सियासत के धुंधलकों में डूबता जनपद: तीसरी किस्‍त


अभिषेक श्रीवास्‍तव । ग़ाज़ीपुर से लौटकर  


सेमरा गांव में गंगा किनारे कटान का क्षेत्र और ढलती जिंदगी  

वास्‍तविकता यह है कि सामंतशाही पर टिकी बहादुरों की इस धरती का नामोनिशां अब धीरे-धीरे खत्‍म हो रहा है। जिन्‍हें इसकी फिक्र है और जो इसके लिए लड़ रहे हैं, वे प्रतिक्रियावादी ताकतों के हाथों ही कमज़ोर किए जा रहे हैं। शेरपुर, जिसे एशिया के सबसे बड़े गांव गहमर (ग़ाज़ीपुर) से भी बड़ा गांव यहां के लोग मानते हैं, गंगा में डूब रहा है। यह अचानक नहीं हुआ है। यहां के लोग बताते हैं कि 1930 के दशक के बाद से ही धीरे-धीरे गंगा का कटान इतना तीव्र हुआ है कि आज शेरपुर के सेमरा गांव का 70 फीसदी हिस्‍सा गंगा में समा चुका है और शिवरायकापुरा नामक गांव पूरी तरह गायब हो चुका है।


इसकी खबर जिलाधिकारी से लेकर उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को है, लेकिन कार्रवाई के नाम पर अब तक कुछ ठोस नहीं दिखा है। मोटे तौर पर इतना जानना काफी होगा कि फिलहाल कोई साल भर से साढ़े पांच सौ परिवार प्‍लास्टिक के तंबू गाड़कर अपने ही गांवों में, सड़कों पर और तहसील के प्राथमिक स्‍कूल प्रांगण में रहने को मजबूर हैं।
सीमेंट की बोरियां और बोल्‍डर जिनसे ठोकर निर्माण किया जाना है

अब जरा इस बहादुरों की धरती की डूब का इतिहास भी देख लें। वैसे तो शेरपुर के सेमरा, रामपुर, बच्‍छलपुर, हरिहरपुर गांव एक ही जगह हुआ करते थे और इनसे सटकर के ही गंगा बहती थी, लेकिन इनका उजड़ने का इतिहास 1932 से ही शुरू हो गया था जब गंगा कटान से रामपुर गांव का अस्तित्‍व ही खत्‍म हो गया। यहां के ग्रामीणों ने गंगा के पार जाकर नई बस्‍ती बसाई। फिर वहां से हटकर हरिहरपुर बसा और फिर कुछ लोग यहां से असम चले गए। इसके बाद 1948 में गंगा ने सेमरा के एक बड़े हिस्‍से को अपने आगोश में ले लिया जिसके कारण ग्रामीण सेमरा के पश्चिम में जाकर बस गए। 1979 से गंगा गांव के करीब आना शुरू हो गई और 2010-11 तक यह स्थिति आ गई कि सेमरा के पचासों परिवार अपने घर से बेघर हो गए क्‍योंकि उनकी जमीनें गंगा में समा गईं। लोगों का कहना है कि जब से गाजीपुर में ताड़ीघाट को जोड़ने वाला पुल बना, तब से ही गंगा का रुख गांवों की तरफ हो गया। 

गांवों को बचाने के लिए लंबे समय से यहां आंदोलन जारी है, लेकिन पहली बार 1998 में तत्‍कालीन केंद्रीय जल संसाधन मंत्री सी.पी. ठाकुर ने 1 करोड़ 23 लाख पचास हजार रुपये नदी के किनारे ठोकर बनाने के लिए जारी किए। इसके बाद 2011-12 में 35 लाख रुपये से 60 मीटर के ठोकर कर निर्माण किया गया। 1998 में जब ठोकर का निर्माण हो रहा था, उस समय अधिशासी अभियंता, वाराणसी मंडल सहित कुछ बड़े इंजीनियरों ने क्षेत्र का दौरा किया था और उसी वक्‍त बाढ़ नियंत्रण आयोग, पटना ने एक सर्वे किया था जिसमें पाया गया कि 12 किलोमीटर के क्षेत्र में कटान हो रहा था। इसके बाद 12 किलोमीटर के क्षेत्र को डेंजर जोन घोषित किया गया और गांवों को बचाने के लिए तकनीकी स्‍तर पर बड़ा काम करने का सुझाव दिया गया था जो कि ठंडे बस्‍ते में चला गया। इसके बाद शिवरायकापुरा गांव पूरी तरह गायब हो गया और सेमरा का 70 फीसदी हिस्‍सा गंगा में डूब गया।

डूब रहे सेमरा गांव के टेंट में पलती भावी पीढि़यां 
इन डूबते गांवों की जाति संरचना में भूमिहार सबसे मजब़ूत हैं और सर्वाधिक संख्‍या में मौजूद दलित सबसे कमज़ोर हैं। सेमरा गांव में प्रवेश करते ही आपको पगडंडियों के किनारे प्‍लास्टिक के टेंट लगाए कुछ लोग मिल जाएंगे। इनसे परिचय पूछने पर पता चलता है कि ये सभी यादव हैं, हालांकि इनमें मल्‍लाह और कुर्मी आदि जातियां भी हैं। गांव से होकर गंगा की ओर बढ़ते हुए ऐसे ही कई झोंपड़े रास्‍ते में मिलते हैं। पानी और कीचड़ के कारण जहां से आगे मोटरसाइकिल का जाना संभव नहीं हो पाता, वहां एक बड़ा सा फाटक है और उसके सामने बड़ा सा तालाबनुमा गड्ढा है। हमारे एक स्‍थानीय साथी बताते हैं कि भले ही इस गांव में भूमिहारों की संख्‍या कम है, लेकिन सबसे कम नुकसान ”राय साहब लोगों” को ही हुआ है क्‍योंकि इनके हर एक मकान के आगे बड़ी सी गड़ही है जो वैसे तो गांव की होनी चाहिए, लेकिन जिसे इन लोगों ने अपने नाम लिखवा रखा है। नतीजा यह है कि जब पिछले साल पानी आया तो निचले इलाकों में बाढ़ आ गई और सारी गड़ही भर गई, लेकिन इन लोगों के मकान बच गए। सबसे ज्‍यादा नुकसान हरिजन बस्तियों को हुआ। एक बस्‍ती तो पूरी की पूरी ही गंगा में समा गई। यह बात कितनी सच है और कितनी अतिशयोक्ति, इसका पता करने के लिए हमने 2013 में प्रभावित परिवारों की दो गांवों की सरकारी सूची देखी तो चौंकाने वाला नतीजा सामने आया।


तालिका 1 के मुताबिक सेमरा के कुल 254 प्रभावित परिवारों में सिर्फ एक परिवार भूमिहार है। इस से भी बुरी स्थिति शेरपुर के लुप्‍त हो चुके शिवरायकापुरा गांव की है जहां तालिका 2 के मुताबिक एक भी भूमिहार का मकान डूब में नहीं गया है। दोनों ही सूचियों को देखने पर पता लगता है कि सर्वाधिक प्रभावित जाति दलितों की है और उसके बाद सबसे ज्‍यादा नुकसान यादवों को हुआ है। गांवों में जाने पर हालांकि अधिकतर टेंट और प्‍लास्टिक से बने अस्‍थायी आशियाने यादवों के ही मिलेंगे। हमें बताया गया कि अधिकतर दलित ज़मीन न होने के चलते अपने गांवों से पलायन कर गए हैं और जो बचे हैं वे तहसील मुख्‍यालय के आसपास सरकारी स्‍कूलों के प्रांगण और अन्‍य जमीनों पर बस गए हैं। गंगा के तेज़ कटान और बंधा बनाने के लिए बिखरे पड़े बोल्‍डरों को देखते हुए हम सूरज डूबते ही वापस शहर की ओर निकल पड़ते हैं।
प्राथमिक स्‍कूल परिसर में रह रहे विस्‍थापित 
मुहम्‍मदाबाद के प्राथमिक व माध्‍यमिक विद्यालय का परिसर ग्रामीण संवेदनहीनता और जातिवाद के कहर का एक अद्भुत मंज़र जान पड़ता है। सफेद रंग में पुते भवनों के बीच स्‍कूल के परिसर के किनारों पर पचासों अस्‍थायी टेंट लगे हैं। कहीं रोटी पक रही है तो कहीं चूल्‍हा जल रहा है। लोग खाली बैठे हुए हैं और बच्‍चे खेल रहे हैं। बिजली नहीं है। पूरे माहौल को एकाध चूल्‍हे और पेट्रोमैक्‍स रोशन कर रहे हैं। कुछ रोशनी कस्‍तूरबा गांधी बालिका छात्रावास की खिड़कियों से छनकर आ रही है। हमारे पहुंचते ही लोग गोलबंद होकर एक पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं और अपनी-अपनी समस्‍याएं कहने लगते हैं। इनमें दलित और गड़ेरिये परिवार हैं। एक परिवार ब्राह्मण का भी है। उनके लिए संघर्ष करने वाले उनके स्‍थानीय नेता प्रेमनाथ गुप्‍ता हमारे साथ आए हैं, इसलिए लोग कम बोलते हैं और गुप्‍ता ही ज्‍यादा बोलते हैं। बीच-बीच में वे नारे लगवाते हैं और कुछ महिलाएं रह-रह कर भुनभुनाती भी हैं। पता लगता है कि लंबे समय से ये लोग धरना, अनशन, घेराव आदि तमाम तरीके अपना चुके हैं लेकिन अब तक गृह अनुदान के अलावा कोई ज़मीन या मकान/झोंपड़ा आदि इन्‍हें नहीं मिल सका है। काम के नाम पर इनके पास कुछ भी नहीं है। प्रेमनाथ का मानना है कि राज्‍य में यादवों की सरकार है इसलिए दलितों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। यह पूछे जाने पर कि क्‍या सभी यादवों को मुआवज़ा और मकान मिल गया है, वे ना में सिर हिला देते हैं।
ग़ाज़ीपुर के वामपंथी आंदोलन से जुड़े पुराने लोग प्रेमनाथ के जीवट को खूब सराहते हैं। प्रेमनाथ भी अपनी मेहनत के बतौर अखबारी कतरनों से भरी फाइल पेश करते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से डॉक्‍टरेट कर चुके और यहां शिक्षा में एक स्‍कूल के माध्‍यम से कुछ प्रयोग कर रहे वसीम अख्‍तर बताते हैं, ”मीडिया कवरेज के मामले में प्रेमनाथ भाई का कोई जोड़ नहीं है।” एक और सज्‍जन कहते हैं, ”दरअसल, प्रेमनाथ भाई मेहनत तो बहुत करते हैं, बहुत भले आदमी हैं, लेकिन यहां के राय साहब लोग नहीं चाहते कि एक ‘तेली’ इतना आगे बढ़ जाए। उन्‍हें यह हज़म ही नहीं होता कि निचली जाति का यह आदमी कैसे विस्‍थापितों के लिए इतना बड़ा आंदोलन चला रहा है, इसीलिए वे सहयोग नहीं करते।”
‘गांव बचाओ आंदोलन’ के नेता प्रेमनाथ गुप्‍ता विस्‍थापितों के साथ 
झोला लटका कर साइकिल से चलने वाले इकहरी काया के प्रेमनाथ गुप्‍ता पिछले दो साल से जी जान से कटान पीडि़तों की लड़ाई में जुटे हैं। ‘गांव बचाओ आंदोलन’ के बैनर तले वे न सिर्फ मुख्‍यमंत्री बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी गुहार लगा चुके हैं। नई सरकार के 26 मई को शपथ लेने के तुरंत बाद 28 मई 2014 को प्रेमनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को डूबते हुए गांवों  के संबंध में एक पत्र लिखा था, जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने 18 जून 2014 को उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍य सचिव को अग्रसारित किया। इसके बावजूद तीन महीने बीत गए लेकिन राज्‍य सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं हुई। फिर प्रेमनाथ ने रेल राज्‍यमंत्री और गाज़ीपुर के सांसद मनोज सिन्‍हा को एक पत्र भेजा, जिसके जवाब में मनोज सिन्‍हा ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती को 24 जून 2014 को एक पत्र लिखा जिसमें नदी के कटान की वजह से विस्‍थापित हुए अपने संसदीय क्षेत्र के ग्रामवासियों का पुनर्वास करने का अनुरोध किया गया है। इस पत्र को भी दो महीने बीत चुके हैं।
कटान पीडि़तों के पुनर्वास का काम जितना जटिल बनाया जा चुका है, यह तकनीकी रूप से वास्‍तव में उतना मुश्किल नहीं है क्‍योंकि 31 जुलाई 2012 को उत्‍तर प्रदेश के सभी मंडलायुक्‍तों व सभी जिलाधिकारियों को भेजे एक पत्र में (पत्र सं. 2010/1-10-12-33(37)/12, टी.सी.) राज्‍य के मुख्‍य सचिव किशन सिंह अटोरिया ने विस्‍थापितों को पुनर्स्‍थापित किए जाने के लिए निशुल्‍क भूमि आवंटन कराए जाने बाबत आदेश दिया था। इस पत्र के सातवें बिंदु में लिखा है:
(7) लाभार्थियों की पात्रता निर्धारण हेतु प्राथमिकता निम्‍न होगी:
(क) अनुसूचित जाति या जनजाति के व्‍यक्ति
(ख) पिछड़े वर्ग के व्‍यक्ति
(ग) गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले सामान्‍य श्रेणी के व्‍यक्ति
ज़ाहिर है, यह सिर्फ एक काग़ज़ी आदेश है जिसका ज़मीन पर उतरना अब भी बाकी है जबकि गांवों की ज़मीन गंगा में समाती जा रही है। प्रेमनाथ के अलावा भी यहां कुछ लोग हैं जिन्‍हें डूबते गांवों की फि़क्र है, लेकिन उनकी जमात भी अब लुप्‍त होने के कगार पर है। 

(जारी)

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