कहानी तीन गांवों की : पहली किस्‍त


अभिषेक श्रीवास्‍तव 


बचपन में सुदर्शन की लिखी एक कहानी पढ़ी थी हार की जीत। घटनाओं के विवरण छोड़ दें तो बाकी सब याद है। इसमें एक पात्र था बाबा भारती जिसके पास सुलतान नाम का एक बांका घोड़ा हुआ करता था। एक बार सुलतान पर डाकू खड़गसिंह का दिल आ गया। उसने राह में एक अपाहिज का भेस धरकर बाबा भारती का घोड़ा छीन लिया। इसके बाद बाबा भारती ने उससे एक बात कही थी कि वह चाहे तो घोड़ा ले जाए, लेकिन बदले में वचन दे कि इस घटना का जि़क्र किसी से नहीं करेगा क्योंकि ऐसा करने से गरीब अपाहिजों पर से लोगों का भरोसा उठ जाएगा। इस कहानी की इकलौती यही बात मुझे आज तक याद है। शायद इसीलिए कुछ चीजों के मामले में एक विशुद्ध नैतिक आग्रह लगातार मन के भीतर बना रहता है। शायद यही वजह रही होगी कि मध्यप्रदेश के घोघलगांव से लौटने के दो हफ्ते बाद तक रोज़ चाह कर भी अपना यात्रा संस्मरण मैं नहीं लिख पा रहा था। यह ठीक है कि मैंने न तो किसी को ऐसा वचन दिया है, न ही मुझसे किसी बाबा ने ऐसा कोई वचन लिया है। इसलिए कहानी तो मैं कहूंगा।
अगस्‍त के आखिरी सप्‍ताह में वायरल हुई घोघलगांव की यह तस्‍वीर 

यह कहानी तीन गांवों की है। मैंने ऊपर घोघलगांव का नाम अकेले इसलिए लिया क्योंकि दुनिया के संघर्षों के मानचित्र पर अब यह परिचित हो चला है। याद करिए कि अगस्त के आखिरी हफ्ते में एक तस्वीर बड़े संक्रामक तरीके से फेसबुक से लेकर अखबारों और चैनलों समेत हर जगह फैल गई थी। इसमें कुछ ग्रामीणों को बांध के पानी में खड़ा दिखाया गया था। वे बांध की ऊंचाई को कम करने की मांग कर रहे थे। मामला ओंकारेश्वर बांध का था और जगह थी मध्यप्रदेश का खंडवा जिला। भारी जनसमर्थन उमड़ा। ऑनलाइन पिटीशन चलाए गए। मानवाधिकार आयोग को पत्र भेजे गए। 10 सितम्बर को हमें बताया गया कि ग्रामीणों की जीत हुई है। इसके दो दिन बाद हरदा जिले के एक गांव की बिल्कुल ऐसी ही तस्वीरें प्रचार माध्यमों में वायरल हो गईं। यहां मामला इंदिरासागर बांध की ऊंचाई का था। 12सितम्बर की रात यहां पुलिस का दमन हुआ। ग्रामीणों की कोई मांग नहीं मानी गई। उन्हें जबरन पानी से खींच कर बाहर निकाला गया, ऐसी खबरें आईं। इन दोनों घटनाओं को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर छपी, रियलिटी बाइट्सः खंडवाज़ मेड फॉर टीवी प्रोटेस्ट जिसमें घोघलगांव के आंदोलन को फर्जी और टीवी पर प्रचार बटोरने के उद्देश्य से गढ़ा हुआ बताया गया था। (http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-09-15/india/33862213_1_water-jal-satyagrah-agitators) ठीक तीन दिन बाद 18 सितम्बर को नर्मदा बचाओ आंदोलन की चित्तरूपा पलित के हवाले से उपर्युक्त रिपोर्ट का खंडन इसी अखबार में छपा कि खंडवा का आंदोलन टीवी प्रचार के लिए नहीं था। (http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-09-18/india/33925092_1_omkareshwar-dam-jal-satyagraha-water-level) खंडन के जवाब में 15 सितंबर की रिपोर्ट लिखने वाली पत्रकार सुचंदना गुप्ता ने अपने अनुभव का हवाला दिया और अपने निष्कर्षों पर अड़ी रहीं। ज़ाहिर है गुप्ता की खबर का चारों ओर असर हुआ था।
एक आंदोलन के खंडन-मंडन का यह सिलसिला अंतहीन सा दिखता था जिसमें सत्य और तथ्य सब धुंधले हो चुके थे। ऐतिहासिक और अभूतपूर्व सा दिखने वाला एक विरोध प्रदर्शन छोटी सी अखबारी रिपोर्ट के बाद इस तरह चिंदी-चिंदी हो जाएगा, अपने सरोकार के लिए लड़ रहे ग्रामीणों की विश्वसनीयता इस तरह अचानक खतरे में पड़ जाएगी, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। पत्रकार सुचंदना गुप्ता के दावे ग्रामीणों से उनकी बातचीत और गांव के दौरे पर आधारित थे। इसे यूं ही नहीं जाने दिया जा सकता था। इसके उलट 17 दिनों तक पानी के भीतर खड़े रह कर अपनी चमड़ी गलाने वाले ग्रामीणों को इतने सस्ते में बदनाम हो जाने देना भी ठीक नहीं था। सच जानने का एक ही तरीका था कि उन गांवों में खुद पहुंचा जाए जहां जल सत्याग्रहहुआ था। शायद यही सोच लिए हम 28 सितम्बर की सुबह इंदौर पहुंचे। हम यानी मैं और मेरे साथी राहुल कुमार, जो इकनॉमिक टाइम्स के पत्रकार हैं। हमें सबसे पहले घोघलगांव पहुंचने की बेचैनी थी, लेकिन विडंबना देखिए कि तकनीकी कारणों से अपनी यात्रा के आखिरी दिन ही हम वहां पहुंच सके। अब लगता है कि एक लिहाज से यह ठीक ही रहा क्योंकि चीज़ों को समझने की ज़मीन तब तक तैयार हो चुकी थी। यह ज़मीन हालांकि अपनी नहीं थी।
किशोर कुमार की अड़ी: खंडवा में पोहा-जलेबी की लालाजी की दुकान 

इंदौर में एक दिन बिताकर हम 29 सितम्बर की शाम बस से खंडवा पहुंचे। वहां पहुंचने पर पता चला कि घोघलगांव आधे रास्ते में सनावद के पास ही छूट गया था। यानी घोघलगांव से हम करीब अस्सी किलोमीटर आगे थे जबकि हरदा की दूरी ठीक उलटी दिशा में करीब 130किलोमीटर है। दूरियों का हिसाब लगाते हुए हमने सबसे पहले हरदा जाने की योजना बनाई क्योंकि वहां से लौटती में हरसूद को देखना भी संभव हो पाता। एक स्थानीय अखबारी जीव के साथ 30सितम्बर की सुबह खंडवा की मशहूर जलेबी और पोहा खाने के बाद हम निकल पड़े हरदा के खरदना गांव की ओर, जहां जल सत्याग्रहनाकाम रहा था। हमें अखबारों ने बताया था कि यहां पुलिस ने आधी रात 200 ग्रामीणों को पानी में से उठा लिया था। खंडवा से हरदा के रास्ते में दिखने वाली दो चीज़ों से आप इस इलाके की सामाजिक-आर्थिक हैसियत का पता लगा सकते हैं। पहली सोयाबीन की फसल है जो सड़क के दोनों ओर धरती पर पीली चादर की तरह बिछी हुई थी। सोया के अलावा और कोई फसल ऐसी नहीं थी जिस पर हमारा ध्यान बरबस चला जाता। हमें खेतों में विशाल हारवेस्टर दिखे। एकाध सड़क पर भी दौड़ रहे थे। उन पर पंजाब या हरियाणा की नंबर प्लेट थी। पता चला कि यह सोया की कटाई का मौसम है। ये हारवेस्टर मालिक पंजाबी हैं जो यहां कटाई के एवज में आम तौर पर पैसे की जगह सोया ही वसूलते हैं। दस बोरे की कटाई पर हारवेस्टर मालिक को एक बोरा सोया मिल जाती है। चूंकि कटाई हारवेस्टर से होती है, तो यहां के किसानों के पास रकबा भी ज्यादा है। उत्तर प्रदेश और बिहार या उड़ीसा के नज़रिये से देखें तो यहां के किसान बहुत बड़े नज़र आएंगे क्योंकि औसत जोत 50-70 एकड़ की है जिनमें सिर्फ नकदी फसलें होती हैं।


हरदा का ऐतिहासिक घंटाघर 
बहरहाल, हरदा में प्रवेश का पता शहर में मौजूद एक ऐतिहासिक घंटाघर देता है। इस पर तारीख लिखी है 15 अगस्त 1947 और यहां से हमें करीब 30 किलोमीटर और भीतर जाना है। कुछ देर के बाद हमारी रफ्तार कम हो जाती है। हम स्टेट हाइवे से प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत बनी एक संकरी सड़क पर आ जाते हैं। सड़क पक्की है, बीच-बीच में हिचकोले हैं और कहीं-कहीं चार दिन पहले हुई बारिश के निशान मौजूद हैं। करीब 25 किलोमीटर बाद रास्ता कच्चा है। लगता है हम गांव में आ गए। आबादी की शुरुआत का पता देता एक हैंडपम्प और एक छोटी सी गुमटी है जहां चार-पांच लोग बैठे हैं। पूछने पर पता चलता है कि यही गांव खरदना है। हमारे साथ मौजूद एक स्थानीय टीवी पत्रकार पहले यहां आ चुके हैं। वे सरपंच के लड़के को फोन लगाते हैं, तब तक हम वहां मौजूद लोगों को अपना परिचय देते हैं। गांव भीतर की ओर बिल्कुल उजाड़ दिख रहा है। पता चलता है कि अधिकतर लोग आज सोया की कटाई में गए हुए हैं। यहां मौजूद एकाध युवक हमें उस जगह लिए चलते हैं जहां सत्याग्रह हुआ था।

आंदोलन की राख: हरदा का खरदना गांव 
‘‘यहीं बैठते थे हम लोग रात-रात भर’’, नीम के पेड़ के नीचे एक बुझे हुए चूल्हे की ओर इशारा करते एक अधेड़ बताते हैं। पेड़ के ठीक सामने से जो महासागर शुरू होता है, उसका ओर-छोर नहीं दिखता। इसी के भीतर 29 गांव डूब चुके हैं या टापू बन गए हैं। वहां तक सिर्फ नाव से जाया जा सकता है। जहां पानी शुरू होता है, वहां दो भैंसे नहा रही हैं और कुछ दूरी पर एक झंडा पानी में खड़ा है। ‘‘लाल झंडा? ये क्या है?’’ सहसा मैंने पूछ लिया। अधेड़ ने बताया, ‘‘यहीं हम लोग खड़े होते थे। ये आंदोलन की निशानी है।’’ मैंने जिज्ञासावश बात आगे बढ़ाई, ‘लाल ही क्यों? नीला क्यों नहीं? किसने बताया कि लाल झंडा लगाना है?’’ एक शहरी हो चुके दिमाग के लिए उसका जवाब अप्रत्याशित और अकल्पनीय था, ‘‘नर्मदा का पानी है न ये… मां नर्मदा। हम लोग नर्मदा को माता मानते हैं, इसीलिए लाल रंग है।’’

खरदना में जल सत्‍याग्रह स्‍थल जहां बस एक लाल झंडे की निशानी बाकी है  
मां नर्मदा के अविकल बहाव में सरकार ने एक दीवार खड़ी कर दी थी। इसी दीवार को नर्मदा सागर बांध या इंदिरा सागर बांध कहते हैं। जब तक दीवार की ऊंचाई आड़े नहीं आई थी, नर्मदा से सिंचित इस ज़मीन का सारा सुख अब तक की तमाम पीढि़यों ने भरपूर भोगा। अचानक एक दिन सिर्फ एक मीटर के अनकहे खेल ने 300गांवों को अपनी जद में ले लिया। नौजवान सुनील राठौर यहां के आंदोलन के नेता हैं। उनकी चमचमाती बाइक के आगे उनकी बिटिया राधिका का नाम लिखा है। एक सधे हुए नेता की जबान में वे बताते हैं, ‘‘बिना मुनादी के बांध की ऊंचाई इन्होंने बढ़ा दी। डूब क्षेत्र में 300गांव आते हैं। 29गांव डूब गए। चूंकि यहां प्रभावित गांवों की संख्या ज्यादा हैं, इसलिए सरकार ने हमारी मांगें नहीं मानीं। घोघल में कम गांव डूब क्षेत्र में हैं, तो वहां झुनझुना थमा दिया।’’ पहली बार मैंने ध्यान से सभी चेहरों को देखा। सबके हाथ में मोबाइल है। नौजवानों के पास मोटरसाइकिल है। सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा नौजवान नौवीं पास है क्योंकि यहां से इंटर कॉलेज 35 किलोमीटर दूर है। और किसी के पास कोई काम नहीं। ‘‘नरेगा में काम मिलता है या नहीं?’’ कोई जवाब नहीं। अधिकतर युवाओं को नरेगा के बारे में नहीं पता। हां, एक की जेब में नया-नया यूआइडी कार्ड ज़रूर चमक रहा है। वह उसे आज ही मिला है। उसे नहीं पता इसका क्या करना है, लेकिन जेब से बाहर निकला इसका एक हिस्सा शायद उसकी पहचान में इजाफा कर रहा है।

कटाई के सीज़न में खाली हाथ खरदना के नौजवान 

हमने सुनील से पूछा, ‘‘क्या समस्या है आपकी? आखिर पानी में खड़े होने की नौबत क्यों आ गई? इतना संपन्न गांव तो है आपका?’’ सुनील बोले, ‘‘जब हमारा आंदोलन हुआ, तब जाकर भैंसवाड़ा में 15-17 घरों के 140 लोगों को बाहर निकाला गया। उनकी ज़मीनों को अभी भी नहीं लिया गया है। वह आज भी वैसी ही पड़ी है। अब वे परिवार कहां जाएंगे सर? हम वैसे ही मर रहे हैं, अब नहीं लड़ेंगे सरकार से तो क्या करेंगे?’’ सरकार ने घोघलगांव में तो मांगें मान ली हैं। खरदना के लोगों से उसे आखिर क्या दिक्कत है? सुनील कहते हैं, ‘‘सर, कांग्रेसियों ने हमारी मदद की थी, हो सकता है इसलिए…।’’ हमने विस्तार से जानना चाहा। सुनील बोलते गए, ‘‘जैसे… भूरिया जी यहां आए थे (कांतिलाल भूरिया)। जिस दिन हमारा सत्याग्रह समाप्त हुआ था, उस दिन उनके यहां आने का समय 10 बजे तय था। इसके पहले प्रशासन ने हम लोगों को दस, साढ़े दस बजे उठा लिया। भूरिया जी को तो प्रशासन ने यहां से नौ किलोमीटर पहले रातातलाई में रोक दिया। वहां से भूरिया जी पैदल आए, लेकिन हम लोगों के निकाले जाने के बाद।’’ उसने बताया कि कांतिलाल भूरिया ने यहां आकर  आश्वासन दिया था कि चूंकि गांव वाले कानून के मुताबिक लड़ रहे हैं, इसलिए उनकी सभी मांगें मानी जानी चाहिए। एक युवक ने बताया कि कांग्रेस के अजय सिंह भी यहां आए थे। सबने हामी में सिर हिला दिया।
बीच-बीच में सुनील और उनके साथी नाव वाले को फोन लगाते रहे ताकि वे हमें डूब क्षेत्र दिखा सकें। बात नहीं बनी, तो वे हमें लेकर गांव के भीतर चल दिए। सुनील राठौर के पिता इस गांव के सरपंच हैं और यहां के आंदोलन के प्रणेता। हालांकि गांव के स्तर पर कोई कमेटी या संघर्ष समिति जैसा कुछ भी नहीं बना है। यहां की लड़ाई नर्मदा बचाओ आंदोलन के बैनर तले ही चल रही है। लोग बातचीत में बार-बार किसी आलोक भइयाका नाम ले रहे थे। हमने पूछा कि क्या मेधा पाटकर यहां आंदोलन के दौरान आई थीं। लोगों ने बताया कि यहां ‘‘सुप्रीम कोर्ट की बड़ी वकील’’ चित्तरूपा पलित मौजूद थीं और आलोक भइयाभी थे। कौन आलोक भइया? ‘‘आलोक अग्रवाल, एनबीए वाले’’, सुनील ने बताया। वह हमें अपने घर ले गया। उसके पिता घर में नहीं थे, लेकिन हमें वहां देखकर करीब पचासेक गांव वाले इकट्ठा हो गए। बाहर के कमरे में रखा टीवी, फ्रिज उसे ड्राइंग रूम की शक्ल दे रहा था। हाथ-मुंह धोकर हम पानी पीने लगे, तो सबसे बुजुर्ग दिख रहे एक व्यक्ति ने जनरेटर चलाने के लिए किसी से कहा। हमने मना कर दिया, लेकिन प्रस्ताव दिलचस्प था। ‘‘लाइट कब आती है’’, हमने पूछा। पता चला कि 4 सितम्बर से बिजली गायब है। महीना भर होने को आया, प्रशासन बिजली काटे हुए है और वजह यह बताई गई है कि पानी में बिजली का तार गिर कर करेंट फैला सकता है। यानी महीने भर से टीवी की खबरों से दूर? सुनील बोले, ‘‘हां, पता ही नहीं चल रहा कहां क्या हो रहा है? यहां जो लोग पानी में खड़े थे उनमें एक की महामारी से मौत हो गई। कहीं कोई खबर नहीं आई।’’
सरपंच के बेटे सुनील राठौर (सबसे बाएं) के साथ खरदना के गांव वाले 

हमने 62 वर्षीय बुजुर्ग से जानना चाहा कि उनकी लड़ाई किस बारे में है। उनका नाम बोंदार बडि़यार था। वे बोले, ‘‘इस गांव में कभी कोई दिक्कत नहीं थी। खूब सिंचित जमीन है। सोया, कपास, तुअर सब उगता है। खूब पैसा है। दिक्कत यह हो गई कि बिना मुनादी किए बांध की ऊंचाई 260 से 262 कर दी गई और डूब क्षेत्र में आने वाले गांवों की जमीन पहले से नहीं ली गई। नतीजा यह हुआ कि रबी की फसल डूब गई। खरीफ का समय आने तक ज़मीन दलदली रहती है जिससे इस मौसम में खेती करना भी मुश्किल होता है। यह लगातार हो रहा है। फिर हमारे बीच नर्मदा बचाओ वाले लोग आए। उन्होंने हमें सिखाया कि कैसे लड़ना है…।’’ बीच में सुनील ने टोका, ‘‘हां, बिल्कुल अहिंसावादी लड़ाई। हम लोग एनबीए के लिए समर्पित हैं सर। और हम लोग अन्ना हजारे जी और अरविंद केजरीवाल जी के साथ भी हैं।’’ राहुल ने पूछा, ‘‘लेकिन वे दोनों तो कब के अलग हो गए?’’ ‘‘पता नहीं सर, महीने भर से बिजली गायब है, क्या मालूम। लेकिन हम लोग उनके साथ हैं।’’ हमने बुजुर्ग से पूछा, ‘‘पानी में 17 दिन खड़े रहने के बाद लड़ाई पर कोई फर्क पड़ा है क्या?’’ ‘‘हां, सुप्रीम कोर्ट में केस हो गया है।’’ केस तो पहले भी चल रहा था? फिर इस जल सत्याग्रह से लड़ाई के तरीके और अंजाम पर क्या फर्क पड़ा? सवाल को सुनील ने लपक लिया, ‘‘लड़ाई पहले भी कानूनी थी, अब भी कानूनी ही है। हमें सिर्फ मुआवजा चाहिए।’’ कुछ लोगों ने उसकी हां में हां मिला दी। ‘‘फिर मुआवजे के बाद?’’ सामने बैठे एक अधेड़ से मैंने पूछा। ‘‘कुछ नहीं..’’, बीच में टोकते हुए सुनील बोले, ‘‘लड़ेंगे न! उसके बाद भी सच्चाई के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे। पहले जमीन के बदले जमीन दो, नहीं तो सही मुआवजा दो, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने कहा है।’’
बात चल पड़ी थी, लेकिन बीच में हलवा आ गया। फिर चाय भी आ गई। आटे का हलवा शुद्ध घी में डूबा हुआ था। शहरी पेट के लिए इसे पचा पाना ज़रा मुश्किल था। इस बीच सुनील जबलपुर हाई कोर्ट के 2009 के आदेश की एक प्रति लेकर आए। ‘‘ये देखिए सर, कोर्ट का ऑर्डर है। जमीन के बदले जमीन।’’ मैंने पूछा, ‘‘ये कहां से मिला?’’ वे बोले, ‘‘है न सर, सब डॉक्युमेंट है। चित्तरूपा पलित जी बड़ी वकील हैं। वही हमारा केस लड़ रही हैं। हम सब लोग एनबीए के साथ हैं। पापा नहीं हैं वरना वे सारा केस आपको समझाते।’’ हलवा खत्म हो चुका था। प्लेट में सिर्फ घी बचा था। मैंने आखिरी सवाल पूछा, ‘‘अब आप लोगों के हाथ-पैर ठीक हैं?’’ कुछ लोगों ने जवाब में पैर सामने कर दिए, ‘‘हां, ठीक हो रहा है। दवा किए न, सबको रोज़ मरहम-पट्टी होता था।’’ उठते हुए मैंने फिर पूछा, ‘‘तब? आगे की रणनीति क्या है?’’ सामने सफेद शर्ट और धोती में काफी देर से शांत बैठे एक शख्स बोल उठे, ‘‘सर, सच बताएं, हम लोग पुलिस की लाठी से डर गए हैं। गांव में पहली बार पुलिस आई थी। हम सब डरे हुए हैं।’’ मैंने सबकी आंखों में देखना चाहा। कुछ में मौन सहमति थी। कुछ उठने को बेचैन दिखे। सुनील उस वक्त भीतर गया हुआ था शायद प्लेट रखने!
इंदिरा सागर बांध के डूब में आए 29 गांवों का विहंगम दृश्‍य 

जाते-जाते गांव के बुजुर्ग हमसे मंदिर चलने का आग्रह करने लगे। काफी देर हो चुकी थी, लेकिन मना करना ठीक नहीं लगा। एक टेकरी के ऊपर प्राचीन मंदिर था जिसमें दुर्गा की गोद में गणेश विराजे थे। यह प्राचीन मूर्ति थी। गांव वालों ने उसके ठीक सामने एक भव्य मंदिर बनवा दिया था और बिल्कुल वैसी ही प्रतिमा की नकल संगमरमर में ढाल कर वहां स्थापित कर रखी थी। हमने जानना चाहा कि प्राचीन मूर्ति को ही क्यों नहीं नए मंदिर में स्थापित किया गया या फिर मूल स्थल पर ही मंदिर क्यों नहीं बनवा दिया गया। कोई साफ जवाब नहीं मिल सका। हां, यहां आना इस लिहाज से सार्थक रहा कि मंदिर की छत पर खड़े होकर समूचे डूब क्षेत्र को एक बार में देखा जा सकता था। ऐसा लगा गोया हम खुद किसी टापू पर खड़े हों। चारों ओर पानी और जंगल के सिवा कुछ नहीं था। शाम धुंधला रही थी। हमारे साथ जो दो स्थानीय पत्रकार आए थे, वे जल्दी निकलने का आग्रह कर रहे थे क्योंकि अगला गांव काफी दूर था।

धारा 144 का शासनादेश

लौटते वक्त आंगनवाड़ी की दीवार पर धारा 144 का शासनादेश चस्पां दिखा। गाड़ी रुकवा कर हमने तस्वीर उतार ली। तारीख पड़ी थी 11 सितम्बर। उसी के अगले दिन यहां आंदोलन टूटा था, कांतिलाल भूरिया आए थे और एनबीए के लोग व छिटपुट पत्रकार आखिरी बार देखे गए थे। पिछले बीस दिन से यहां कानून का राज है और बिजली गायब है। जिनके लिए धारा 144 लगाई गई थी, उन्हें भी कानून पर पूरा भरोसा है। एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि चित्तरूपा पलित की अंग्रेज़ी बड़ी अच्छी है, वे सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा ज़रूर जीत जाएंगी। (क्रमश:) 

दूसरी किस्‍त
तीसरी किस्‍त
चौथी किस्‍त
पांचवीं किस्‍त
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2 Comments on “कहानी तीन गांवों की : पहली किस्‍त”

  1. आप पत्रकार है और आप ऐसा मुद्दा कवर कर रहे है जो भारत की जनता से सीधा संबंध रखता है …आप वैचारिक रूप से आम जनता से ज्यादा विकसित होते है और आम जनता आपसे निष्पक्ष होकर सत्य की आशा में नजरे जमाये रहती है …आपका यह प्रयास साहसिक और प्रसंशनीय है …… शायद आपकी वजह से हम सत्य को अच्छी तरह से जान पाए क्योकि और कोई माध्यम नही है …..उम्मीद करते है बाकि का वृतांत जल्द ही मिलेगा /आपके आभारी है

  2. आप पत्रकार है और आप ऐसा मुद्दा कवर कर रहे है जो भारत की जनता से सीधा संबंध रखता है …आप वैचारिक रूप से आम जनता से ज्यादा विकसित होते है और आम जनता आपसे निष्पक्ष होकर सत्य की आशा में नजरे जमाये रहती है …आपका यह प्रयास साहसिक और प्रसंशनीय है …… शायद आपकी वजह से हम सत्य को अच्छी तरह से जान पाए क्योकि और कोई माध्यम नही है …..उम्मीद करते है बाकि का वृतांत जल्द ही मिलेगा /आपके आभारी है

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