अविनाश भाई,

आपका अविकल पत्र आखिर मीडियायुग पर एक टिप्‍पणी के रूप में आया…यह बात समझ में नहीं आई कि आपने जनपथ पर टिप्‍पणी क्‍यों नहीं की, जबकि दोनों ही चिट्ठों पर कमोबेश एक ही वक्‍त मैंने अपना पत्र प्रकाशित किया था। खैर, आपको आपत्ति है कि मैंने मित्रता के तकाज़े से आपको सूचना क्‍यों नहीं दी कि मैंने कोई टिप्‍पणी भेजी है…भाई ऐसा भी कहीं होता है कि टिप्‍पणी करने के बाद आप बताएं कि भइया देख लीजिए, मैंने आपकी आलोचना की है…ठीक लगे तो छाप दें…ये तो आप ही की लीक रही है कि लोगों को फोन कर कहते फिरें कि यार मेरे ब्‍लॉग पर एक कमेंट करिए ना। प्रायोजित टिप्‍पणियों से मोहल्‍ला चलाने का काम आपका हो सकता है…जरूरी नहीं कि हर भाव और शब्‍द प्रायोजित ही हो…कोई टीआरपी थोड़े ही बढ़ानी है मुझे।

दूसरे, पंकज पराशर के ब्‍लॉग से विषवमन करने का ख्‍याल न मेरा था न मैं ऐसा करता…बात सिर्फ ये है कि पंकज ने अपनी स्‍वेच्‍छा से अपने ब्‍लॉग पर भूमिका लिख कर पत्र छाप दिया…ये ज़रूर है कि इस पत्र का जिक्र मैंने उनसे किया था, उन्‍हें भेजा था…लेकिन ऐसी भी क्‍या बात कि हम आपके खिलाफ साजिश करने लगे…साजिश वही करता है जिसके वेस्‍टेड इन्‍टरेस्‍ट होते हैं…चूंकि मेरा और पंकज का पक्ष एक था इसलिए आपको यह गलतफहमी होना जायज़ है।

तीसरी बात, आपने कहा है कि मैंने अपनी आत्‍मप्रशंसा की है पत्र में…यदि वह आत्‍मप्रशंसा ही है तो आपने मेरी निंदा का बिंदु वहां से अपने आप कैसे निकाल लिया कि मुझे इसी विषवमन की वजह से नौकरियों से निकाला गया होगा…। गुरु, कोई भी वैचारिक सहमति-असहमति की बहस व्‍यक्तिगत नैतिकता और अनैतिकता के आख्‍यान के बगैर अधूरी होती है…यह उसी तरह होता है जैसे लग्‍घी से पानी पिलाना…आखिर इंसान अपने ही अनुभवों के प्रति प्रामाणिक हो सकता है, भले ही वह दुनिया भर से सीखे…और अपने कड़वे अनुभव लिखना यदि आत्‍मप्रशंसा है तो फिर शायद आप आज तक लिखा दुनिया का आधे से ज्‍यादा साहित्‍य खारिज कर रहे होंगे…

जहां तक मोहल्‍ले की ओर टहल का सवाल है, आपकी गुजारिश को मानना न मानना मेरे ऊपर निर्भर है…लेकिन आपने एक बात गलत पकड़ ली कि मैंने हरिवंश जी के योगदानों पर कोई सवाल पत्र में नहीं उठाया था…भाषा और तथ्‍यगत रिपोर्टिंग की बात करना प्रकारांतर से एक सार्वजनिक नैतिकता से जुड़े मामले को पॉलिटिकली रिड्यूस कर देना ही है…मुझे पत्रकार होने का कोई भ्रम और गुमान नहीं है, न ही अपनी राजनीतिक और सामाजिक समझ पर कोई दावा है क्‍योंकि मैं अब भी इस बात को महसूस करता हूं कि सत्‍ता और पुलिस के लिए एक फ्रीलांसर और एक संपादक में कोई फर्क नहीं होता…लाल बत्‍ती पर आई कार्ड दिखाकर गाड़ी कुदाने के जुर्माने से बच जाना तय नहीं करता कि आप पत्रकार हैं।

आपको मैंने न वर्ग-शत्रु माना है और न ही कुछ और (जैसा कि आपने खुद ही अंदाज लगा लिया…भाजपाई इत्‍यादि)। आप दोस्‍तों के दोस्‍त बनने के काबिल आदमी हैं…जीवंत हैं…अब भी उत्‍साही हैं…इतना कुछ तो है। उसके बावजूद मुझे लगता है कि हमें इस बात पर सहमत हो जाना चाहिए कि हम कुछ मामलों में घोर असहमत हैं। सिंगुर हो आने जैसी बचकानी बातें छोड़ दीजिए क्‍योंकि ये मैं भी जानता हूं कि आज जंतर-मंतर पर नंदीग्राम में किसानों की हत्‍या पर होने वाले प्रदर्शन में आप वैसे ही अनुपस्थित रहेंगे जैसे अन्‍य में रहते आए हैं…यह सब कुछ समय और पैसे की उपलब्‍धता का सवाल होता है न कि प्रतिबद्धता का…

हां, अंतिम बात। मैंने कतई आपके चैनल के मित्रों की समझ पर कोई उंगली नहीं उठाई है…सिर्फ अगम्‍भीरता की बात कही है क्‍योंकि यह माध्‍यम की मजबूरी से जुड़ा है। मैं रवीश कुमार के बोलने के अंदाज को पसंद करता हूं…जोशी को खुद मैंने कितनी बार नेपाल की रैलियां कवर करने के लिए फोन किया है और वो आए हैं, इसके लिए मैं शुक्रगुज़ार हूं…पंकज पचौरी ने एक बार भारतीय जनसंचार संस्‍थान में मेरी क्‍लास ली है…आप कहां की बात लेकर बैठ गए महाराज…

बेशक आप अपने तईं फैशनेबल बैठकों में न आएं, लेकिन कम से कम उन तमाम संघर्षों को प्रकारांतर से गाली न दें जो देश के सुदूर हिस्‍सों में चल रहे हैं क्‍योंकि दिल्‍ली में जो कुछ भी होता है वह वर्ग समाज की विभिन्‍न अभिव्‍यक्तियां हैं…फर्क सिर्फ वेस्‍टेड इन्‍टरेस्‍ट से ही आ जाता है…उसका मखौल नहीं उड़ाया जा सकता…

आपका ही
अभिषेक श्रीवास्‍तव


(अविनाश द्वारा मीडियायुग पर की गई टिप्‍पणी नीचे दी जा रही है)

अविनाश का पत्र…

यार अभिषेक, मैंने इसलिए आपके और पंकज के लिंक मोहल्‍ले से हटाये, क्‍योंकि आपने मित्रता के तकाजे के तहत मुझे इतना भी नहीं बताया कि आपको एक कमेंट भेजा है। जबकि मैं कंप्‍यूटर से कोसों दूर था। मेरे पब्लिश करने से पहले ही उसे पंकज के ब्‍लॉग पर चढ़ा दिया। सब कुछ लगभग साज़ि‍श की तरह किया। और ऐसी बात भी नहीं कि मैंने अपने स्‍टैंड से इतर कोई भाजपाइयों से जा मिला हूं, या बाज़ार की पत्रकारिता का रातोरात झंडाबरदार हो गया हूं। आपके ही एक तीखे पत्र को मैंने मोहल्‍ले में जगह दी, तो इस पत्र में तो ऐसी कोई बात भी नहीं। तथ्‍यहीन और नासमझी में लिखे आपके पत्र को छाप कर मोहल्‍ले में मुझे खुशी ही होती कि आपको लोग ढंग से देख-समझ पाते। सही-सही वर्गशत्रु खोजने में अक्षम आप जैसे खाली दिमाग बुद्धिजीवी ने मुझे ही उस रूप में देखना शुरू कर दिया है, तो दोस्‍तों के मोहल्‍ले में आपके लिए जगह क्‍यूं। बेहतर हो, आप अपने अनाम जनपथ से हमारी ओर टहल करना भी बंद कर दें। बाकी सवाल-जवाब तो होते ही रहेंगे। दिल्‍ली में रह कर देश की बात करने वालों हाल हम संसद में भी देखते हैं, मीडिया में भी और फैशनेबल मीटिंगों में भी। इसलिए चिंता नहीं, इस पर हमारी आपकी बात होती रहेगी। बहरहाल पंकज के ब्‍लॉग छपी आपकी इसी अविकल चिट्ठी के जवाब में मेरा कमेंट भी यहां अविकल प्रस्‍तुत है:मैं अपने परम प्रिय पारिवारिक और कैशोर्य काल के मित्र पंकज पराशर की भूमिका और पिछले कुछ महीनों पहले बने मित्र अभिषेक श्रीवास्‍तव, जो अब मुझमे वर्गशत्रु की छवि देखने लगे हैं, के पत्र का क्‍या जवाब दूं, जबकि इनका सार मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है। वैसे भी उनके पत्र पर तीन प्रतिक्रियाकर्ताओं ने बिना संदर्भ जाने जिस तरह से वाहवाही की अज्ञानता परोसी है, उस पर अगर कुछ जवाब भी दूं तो इन्‍हें समझ में नहीं आएगा। पंकज की भूमिका में मेरी ओर इशारा करते हुए कुछ मुहावरे हैं। मसलन लोकतांत्रिक होने का स्‍वांग, चमकदार भाषा का दम, दुनिया को जीत लेने का ख्‍वाब, उपदेशक आदि आदि और अंतत: इसके बाद फासीवादी आदमी के रूप में होने वाली परिणति। अब इस पर अपना पक्ष रखने के लिए अभिषेक श्रीवास्‍तव की तरह अपनी प्रशंसा करने लायक बेशर्मी अरजनी होगी और इतना साहस मुझमें है नहीं। (अभिषेक ने पत्र में अपनी ज़बर्दस्‍त आत्‍मप्रशंसा की है।) और किसी भी गलीज से गलीज आदमी के बारे में भी इस तरह की भूमिका मुझे गैरवैचारिक और ईर्ष्‍या से भरी हुई लगती है। बहरहाल अभिषेक का ये पत्र मैं मोहल्‍ले में छाप देता (मोहल्‍ले में आने वाली प्रतिक्रियाएं ग़ौर से देखें माननीय श्री पंकज पराशर जी)। उन्‍होंने कमेंट के रूप में ये पत्र भेजा भी था, लेकिन उसे मैंने इसलिए रिजेक्‍ट कर दिया, क्‍योंकि उससे पहले ये पंकज के इस ब्‍लॉग पर छप गया है। अभिषेक में तो इतनी भी हिम्‍मत भी नहीं हुई कि इसे अपने ब्‍लॉग पर चढ़ाएं। (मीडिया युग आपका निजी ब्‍लॉग नहीं है, और हो सकता है ये कमेंट पढ़ने के बाद अब तक आपने अपने ब्‍लॉग पर भी अपने पत्र चढ़ा दिये होंगे।)बहरहाल, अभिषेक ने जो सवाल उठाये हैं, वे बचकाने हैं, क्‍योंकि उन्‍हें पढ़ कर यही एहसास होता है कि न तो उन्‍हें विचार या भाषा की समझ है, न समाज की और न सही-सही राजनीति की। ये सारी समझ सिर्फ इतनी भर है कि वे खुद को छोड़ कर बाकी दुनिया को औसत बता सकें। कथादेश में पत्र लिखने का आशय हरिवंश जी पर गोली चलाना नहीं था, और इसके लिए कंधे का सहारा लेने जैसी कोई बात भी नहीं थी। हरिवंश जी ने मुझ जैसे कितने ही पत्रकारों को ज़मीन दी। वो ज़मीन ऐसी थी, जिस पर खड़े होकर उनसे हम अपनी असहमति तक रख सकते थे और हमेशा रखते भी रहे। कथादेश में लिखा गया खुला पत्र इसी असहमति का एक अंश था। अभिषेक, जिन्‍हें पत्रकारिता सीखनी है और रिपोर्टिंग लायक तथ्‍यगत भाषा का खासा रियाज़ करना है, उन्‍हें नहीं मालूम है कि हरिवंश का हिंदी पत्रकारिता में क्‍या योगदान है। बहुत सारे योगदानों की बात छोड़ दें, तो एक क्षेत्रीय अख़बार को शून्‍य से शिखर पर पहुंचाने का उदाहरण ही अकेला सबसे बड़ा प्रसंग है। इस यात्रा में मैं भी हरिवंश जी के साथ आठ साल चला था, इसलिए उनके साथ मेरी असहमति के बिंदु भी उतने ही आत्‍मीय हैं, जितनी स‍हमति के बिंदु। इन बिंदुओं को समझना है अभिषेक जी, तो पहले हिंदी पत्रकारिता को एक आम आदमी के नज़रिये से देखिए। आपका बौद्धिक अतिवाद एक फैशन से ज्‍यादा कुछ नहीं। क्‍योंकि जब आप कहते हैं कि ब्‍लॉगिंग की दुनिया अराजनीतिक लोगों की दुनिया है, तो ये सब कुछ समझने के दावे जैसा ही है। और ये एक किस्‍म का अहंकार है, जो विचार और राजनीति के रास्‍ते में सबसे बड़ी बाधा है। आपने मोहल्‍ले के संदर्भ में एक टिप्‍पणी की है: ‘मोहल्‍ले के अधिकतर निवासी या यहां से गुज़रने वाले ऐसे टीवी पत्रकार हैं जो या तो चीज़ों को गंभीरता से नहीं लेते अथवा उन्‍हें व्‍यक्तिगत संबंधों और वैचारिक मतभेदों के बीच का झीना परदा नज़र नहीं आता।’ इस टिप्‍पणी में आपके भीतर बैठे स्‍वयंभू के दर्शन होते हैं। आपको शायद नहीं पता कि रवीश, पंकज पचौरी, हृदयेश या उमाशंकर सिंह की राजनीतिक-सामाजिक और पत्रकारीय समझ आपसे कहीं बहुत-बहुत ज्‍यादा है।दूसरी बात जो सवाल आप मुझसे हरिवंश जी से पूछने के लिए कह रहे हैं, वह आप खुद ही क्‍यों नहीं पूछ लेते। क्‍या आपकी यही राजनीति है कि अपने ब्‍लॉग का इस्‍तेमाल करने की जगह कभी पंकज पराशर के ब्‍लॉग से विषवमन करो, कभी अविनाश को उकसाओ। यही काम आप उन तमाम नौकरियों में करते होंगे, जहां से आपको निकाला गया होगा। इसके बाद आपके पत्र में व्‍यक्तियों से जुड़े राग-द्वेष के प्रसंग हैं, उन पर मैं इसलिए कोई जवाब नहीं देना चाहूंगा क्‍योंकि उससे कुछ हासिल नहीं होगा, और हो सकता है कि मुझे भी आपकी तरह व्‍यक्तियों के उदाहरण के साथ बात करने का रोग लग जाए।एक बात और, मुझे मेरी राह और मेरी असलियत बताने से पहले आप दिल्‍ली की गलियों के अलावा देश के नंदीग्राम और सिंगूर जैसे हिस्‍सों में घूम कर थोड़ा समाज, थोड़ी राजनीति समझें।अंत में एक शब्‍द ज्ञान देता हूं। विडम्‍बनात्‍मक कोई शब्‍द नहीं है, जो आपने अपने पहले वाक्‍य में लिखा है। इसलिए लिखते वक्‍त थोड़ा धैर्य रखें, नकली क्षोभ के प्रपंच से बचे रहें, और थोड़ा मनुष्‍य होकर लिखने की आदत डालें। आपमें बहुत संभावना है।

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