विषयांतर नहीं करना चाहती। पर बिना कहे रहा नहीं जाता। आपने विष्णु जी के साथ बातचीत में एक जगह धूमिल के कोट किया है-जहां पूंछ उठायी……। मैं आपको बता दूं कि मैं कुछ भी होने से पहले एक मादा हूं और इसके लिए मुझे कतई अफसोस नहीं है। इस कविता के लिए मैं धूमिल को कभी माफ नहीं कर सकती। आप औरतों के प्रति अपनी इस सोच से उबर जाएं तो शायद आपकी राजनीतिक तीक्ष्णता में और धार आ जाएगी। वैसे भी मेरे ख्याल से किसी की भी राजनीतिक सोच क्या है इसका लिटमस टेस्ट होता है औरतों (या कहें मादा के प्रति) के प्रति उसकी सोच से।
बहरहाल ब्लाग में छिड़ी इस तरह की बहसों से यह उम्मीद बनी हुयी है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ। आप चलिये कारवां बढ़ेगा निश्चित…..
कृति