हिंदुत्‍व की सांस्‍कृतिक गुलामी से आज़ादी का रास्‍ता पेरियार ललई सिंह से होकर जाता है


आज उत्तर भारत के पेरियार ललई सिंह यादव (1 सितंबर 1911 से 7 फरवरी 1993) जी की जयंती है। अपने लिए, अपनी बहुजन-श्रमण संस्कृति के लिए चौधरी साहब के द्वारा किये गये कार्यों को याद करते हुए अपने भी कुछेक संस्मरण साझा करने की इच्छा हो रही है।

मैं बौद्धिक रूप से तथागत बुद्ध, सच्ची रामायण और आंबेडकर, फुले, ओशो से बचपन से ही जुड़ गया था। स्कूल जाते समय और स्कूल से आते समय अक्सर मंदिर और ग्रामीण पूजास्थल रास्ते में पड़ते थे। मैं और मेरे छोटे भाई ने पता नहीं कितनी बार मूर्तियों को बचपन में तोड़ा है। मंदिर में चढ़ाये गये पैसे अपनी जेब में डाले हैं और गरी, नरियर, मिठाई का भोग लगाया है। टोटके के रूप में किसी तिराहे पर सेंदुर, टिकुली, लाल कपड़ा चढ़ाया हुआ मिला तो वहां से अपने काम की मिठाई, नरियर और पैसे उठा लिए हैं और अम्मा के लिए टिकुली भी। बस होता यह था कि बताना पड़ता था कि उस टिकुली को हम ‘गपोली चुड़िहार’ या ‘मिट्ठू दादा’ के यहाँ से लाये हैं। एक बार तो मुरका फैक्टरी के बगल से एक सीसा, चाकू उठा लाये थे। पिता जी बोले कि टिकुली न उठाओ नहीं तो तुम्हारी अम्मा जान जाएगी। उस समय मैं पिताजी के साथ गौहनिया से घर वापस जा रहा था। वो सीसा और चाकू कई साल तक सलामत रहे और घर का काम चलता रहा था।

मध्य प्रदेश के रीवा जिले के एक गाँव में मेरी ननिहाल है। तालाब के किनारे इमली के पेड़ के नीचे वहां पर गांव की देवी माई को विराजमान किया गया था। एक बार हुआ यूं कि मैं, मेरा छोटा भाई अभिलाष और भैया (मेरे मामा के लड़के) वहीं पेड़ के नीचे खड़े हुए थे। मैं और मेरा भाई दोनों लोग चप्पल पहने थे जबकि बाकी लोग चप्पल, जूते बाहर निकाले हुए। हुआ यूं कि कि बात-बात में ही  भैया ने कहा कि अगर तुम्हारे में इतनी हिम्मत है तो सामने रखे पत्थर की पिंडी पर थूक दो। यहीं से बात शुरू हुई और आखिर में अभिलाष ने थूका ही नहीं बल्कि वहां पर रखी हुई मूर्ति के ऊपर पेशाब किया और सारे के सारे पत्थरों को उठाकर तालाब में डाल दिया। इसके बाद वहां से हम लोग चले गये। जब इस घटना का पता मामा, नाना और नानी सहित ननिहाल के लोगों को चला तब तक लोग काफी काफी डर गये थे लेकिन हम लोगों को कभी कुछ नहीं हुआ।

अब मैं सोचता हूं कि शायद इसका श्रेय ललई सिंह यादव की पुस्तकों को ही जाता है जो हमने बचपन में पढ़ रखी थीं। कई बार अपने अध्यापकों से वाद-विवाद में हम उन किताबों का जिक्र किया करते थे। यह तो स्पष्ट है कि एक बार ई. वी. रामासामी नायकर, ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, बाबू जगदेव कुशवाहा ऐसे लोगों के बारे में सुन लेने मात्र से ही तमाम दिमागी गोबर-कचरे बाहर हो जाते हैं। यह अभी उतना ही सत्य है कि जो व्यक्ति इन नामों के बारे में, इनके व्यक्तित्व के बारे में थोड़ा सा भी जानता होगा वह सामाजिक सांस्कृतिक गुलामी एवं अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग, आडम्बर, सामाजिक एवं राजनीतिक गुलामी जैसी फालतू की नौटंकियों से कोसों दूर रहेगा। यहां पर मैं ललई सिंह जी के जीवन से एक छोटी सी घटना का जिक्र करता हूँ।

एक बार कानपुर के एक गांव में सत्यनारायण की कथा चल रही थी। पंडित जी कथा कहते हुए बोले कि सत्यनारायण भगवान की कथा की महिमा अपरंपार है। एक बार हुआ यूं कि एक दंपत्ति अपने परिवार के साथ जहाज से समुद्र पार की यात्रा कर रहा था तभी जहाज में एक छिद्र हुआ हुआ और यह छिद्र इतना भयानक था कि देखते-देखते जहाज में पानी भरना शुरू हो गया। लोग परेशान हो गये कि कैसे बाहर निकलेंगे। यात्रियों में हाहाकार मच गया। तभी यात्रा कर रहा दंपत्ति जो कि भगवान श्री सत्यनारायण की कथा का प्रसाद अपने पास लिया हुआ था, उसने अपनी गठरी खोली और प्रसाद ग्रहण किया तथा अन्य यात्रियों में वितरण किया। देखते-देखते जहाज में पानी अंदर प्रविष्ट होना बंद हो गया और जहाज बच गया।

सत्यनारायण जी की महिमा से कई जीवन काल कवलित होने से बच गये। कहानी आगे बढ़ती कि वहां पर गांव के चौधरी साहब आये और खेत से पत्थर का ढेला उठाकर कथा कह रहे पंडित जी के कमंडल में डाल दिया। घबराते हुए वह बोले- “देखिए पंडित जी, अब मिट्टी पानी में डूब रही है, इसको अब निकालिए नहीं तो आपका पानी खराब हो जाएगा। यह मिट्टी भी खराब हो जाएगी।“ पंडित जी समझाते हुए डांटने की मुद्रा में खड़े हुए और बोले कि पागल हो गए हो क्या?  यह डूबती हुई मिट्टी हम बाहर कैसे निकाल सकते हैं? तभी चौधरी बोले- “पागल हम नहीं, पागल तुम हो गये हो और लोगों को भी पागल बना रहे हो। जब लोहे का बना हुआ जहाज पानी में तैरा सकते हो तो इस मंत्र के दम से आप मिट्टी का टुकड़ा डूबते हुए पानी से बचा नहीं सकते हो?  किसको बेवकूफ बना रहे हो? चौधरी साहब यह कह कर चले गये। लोगों को समझ में आ गया।

उन्होंने पंडितों के पाखण्ड का विरोध किया और यह भी कि फिजूलखर्ची किस तरीके से समाज का नुकसान करती है। किस तरीके से जागरूकता का विरोध करती है। अन्धविश्वास से पैसा, धन, समय, श्रम और संसाधन का नुकसान होता ही है। साथ में बच्चों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। जो भी दूध और पकवान, अपने बच्चों और परिवारजनों सहित रिश्तेदारों के काम आते इन निकम्मों के काम आ जाते हैं और अधिकतर तो जला कर बर्बाद कर दिये जाते हैं।

अब आपने जाना कि चौधरी कौन थे? इनका पूरा नाम था चौधरी ललई सिंह यादव। चौधरी साहब इसी तरीके से लोगों को जागरूक करते रहते थे। इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे संस्मरण चौधरी साहब से जुड़े हुए हैं जहां व्यावहारिक तरीके से उन्होंने सफल समाज सुधार किया। सबसे दिलचस्प यह था जब एक बार कुछ लोगों ने उनको मारने के लिए घेर लिया और उन लोगों के पास हथियार भी थे। उन लोगों को सुनाते हुए चौधरी साहब ने कहा कि हम तो तोपों की गड़गड़ाहट के बीच में खेलते रहे। तुम क्या तमंचा जैसे खिलौने दिखा रहे हो? जाओ बच्चों को पढ़ाओ और आगे बढ़ो। इन फालतू के कामों में समय मत बर्बाद करो नहीं तो तुम तो बर्बाद रहोगे ही। बच्चों के लिए भी गुलामी की इबारत लिखते रहोगे।

ललई सिंह जी ने अपने वक्तव्य, कृतित्व, रचना, और प्रयासों से हजारों साल की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गुलामी से मुक्ति का रास्ता प्रशस्त किया। 80 और 90 के दशक तथा इक्कीसवीं सदी में उनके वारिसों ने उसके खिलाफ जाते हुए पूरी तरह से उस सामाजिक आंदोलन एवं जन जागरूकता के लंबे कार्यक्रम को रोक सा दिया है। वह चाहे बहुजन समाज पार्टी हो, बामसेफ हो, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेकुलर या अन्य सामाजिक संगठन हों। अपने कार्यों को पूरी ईमानदारी के साथ इन्होंने नहीं किया है और न ही कर रहे हैं। ये दिमागी गुलामी से ग्रसित मालूम होते हैं। अधिकांश राजनेता अंधविश्वास एवं मूर्तियों के आगे, पत्थरों के आगे चिलमधारी, चुटियाधारी, लोटाधारी, इच्छाधारी, बलात्कारी, जाने कितने कितने धारी अधारी बाबाओं के सामने बेबस नजर आते हैं और कई बार उनकी गुलामी करते हुए नजर आते हैं। ऐसे में पढ़े लिखे एवं जागरूक लोगों का ही कर्तव्य बनता है कि वह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझें और जन जागरूकता, फिजूलखर्ची जैसे सवालों को लोगों के सामने सहज तरीके से रखें।

मात्र सहज तरीके से रखने से ही काम नहीं चलेगा। इसको साहस के साथ भी करना पड़ेगा। हमें इस काम के लिए सीख मिलेगी तथागत गौतम बुद्ध की परंपरा से चले आ रहे नागार्जुन, सरहपाद और मछेन्द्रनाथ के प्रग्योपाय जीवन दर्शन से, गोरखनाथ, संत कबीर, रैदास, जोतीराव फुले से लेकर ललई सिंह यादव, जगदेव प्रसाद कुशवाहा जैसों के आंदोलनों से। इसके लिए हमारे अंदर निडरता, आत्मविश्वास एवं सम्यक जागरूकता का होना बहुत आवश्यक होता है। साथ ही किसी के बहकावे या साजिशों को भी समझते रहना होगा। देखना यही है कि हमारा कार्य हमारे खुद के लिए होगा (जो अक्सर जुगाड़ लगाने जैसे और समझौतापरस्ती जैसे कर्तव्य में परिणत हो जाता है) या कि हमारी भावी पीढ़ी को ध्यान में रखकर हम अपने काम करेंगे। यह भविष्य तय करेगा कि हम कितने ईमानदार हैं, सम्मान के पात्र हैं या कि गाली खाने के अथवा बिसार दिए जाने के।

आज ललई सिंह यादव को याद करते हुए हम यही कहेंगे कि उनके संपूर्ण जीवन वृत्त एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का अध्ययन करें। तदनुरूप अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए जिंदगी जिएं क्योंकि आज हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, जहां भी हैं, उसमें न जाने कितने ललई सिंह यादव और उनके जैसे लोगों की निस्वार्थ मौन सेवा, त्याग और समर्पण शामिल है। यह उम्मीद है कि समता, स्वतंत्रता, न्याय तथा इंसाफ हमारे जीवन में हमारे जीवन में जीवन दर्शन की तरह आएगा जहां पर अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग, अवैज्ञानिकता, फिजूलखर्ची आदि फालतू के कामों के लिए न तो समय होगा और न ही इसकी इच्छा होगी।

आवश्यकता यही है कि अब हम अपनी पीढ़ी को और अन्य संपर्क में आने वाले लोगों को इन व्यक्तियों से परिचित कराएं अन्यथा ब्राम्हण नृशंसता की हिंदुत्व प्रेरित सांस्कृतिक गुलामी से जो आजादी प्राप्त होने की झलक मिली थी, वे उसको बदस्तूर गुलामी में बदलने पर आमादा हैं। ललई सिंह यादव को नमन!


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