लेखक क्‍या हत्‍यारों के साझीदार हुए?


2013 में हिंदी साहित्‍य का लेखा-जोखा 

रंजीत वर्मा 
जब 2013 शुरू हुआ था तब दामिनी बलात्कार कांड को लेकर पूरा देश आंदोलनरत था और जब यह खत्म हुआ, तो खुर्शीद अनवर से जुड़े बलात्कार के एक मामले और अनवर की आत्महत्या को लेकर लोग बहस में थे और बलात्कार का आरोप लगाने वाली लड़की पर ही सवाल उठा रहे थे। वह लड़की जिसने बलात्कार का आरोप लगाया है, उसने साल की शुरुआत में चले बलात्‍कार विरोधी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था, लेकिन साल का अंत होते-होते वह खुद मणिपुर के अपने कमजोर से घर में दबी-सहमी बैठी है। उसके लिए किसी आंदोलन की बात तो दूर, उसे खुद कठघरे में खड़ा कर दिया गया है और इसमें कई लोग वही हैं जो साल के शुरू में बलात्कार पीड़ित महिला के लिए हाथों में मोमबत्तियां लिए आंदोलनरत थे। उन्हीं लोगों ने आज साल का अंत होते-होते बलात्कार के आरोपी के लिए हाथों में मशाल लिए आक्रामक मुद्रा अख्तियार कर ली है। 

कई साहित्यकार भी इन दोनों घटनाओं को लेकर आंदोलन में रहे और बहस में भी रहे, लेकिन कविता, कहानी या साहित्य की किसी भी विधा में इस द्वंदवात्मकता पर उन्होंने विचार नहीं किया। इनका बेचैन स्वर कहीं सुनाई नहीं दिया। सामाजिक-आर्थिक विश्‍लेषण करता भी कोई लेख साहित्य में देखने को नहीं मिला जबकि पूरे साल साहित्य रचा जाता रहा।

सोलह-सत्रह साल पहले बिहार में लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला और नगरी गांव में जनसंहार को अंजाम देते हुए भारी संख्या में दलितों की हत्या की गई थी लेकिन फैसला बीते साल आया और तीनों मामलों में अभियुक्तों को बेकसूर माना गया और सभी को रिहा कर दिया गया। बाथे में 58 दलितों की हत्या की गयी थी और तब पूरा देश इस कांड से हिल गया था। साहित्यकार कितना हिले थे उन दिनों, कहना मुश्किल है लेकिन जब ऐसा अन्यायपूर्ण फैसला पिछले साल आया और जो एक-एक कर पूरे साल आता रहा, तब उनकी ओर से कोई आवाज उठी हो ऐसा दिल्ली में कम से कम देखने को नहीं मिला। पटना में एक कविता पोस्टर ज़रूर निकला जो बस पत्ता खड़कने जैसा मामला ही रहा नहीं तो पूरे हिंदी साहित्य में सन्नाटा ही पसरा रहा। जनकवि कृष्ण कुमार विद्रोही ने ज़रूर भीजपुरी में लिखा, ”बाथे, बथानी, नगरी/एके कहानी सगरी/कोर्ट से भइली निसहार जी।” हिन्दी में इन फैसलों की कोई सुध नहीं ली गई जबकि दलित समुदाय के हत्यारे एक-एक कर बरी होते गए। जो प्रत्यक्षदर्शी गवाह थे, उनसे कोर्ट ने कहा कि अगर तुम वहां थे तो बच कैसे गए। तुम झूठ बोल रहे हो। दलित साहित्य सहित पूरे हिंदी साहित्य में कितने लोग उसकी गवाही पर यकीं कर रहे हैं, कहना मुश्किल है।

शताब्दी की शुरुआत में गुजरात में जो राज्य प्रायोजित दंगा हुआ था उस पर आज भी कविताएं लिखते हुए हिन्दी के कवि मिल जाते हैं लेकिन साल के अंत में मुजफ्फरनगर में जिस तरह दंगे को अंजाम दिया गया और मुस्लिमों की हत्याएं की गईं और उसके बाद वहां से जान बचा कर भागे लोगों को जिस तरह इस भीषण ठंड में राहत शिविरों में ठिठुरते हुए रात गुजारने को उन्हें विवश किया जा रहा है, वह मारक है लेकिन उनकी सुध लेने हिन्दी से तो अभी तक कोई नहीं गया जबकि यह एकदम बगल का जिला है। यही बेरुखी आदिवासियों के ऊपर ढाए जा रहे जुल्म को लेकर नजर आती है। उन्हें माओवादियों का संघर्ष कह कर दरकिनार कर दिया गया है और इस तरह कार्पोरेट की लूट और हत्या भरी साजिशाना कार्रवाई पर एक तरह से चुप्पी साध ली गई है। इन सबके बावजूद यह कहना कितना विडंबनापूर्ण है कि हिन्दी साहित्य में सबसे ज्यादा आदिवासी, स्त्री और दलित विमर्श होता है। इस उक्ति से ज्यादा व्यंग्यपूर्ण और क्या हो सकता है जब हम कहते हैं कि सेकुलरिज्म हमारी सबसे बड़ी चिंता है। हिंदी साहित्य के इस खोखलेपन को समझा जा सकता है। इसके बावजूद गर्व से कहते लोग मिल जाएंगे कि पिछले साल हिंदी साहित्य का संसार गतिविधियों से भरा पड़ा था। सब के पास कुछ न कुछ है कहने को जिसे वे किसी उपलब्धि से कम मानने को तैयार नहीं। बात उपलब्धि भरी हो भी सकती है लेकिन ऐसी उपलब्धि का क्या मतलब जो व्यक्तिगत दायरे से आगे कदम न बढ़ा सके जो अपने समय को प्रभावित न कर सके।

हिन्दी में भी जैसा कि लोग बताते हैं कि कारोबार हर बार पिछले साल को पीछे छोड़ता आगे बढ़ जाता है। जाहिर है इस साल भी वह आगे बढ़ा। जानकार लोग बताते हैं कि अब तो यह साल भर में अरब रुपए से आगे चला जाता है। यह इस बढ़ते कारोबार का ही लक्षण है कि जहां पिछले साल तक साहित्य उत्सव होते थे वहीं अब इस उत्सव के साथ-साथ तमाशा भी होने लगा है। जयपुर उत्सव तो होता ही है, इस बार लखनऊ में साहित्य कार्नीवाल भी हुआ। इतना ही नहीं, साहित्य को लेकर उदासीन रहने वाली बिहार सरकार ने भी दिसंबर में भारतीय कविता समारोह नाम से तीन दिनों तक बड़े पैमाने पर कविता गोष्ठियों का आयोजन किया जिसमें अपने समय के मशहूर नक्सल कवियों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। मान लेना चाहिए कि साहित्य में धूम-धड़ाके का प्रवेश हो चुका है, नहीं तो क्या वजह है कि छोटे-छोटे पुरस्कारों की भी बड़ी घोषणाएं होती हैं? क्यों यहां विमर्श तो होते हैं लेकिन कहीं सरोकार नहीं दिखाई देता है? क्यों हम तमाशे में लखनऊ चले जाते हैं और आगे बढ़ कर समारोह में शामिल होने पटना चले जाते हैं लेकिन दंगा पीड़ितों के बीच मुजफ्फरनगर नहीं जाते? अचानक यह कैसी परिस्थिति बनती है कि हम खुद को बलात्कारी के पक्ष में खड़ा पाते हैं? अचानक हम पाते हैं कि हम दलितों के हत्यारे के साथ बैठे हैं और देश-समाज को लेकर चिंताएं प्रकट कर रहे हैं? आखिर हम किन विमर्शों और चिंताओं में शामिल हैं?

आचरण से जो गंभीर विमर्श पैदा होते हैं वह कहीं दिखाई नहीं देता क्योंकि वैसा आचरण ही अब दिखना मुश्किल है तो लिहाजा बहस भी गायब है। एक शब्‍द जो पिछले साल जरा जोरों पर रहा वह था आवाजाही’- मतलब कि विचारधारा की कोई घेरेबंदी न हो, एक दूसरे का मंच साझा किया जाए ताकि संवाद की स्थिति बने। सुनने में यह चाहे जितना अच्छा लगे लेकिन व्यावहारिक नहीं होने के कारण इस शब्‍द का जबरदस्त दुरुपयोग हुआ। साहित्य में सक्रिय वामपंथी ताकतों की विश्‍वसनीयता को क्षति पहुंचाने में इसका भरपूर इस्तेमाल किया गया। इसी क्रम में बहस की स्थिति तब आई थी जब राजेन्द्र यादव ने 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती पर अपने सालाना कार्यक्रम में जनसंघ के थिंक टैंक माने जाने वाले गोविंदाचार्य के साथ नक्सलवादी कवि वरवर राव को मंच साझा करने के लिए आमंत्रित किया था। वरवर राव ने कड़े शब्दों में इस आवाजाही की निंदा करते हुए कार्यक्रम में शरीक होने से इंकार कर दिया था। अरुंधति राय को भी इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया था और उन्होंने भी जाना मुनासिब नहीं समझा। वरवर राव ने पत्र लिख कर जो असमर्थता जतायी थी या अपना पक्ष रखते हुए राजेंद्र यादव ने जो ‘हंस’ के संपादकीय में लिखा था, वह बहस खड़ी करने के लिए काफी था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। लोग उत्सवों, तमाशों और सरकारी समारोहों में पूरी निष्ठा से शामिल होते रहे।
2013 में जो स्थिति दिखाई दी वह पिछले कई वर्षों के सुनियोजित प्रयासों का परिणाम है जो आने वाले दिनों में और भी साफ तौर पर सामने आने वाला है। हिंदी को बाजार के हवाले कर दिए जाने की योजना बनाई जा चुकी है। अरबों रुपए का निवेश और उत्सवों, तमाशों का मकसद जनपक्षीय साहित्य को नेपथ्य में धकेलना, सत्ता की ओर चुनौती फेंकने वाली किसी भी बहस को अप्रासंगिक बना देना और सेलेब्रेटी की स्थापना करना है। बाजार का पहिया बिना सेलेब्रेटी के घूम नहीं सकता। उर्दू में जावेद अख्तर को 2013 का साहित्य अकादमी पुरस्कार के दिए जाने को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। शहरयार को यह पुरस्कार पहले ही दिया जा चुका है। ये दोनों हिंदी फिल्मों के पटकथा लेखक और गीतकार हैं इसलिए हिंदी कवियों जैसी ही इनकी पहचान है। गुलज़ार को भी इसीलिए महत्व दिया जाता है। उत्सवों में दिखाया जाता है कि कैसे हिंदी के बड़े से बड़े लेखक उनके सामने बौने हैं। मकसद इतना ही नहीं है बल्कि यह भी बताना है कि यही हिंदी के सबसे बड़े लेखक या कवि हैं। यह सब दुखद है लेकिन इनका सामना करने के लिए जिस तरह के मूल्यपरक लेखन और जुझारू रचनाकारों की जरूरत है वह सब बीते दिनों की बात होकर रह गई है। सामने अप्रकाशित किताबों के अल्पज्ञात रचनाकार हैं जो हिंदी का संसार बनाते हैं। इनकी स्थिति आने वाले दिनों में और खराब होने वाली है। कॉर्पोरेट शक्तियां अपना असर दिखाने लगी हैं।
वैसे भी हिंदी साहित्‍य के लिए 2013 काफी दुखद रहा। कई मूर्धन्य रचनाकारों का निधन अपूरणीय क्षति के रूप में सामने आया। राजेंद्र यादव, विजयदान देथा, ओप्रकाश बाल्मीकि, परमानंद श्रीवास्तव के योगदान को हिंदी साहित्य कभी भूल नहीं पाएगा जो अब हमें किसी गोष्‍ठी, किसी सेमिनार में नजर नहीं आएंगे। जैसे मृत्यु जीवन का पीछा करती है और अंत में एक दिन उसे दबोच लेती है, उसी तरह हर मृत्यु के बाद एक नई उम्मीद को लिए जीवन के अंकुर भी फूटते हैं। हमारे पास ऐसा सोचने के पर्याप्त कारण हैं कि वह दिन नजदीक ही है जब हम इस बुरे वक्त को शिकस्त देंगे। वही लोग जो अल्पज्ञात हैं और जो अप्रकाशित किताबों के रचनाकार हैं, एक दिन साहित्य में घुसी-पड़ी कॉर्पोरेट ताकत और उनसे हाथ मिलाए ब्राह्मणवादी रचनाकारों को बाहर का रास्ता दिखाएंगे।

(लेखक साहित्यिक-सांस्‍कृतिक त्रैमासिक ‘भोर’ के प्रधान संपादक हैं) 
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