अभिषेक श्रीवास्तव
बनारस से लौटकर
बनारस में ज्ञान की खोज कबीर की देह पर गुरु रामानंद के पैर पड़ जाने जैसी कोई परिघटना होती है। यहां सायास कुछ भी नहीं मिलता, निरायास सब मिल जाता है। यहां बहसें हर ओर हैं, लेकिन बात को पकड़ना मुश्किल है। बात, कही भी जा सकती है। बात, अनकही भी होती है। मसलन, मणिकर्णिका घाट की सीढि़यों से ठीक पहले गली में एक चाय की दुकान पर पांच नौजवान अख़बार के पन्ने पलट रहे हैं। दिन के दो बजे हैं। एक के बाद एक शवों की आमद जारी है। अचानक एक नौजवान पास में गुमसुम बैठे अधेड़ उम्र के एक शख्स को संबोधित करते हुए एक ख़बर का शीर्षक पढ़ता है, ”गुरुजी, ई देखा, का छपल हौ। मगरमच्छ से खेलते थे बाल नरेंद्र!” अधेड़ व्यक्ति किसी भार को गरदन पर से हटाते हुए पूरी मेहनत से सिर उठाता है और कहता है, ”मगरमच्छ से खेला, शेर से खेला, सियार से खेला, बाकी आदमी से मत खेला। यहां तो आदमी ही आदमी से खेल रहा है।”
बीते छह दशक से इस देश में चल रहे आदमी और आदमी के बीच के खेल की सबसे बड़ी पारी का इस बार गवाह बने बनारस की फि़ज़ां में टनों धूल उड़ रही है। हमेशा सड़कों पर रहने वाले यहां के लोगों ने अपने मुंह पर काली पट्टी बांध रखी है। चौकाघाट पर ड्यूटी बजा रहे हवलदार सालिकराम यादव मुंह पर बंधी काली पट्टी के भीतर से बोलते हैं, ”और क्या किया जाए? टीबी-कैंसर होने से तो अच्छा है न कि मुंह-नाक बंद कर के रखें।” यहां सड़कें पहले भी बनी हैं। काफिले पहले भी गुज़रे हैं। धूल पहले भी उड़ी है। दो दशक पहले लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के लिए यहां सड़कें बनी थीं तो बाबरी ढहा दी गई। धूल इतनी उड़ी कि धुंध में लोगों को पता ही नहीं चला कि किसकी तलवार है और किसका सिर। तब एक नज़ीर बनारसी हुआ करता था जिसने अपनी जान जोखिम में डाली थी। फिर बरसों बाद दीपा मेहता की फिल्म के सेट पर धूल उड़ी तो मदनपुरा में खुद नज़ीर का मकान इस धुंध का शिकार बन गया। इस बार न नज़ीर हैं न उनका मकान। धूल पुरज़ोर है। बनारस के लोगों ने फिलहाल खुद को बचाने के लिए काली पट्टियों को बांधने की नायाब तरकीब निकाली है। हर आदमी जैन मुनि लग रहा है, सिवाय उस काले रंग के, जो अपने भीतर एक प्रतिरोध को समोए हुए है।
यह प्रतिरोध आपको ऊपर से नहीं दिखेगा। ऊपर सिर्फ हवा है। लहर है। धूल है। यह धूल हर हर कर के बरस रही है टीवी कैमरों के सामने और फोटोग्राफरों के लेन्स को चीरती हुई। कैमरे की आंख से जो दिख रहा है, वह बनारस नहीं है, इस बात की ताकीद करने वालों की पूरी एक कौम है जो मौत से भी ठंडी गलियों और चबूतरों पर गरदन झुकाए बैठी है। उन्हें पूछने वाला अबकी कोई नहीं है। जिन्होंने बनारस के अस्सी पर शामें गुजारी हैं, वे जानते हैं कि यह प्रतिरोध पप्पू की चाय की दुकान पर नहीं, पोई की दुकान पर मौजूद है। वे जानते हैं कि लंका पर केशव के यहां धूल उड़ती मिलेगी, उसके नीचे की परतें टंडनजी की दुकान पर ही दिख सकती हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पुराने छात्र नेता राकेश मिश्रा कहते हैं, ”मोदी की लड़ाई इतनी आसान नहीं है। लोग जानते हैं कि मोदी के आने के बाद इस शहर में क्या होगा, लेकिन संकट ये है कि मोदी विरोधी वोटों को इकट्ठा करने वाला कोई दमदार उम्मीदवार नहीं है।”
इस बार बनारस से लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों के नाम देखिए: बसपा से विजय जायसवाल, सपा से कैलाश चौरसिया, आम आदमी पार्टी से अरविंद केजरीवाल, कौमी एकता दल से मुख्तार अंसारी और भाजपा से नरेंद्र मोदी। कांग्रेस से अभी नाम तय नहीं हुआ है। दिग्विजय सिंह, अजय राय, राजेश मिश्रा, संकटमोचन के महंत विश्वम्भर मिश्रा और काशी नरेश के पुत्र अनंत नारायण सिंह के नामों पर दांव लगाया जा रहा है। शुरुआत में सभी भाजपा विरोधी दलों द्वारा एक संयुक्त उम्मीदवार की बात आई थी, लेकिन इसके परवान चढ़ने से पहले ही सबने अपने-अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए। उधर अपना दल के साथ भाजपा का समझौता हो गया जिसके कारण पटेल-भूमिहार बहुल रोहनिया संसदीय क्षेत्र का समीकरण बदल चुका है। प्रत्याशियों के लिहाज से बेशक नरेंद्र मोदी सबसे मज़बूत उम्मीदवार दिखते हैं, लेकिन सवाल बड़ा है कि आखिर भाजपा को वोट कौन देगा?
राकेश मिश्रा बताते हैं, ”भाजपा के बनारस में कुल एक लाख 70 हज़ार ठोस वोट हैं। आप अगर पिछले चुनावों में भाजपा प्रत्याशियों को मिले वोट देखें, तो यह दो लाख से कुछ कम या ज्यादा ही बना रहता है। इसका मतलब ये है कि मोदी के आने से जो हवा बनी है, उससे अगर पचास हज़ार फ्लोटिंग वोट भी भाजपा में आते हैं तो करीब ढाई लाख वोट पार्टी को मिल सकेंगे। इससे निपटने के लिए ज़रूरी होगा कि मुसलमान एकजुट होकर वोट करे। अगर मुख्तार मैदान में आ गए, तो यह संभव हो सकता है क्योंकि पिछली बार वोटिंग के दिन ही दोपहर में अजय राय और राजेश मिश्रा ने यह हवा उड़ाई थी कि मुख्तार जीत रहे हैं और पक्का महाल के घरों से लोगों को निकाल-निकाल कर मुरली मनोहर जोशी को वोट डलवाया था जिसके कारण जोशी बमुश्किल 17000 वोट से जीत पाए। अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो जोशी हार जाते।” कुछ और लोगों का मत है कि मुख्तार के आने से वोटों का ध्रुवीकरण हो जाएगा और नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित हो जाएगी। कांग्रेस पार्टी के युवा नेता मोहम्मद इमरान का मानना है कि मुख्तार के लिए अपने प्रचार का इससे बढि़या मौका नहीं होगा और वे मोदी से पक्का डील कर लेंगे। इधर बनारस से लेकर दिल्ली तक 25 मार्च की रात के बाद से चर्चा आम है कि मुख्तार से मोदी से कुछ करोड़ की डील कर ही ली है। अपना दल और भाजपा के बीच भी सौ करोड़ के सौदे की चर्चा है तो लखनऊ के सियासी गलियारों में पैठ रखने वाले मान रहे हैं कि राजनाथ सिंह ने पूर्वांचल में अपने उम्मीदवार मुलायम सिंह यादव से एक सौदेबाज़ी के तहत उतारे हैं। जितने मुंह, उतनी बातें। सारी बहस मोदी और मोदी विरोधी संभावित मजबूत उम्मीदवार पर टिकी है, जिनमें ज़ाहिर है कि एक बहस अरविंद केजरीवाल को लेकर भी है।
केजरीवाल बनारस की चुनावी बहस में 25 मार्च के बाद आए हैं। उससे पहले लोग उनका नाम सुनते ही हंस दे रहे थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना केजरीवाल के लिए नकारात्मक साबित हुआ है। लोग खुलेआम पूछ रहे हैं कि जब वे हर बात पर जनता से राय लेते हैं, तो क्या इस्तीफा देने से पहले भी उन्हें जनता से रायशुमारी नहीं करना चाहिए थी। बात वाजिब भी है, लेकिन मोदी के नाम पर उड़ाई जा रही धूल और चलाई जा रही हवा में केजरीवाल को दरअसल खारिज करने का भाव यहां ज्यादा है, गोया उन्हें मोदी के खिलाफ चुनाव में उतरने का कोई अधिकार ही न हो। यह एक किस्म का अंदरूनी भय है, जिसके बारे में पूछे जाने पर मोदी समर्थक हिंसक तरीके से ”मोदी मोदी” चिल्ला उठते हैं। यही भय 25 की सुबह रोड शो के दौरान केजरीवाल के ऊपर स्याही और अंडे फेंके जाने में दिखा। अरविंद की रैली से ठीक पहले बेनियाबाग मैदान के बाहर ड्यूटी पर खड़े पुलिसवालों की राय थी कि अगर मुख्तार अपना नाम वापस ले लें, तो केजरीवाल अकेले मोदी के लिए काफी होगा। उनके मुताबिक मुख्तार के आने से मोदी की जीत की संभावना बढ़ जाएगी। सामान्य तौर पर लोग यह मान रहे हैं कि अरविंद की ज़मानत नहीं बचेगी। ये लोग अधिकतर सवर्ण हैं जिनका दूसरे समुदायों के वोटिंग पैटर्न से ज्यादा लेना-देना नहीं है। बीस हज़ार लोगों से खचाखच भरे बेनिया मैदान में हुई अरविंद की रैली में मोमिन कॉन्फ्रेंस, बुनकर समाज, वाल्मीकि समाज, दस्तकारी-ज़रदोज़ी समिति और मुफ्ती की मंच पर मौजूदगी ने हालांकि उन्हें खारिज करने वाले कुछ लोगों को दोबारा सोचने पर मजबूर किया है।
बीएचयू के पुराने छात्र नेता और आजकल कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम गांव, गरीब, गांधी यात्रा के संयोजक विनोद सिंह एक मार्के की बात कहते हैं, ”अरविंद केजरीवाल कांग्रेस का नया भिंडरावाले हैं। जिस तरह कांग्रेस ने अकालियों को खत्म करने के लिए पंजाब में भिंडरावाले को प्रमोट किया था और अंतत: वह खुद कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित हुआ, उसी तरह केजरीवाल भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस के सहयोग से तो उतर गए लेकिन वह कांग्रेस का ही सफाया कर बैठेंगे। केजरीवाल मोदी के वोट नहीं काटेंगे, बल्कि भाजपा विरोधी वोट काटेंगे। इसके बावजूद उनकी बनारस में बहुत बुरी हार होनी तय है क्योंकि बनारस का एक-एक आदमी जानता है कि काल भैरव के दरबार में कम से कम बनारस का आदमी तो अंडा नहीं फेंक सकता। यह काम खुद केजरीवाल के वेतनभोगी कार्यकर्ताओं का किया-धरा है जिन्हें लेकर वे दिल्ली से आए थे।”
बनारस की चुनावी हवा में दो बातें बहुत विश्वास के साथ तैर रही हैं। पहली यह, कि नरेंद्र मोदी का जीतना तय है। दूसरी यह, कि केजरीवाल की ज़मानत ज़ब्त हो जाएगी। नरेंद्र मोदी कैसे जीतेंगे, यह तर्क गायब है। उसी तरह केजरीवाल की ज़मानत क्यों ज़ब्त होगी, इसकी व्याख्या भी नदारद है। इन दो बातों को समझने के लिए बनारस के कुछ बाहरी इलाकों, आज़मगढ़, प्रतापगढ़ और लखनऊ से मिल रहे बदलावकारी संकेतों को उठाया जा सकता है। सबसे पहला संकेत यह है कि उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण समुदाय भारतीय जनता पार्टी से क्षुब्ध है। हरीन पाठक से लेकर जोशी, कलराज मिश्र, लालमुनि चौबे आदि के साथ पार्टी के भीतर जो सुलूक किया गया है और जिस तरीके से राजनाथ सिंह ने पूरे पूर्वांचल को ठाकुर प्रत्याशियों से घेर दिया है, उससे एक संदेश यह गया है कि ब्राह्मणों के साथ भाजपा में नाइंसाफी हुई है। लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी रामकृष्ण की मानें तो बसपा द्वारा 21 सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशियों को खड़ा किया जाना एक सुखद संकेत है और संभव है कि ब्राह्मण एक बार फिर भाजपा को दगा दे जाएं। दूसरी बात, आजमगढ़ से मुलायम सिंह यादव के खड़े होने के नाते भाजपा का यादव वोटर भी इस बार सपा को वोट देगा, यह बात उतनी ही तय है जितनी यह कि कानपुर में जोशी और लखनऊ में राजनाथ सिंह की हार हो सकती है। मुज़फ्फरनगर दंगों पर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकार को दोषी ठहराए जाने की घटना ने पूर्वांचल के मुसलमानों के ज़ख्म हरे कर दिए हैं। प्रतापगढ़ में प्लाइवुड का कारोबार करने वाले मो. रईस कहते हैं, ”सपा को तो वोट देने का सवाल ही नहीं उठता।” अरविंद केजरीवाल की रैली के दिन बनारस की नई सड़क पर हर दुकानदार एक ही बात कहते मिला, ”यह बंदा मोदी को फाइट देगा।”
कौन किसको फाइट देगा, कौन किसको वोट, इस पर कुछ भी कहना अभी खतरे से खाली नहीं है। अरविंद की रैली से एक दिन पहले रोहनिया में गंगा किनारे स्थित शूलटंकेश्वर महादेव पर रवींद्र श्रीवास्तव नाम के एक सज्जन मिले। वे कठपुतली के माध्यम से सरकारी शिक्षकों को प्रशिक्षण देते हैं। बात-बात में सौ बातों की एक बात कह बैठे, ”बस पिक्चर बदलती रहती है, हॉल तो वही रहता है। सब कठपुतली हैं। कौन किसे नचा देगा, यह तो एक दिन पहले ही तय होगा। बाकी आप दिमाग लगाते रहिए।” इस बात पर दो दिन पहले आदमी से आदमी के खेल की बात कहने वाले मणिकर्णिका पर मिले वे अधेड़ सज्जन अचानक याद आए जिन्होंने ”हर हर मोदी” का नारा लगाने वाले नौजवानों की ओर कातर निगाहों से देखते हुए एक शेर पढ़ा था, ”चुप हूं कि पहरेदार लुटेरों के साथ है / रोता हूं इसलिए क्योंकि घर की बात है।”
घर की बात घर ही में रह जाए तो अच्छा। बाहर वालों से इसे साझा करना ठीक नहीं माना जाता। सब बोल रहे हैं, अपने-अपने तरीके से शहर को तौल रहे हैं, लेकिन बनारस फिलहाल अपने मुंह पर काली पट्टियां बांधे बाहरियों की उड़ाई धूल के बैठने का इंतज़ार कर रहा है। सुंदरपुर में काशीनाथ सिंह के घर से लेकर लखनऊ के हुसैनगंज के बीच चुपचाप एक मोर्चा शक्ल ले रहा है। जब मई की तपन में नई बनी सड़कों का कोलतार पिघलेगा, तब बनारस में कबीरा जागेगा।
(शुक्रवार पत्रिका में प्रकाशित और साभार)
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phir bhi bana rahega bana `ras`
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